आचार्य द्विवेदी आचार्य नहीं थे
दुर्भाग्य के कई रूप होते हैं, इनमें से एक है आप का महिमामंडन करने के लिए किसी ऐसे शब्द का प्रयोग जो किसी सिली सिलाई पोशाक की तरह आपको फिट न आता हो; जिसमें आप कसे और फँसे अनुभव करें; या जो इतना फैला हो कि उसमें आप जैसा एक और इंसान समा तो सके पर हाथ-पाँव न हिला सके और आप इंसान होते हुए भी चिड़ियों और जानवरों को भगाने के लिए खेतों में खड़े किए गए धोखे ( scarecrow) जैसा अनुभव करें और फिर भी लबादा उतार कर फेंकने का साहस न जुटा पाएँ।
हिंदी में दो ही आचार्य हुए हैं। एक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और दूसरे रामचंद्र शुक्ल जिनके साथ कई लोग आचार्य शब्द को पूर्व पद के रूप में लगा देते हैं। लगा दें, परंतु यह विरुद दोनों को फबता है। आचार्य वह है जो अपने आचरण से अथवा अपनी शिक्षा से आचार के मानक तैयार करे, उनके अनुसार अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले व्यक्तियों को उसके ढाले या प्रेरित करे।
इनके साथ एक महिमा भी जुड़ी हुई है और एक सीमा भी। कारण, वे अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों को असमंजस की स्थिति से उबार कर एक सुलझी अवस्था में पहुँचाते तो हैं परंतु उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए नई ऊंचाइयों पर पहुंचने का रास्ता बंद कर देते हैं ।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल दोनों के मामले में इसे सही माना जा सकता है। परंतु इस दृष्टिकोण को अपना लेने के बाद उनके प्रति हमारी संवेदना इतनी भोथरी हो जाती है कि हम यह भी नहीं समझ पाते कि आगे का विद्रोही चरण इनके द्वारा तैयार की गई भूमि के अभाव में संभव ही नहीं था।
हिंदी जगत में इन दो आचार्यों के बिना हम तुतला सकते थे, तालियां बजा सकते थे, अपने विचारों को सही और जनमानस की भाषा में, पूरे सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत नहीं कर सकते थे। देव भाग यहीं समाप्त होता है।
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आश्चर्य है कि द्विवेदी जी के आत्मीय शिष्यों में से कोई ऐसा नहीं हुआ जो द्विवेदी जी के अनूरूप एक कदम भी चल पाया हो। सचेत रूप में केवल एक व्यक्ति ने प्रयास किया, वह थे शिवप्रसाद सिंह । मूल का अनुकरण, मूल की अनुकृति नहीं होता, उसका ह्रास होता है, फिर भी द्विवेदी जी के प्रति सच्ची श्रद्धा का निवेदन अकेले शिव प्रसाद सिंह ने करना चाहा, कर न पाए, क्योंकि समझ की चूक थी। दूसरे शिष्य द्विवेदी जी की डफली बजाते रह गए कि यदि इसकी आवाज गली-गली घूमकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नगाड़े से ऊपर उठाई जा सके तो वे अपनी गुरु दक्षिणा पूरी कर सकेंगे।
इसने हिंदी साहित्य के पर्यावरण को दूषित तो किया परंतु उनके लेखों और कारनामों से द्विवेदी जी का कद 1 सेंटीमीटर भी ऊंचा उठा होता तो इस सौभाग्य का समारोह मनाया जा सकता था। द्विवेदी जी ने जिस परंपरा की नींव डाली थी, उसको समझने तक की योग्यता का अभाव मुझे उनके शिष्यों में दिखाई देता है।
उनमें से किसी में यदि इतनी योग्यता भी होती कि वह द्विवेदी जी की परंपरा को पहचान पाता तो मुझे सबसे अधिक संतोष होता, क्योंकि उस व्यक्ति की खोज मैंने स्वयं की। यह वह व्यक्ति था, जिसके सामने नामवर जी नरम हो जाया करते थे और पीठ पीछे उसके विरोध में साठगांठ करने लगते थे। मैं उसका नाम नहीं लूंगा क्योंकि आप में से कई को यह भ्रम हो सकता है कि मैं अपनी प्रशंसा कर रहा हूं।
बात अकेले उनकी नहीं है द्विवेदी डफली बजाने वालों की है। वे सोच बैठे कि अपने निजी स्वार्थ से, आचार्य शुक्ल की आड़ लेकर, द्विवेदी जी का विरोध करने वालों से बदला लेने का एक ही तरीका है कि द्विवेदी जी को आचार्य शुक्ल से बड़ा सिद्ध कर दिया जाए। इसी चक्कर में द्विवेदी जी मनीषी कवि की भूमिका से उतार कर आचार्य बना दिए गए।
द्विवेदी जी आलोचक थे ही नहीं। हिंदी के आलोचक तो हो ही नहीं सकते थे। आलोचक के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समक्ष, जिन्होंने हिंदी के एक एक कवि, हिंदी के एक-एक शब्द की पहचान की हो, कहीं ठहरते ही न थे। वह संस्कृत के विद्वान थे, हिंदी उन्हें लाचारी में अपनानी पड़ी।
साहित्य के दार्शनिक थे। वह कवि थे। कवि किसी भाषा का नहीं होता संवेदना की गहराइयों का होता है और इसलिए समग्र मानवता का होता है जिसे अपनी भाषा में उतारने के बाद आप पाते हैं वह तो आपका ही कवि है।
यह वह ऊँची भूमिका है, जिसमें, कविताई में थोड़ा बहुत हाथ पांव मारने के बावजूद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल पहुंच नहीं सकते थे। इसका स्वप्न भी वह देखते तो सँजो नहीं पाते।
यह वह भूमिका है जिसमें ज्ञान भी तुच्छ लगता, पांडित्य भी हास्यास्पद लगता है। हिंदी में यदि केवल दो आचार्य हुए, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल, तो हिंदी में ही नहीं मेरी सीमित जानकारी के भारतीय साहित्य में मेरे सामने केवल 3 नाम आते हैंः अनाचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, गुलेरी और तुलसीदास। ज्ञान की सिद्धावस्था में पहुंचे हुए ज्ञान का उपहास करते हुए जिस भी चीज को छू दें वह मोम बनकर चीख उठे, मुझे द्रवित तो किया, आकार भी तो दो और उनका अट्टहास ठोस हो कर कलाकृति में बदल जाए।
उनका समस्त लेखन सभी विधाओं को तोड़ता है अपनी स्वतंत्रता और निजता के साथ, जैसे प्रकृति की प्रत्येक उत्पत्ति एक सार्वभौम सीमा के भीतर एक वृक्ष की तरह अब तक के सभी वृक्षों की सीमाएं तोड़ता हुआ अपने नियम से बढ़ता है।