दैन्योपरि पलायनं
अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे न दैन्यं न पलायनम् ” –अर्जुन की दो प्रतिज्ञाएं हैं–न तो वह कभी दीनता प्रगट करेगा, और न ही पलायन करेगा–महा.भा. ।
द्विवेदी जी के साथ उल्टा पाठ बनता है – न प्रज्ञा न प्रतिज्ञानं दैन्योपरि पलायलम्।
द्विवेदी जी पर लिखते हुए सभी ने उनकी कमजोरी को देखने से इंकार किया है। मैं स्वयं इसकी मीमांसा में नहीं जाना चाहता, परंतु हम अपने श्रद्धेय जनों से प्रेरित और उनके आचार से अनुकूलित होते हैं और मेरी मोटी समझ के अनुसार जिन्हें हम किसी भी क्षेत्र की विभूति मानते हैं उनका आचरण ऐसा होना चाहिए कि उसका अनुसरण करने वालों को समग्र उत्थान हो सके।
मोटी समझ धरी रह जाती है जब बारीक समझ से विचार करने पर हम पाते हैं कि महानता एकदिश होती है। महान विभूतियों के सभी पक्ष हमारे लिए अनुकरणीय नहीं होते।
द्विवेदी जी इतने दीन-हीन परिवार में नहीं पैदा हुए थे कि अपनी दीनता का रोना रोते। छात्र जीवन में यह सच लग सकता था, पर शांतिनिकेतन में सबसे प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए, जो सुविधाएं अपने समकक्ष दूसरों को सुलभ नहीं थीं, उनको पाते हुए भी, केवल इस लालसा में कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में, जिसका बौद्धिक पर्यावरण उस पर्यावरण के विपरीत होगा, जिसमें पहुंचने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ था, वापस आना शवसाधना का ही एक रूप था, जिसे रामविलास जी ने, एक दूसरे प्रसंग में, इस्तेमाल किया था जिसने आलोचना की चिंताधारा को प्रभावित किया।
परंतु कुछ और पाने की आकांक्षा ने उनके विवेक को अवरुद्ध कर दिया था। संज्ञा के अभाव की बात इसी संदर्भ में की जा सकती है। मुझे सुमन जी को लिखे गए आत्मीय पत्रों को पढ़ते हुए अक्सर अंतर्व्यथा होती है क्योंकि अनजाने ही द्विवेदी जी मेरे आचार्य बन बैठे। जिंदगी के एक पिछले पड़ाव पर मुझे लगा मैं द्विवेदी जी से आगे बढ़ा ही नहीं हूं और फिर भी द्विवेदी जी मुझसे बहुत पीछे छूट चुके हैं। लगा मैं उसी चेतना के ग्राफ के अनुसार तरंगित और उद्वेलित होता रहा हूं और इस प्रपंच के कारण इस भ्रम का शिकार होता रहा हूँ कि मैं अगले जमाने को प्रस्तुत कर रहा हूं और इस भ्रम में ही एक ऐसा आलोक मिला हो, जिसके बाद लगा हो उन्होंंने इस कोण से तो देखा ही नहीं, होते तो दिखाता, और कहता आपने तो सत्य का दर्शन ही नहीं किया, अध्यास या प्रतीति को ही यथार्थ समझ बैठे।
अपने प्रमाण पुरुष का कद ही छोटा हो जाए तो आघात तो अनुभव होगा ही। उसी से अपने को भी नापने की जरूरत अनुभव होती है। यदि उससे दारुण परिस्थितियों मैं मैंने स्वयं अपने दिन तनी हुई रीढ़ और तनी हुई गर्दन के साथ न काटे होते, और यदि इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे निराला, शमशेर, त्रिलोचन, विष्णु चंद्र शर्मा न याद आते तो मैं संतुलित रूप में दिवेदी जी से असहमत भी नहीं हो सकता था।
महान लोगों में उनकी अच्छाइयों के अनुरूप ही बुराइयाँ भी होती हैं। ऊंचे शिखर में ही पातालगामी खाइयाँ भी हो सकती हैं। द्विवेदी जी यहाँ भी हमें निराश करते हैं। उनकी कमियां भी बहुत मामूली हैं। न कोई स्कैंडल, न कोई आरोप, बस सुखी जीवन की चाह, जिसमें सुख की परिभाषा में भौतिक निश्चिंतता तो हो, बौद्धिक और आत्मिक उत्थान न हो ।
इसे सहन करने के लिए नया पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं होती, परंतु जब द्विवेदी जी अपनी फक्कड़ता की बात करते हैं तो इनकी याद आती है और डींग से पहले द्विवेदी जी का जो कद था और छोटा हो जाता है। फक्कड़पन आर्थिक तंगी के बीच भी अपनी महिमा को बनाए रखने की ज़िद का ही दूसरा नाम है । इसके लिए एक सनक जरूरी होती है, द्विवेदी जी आजीवन नॉर्मल रहे। नॉर्मल का एक पर्याय पराकाष्ठा है, तो दूसरा औसत। द्विवेदी जी व्यक्ति के रूप में दूसरी कोटि में आते हैं।
वह किसी मोर्चे पर डट कर खड़े ही न हुए, लगातार भागते रहे, उम्मीद करते रहे कि उनकी लड़ाई कोई और लडे़, पर काव्यालंकारों मे केवल अर्थान्तरन्यास पर ध्यान देते रहे । वह उन लोगों में थे जिन्होंने आपातकाल का समर्थन किया था और उस मनीषी से अपना संबंध जोडते थे जिसने जलियाँवाला कांड के बाद नाइट की उपाधि लौटाई थी। वचने किं दरिद्रता।