#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
मैं नहीं जानता लिखा क्या है!
द्विवेदी जी पर लिखने की न तो कोई योजना थी, न तैयारी, यद्यपि वह उन दो व्यक्तियों में से एक हैं जिनसे मैं निकटता अनुभव करता हूं, जबकि उन दोनों में परस्पर विरोध भाव देखा जाता रहा है और इसके रगड़े में आचार्य शुक्ल ही नहीं, तुलसीदास और कबीर तक आ जाते हैं । विरोध था या दृष्टिकोण की भिन्नता यह नहीं जानता। ये हैं डा. रामविलास शर्मा और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी। जो लोग आदर वश नाम लेना नहीं चाहते वे डॉक्टर साहब और पंडित जी कह कर काम चलाते हैं।
जैसे, जब नेताजी कहा जाता है, तो दूसरे सभी नेता किनारे डाल दिए जाते हैं, और इसका मतलब सबके लिए सुभाष चंद्र बोस होता है और सोशलिस्टों के लिए राजनारायण, इसी तरह हिंदी में पंडित जी का अर्थ होता है पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, दूसरे सारे पंडित पीछे हट जाते हैं, वे जाति के पंडित हों या ज्ञान के पंडित हों, इस मामले में दोनों की समझ बराबर पड़ती है, सिवाय माकपा से जुड़े दिल्ली-वासियों के जिनके लिए पंडित जी का मतलब भगवती प्रसाद शर्मा होता है।
इसी तरह से हिंदी में डॉक्टर साहब का मतलब रामविलास शर्मा होता है। साहब हटा देने के बाद विरुद उन लोगों के काम भी आ सकता है जो डॉक्टर हैे ही नहीं – न पशुओं के, न आदमियों के, न किताबियों के- मिसाल के लिए अपना नाम ले तो सकता हूं, परंतु शिष्टाचार का तकाजा है, सो चुप रहना ही अच्छा।
जो भी हो दिवेदी जी अकेले ऐसे रचनाकार हैं जिनसे मुझे असमंजस के क्षणों में दिशा मिली है, इसलिए द्विवेदी जी को समर्पित भाव से याद करता हूँ। रामविलास जी से मेरा संबंध, अपने क्षेत्र में आप या मैं के तनाव से ग्रस्त रहा है, परंतु सभी दृष्टियों से बड़े तो वही थे। दूर से कठोर दीखने वाले रामविलास शर्मा विचारों की दृढ़ता के कारण ऐसे लगते थे। व्यक्ति के रूप में जितना कोमल हृदय उनका था, उसका पता उनसे जुड़े लोगों को ही हो सकता है।
इन दोनों पर लिख पाता तो कृतार्थता अनुभव होती। डॉक्टर साहब को तो अपनी ओर से ही लिखने का वचन भी दिया था, डेढ़ सौ पन्ने लिखे, दूसरे दबाव ऐसे प्रबल हो गए कि वहां से ध्यान हटा तो अब तक उधर गया ही नहीं। द्विवेदी जी पर लिखने के लिए जिस तैयारी की जरूरत थी वह तैयारी मैं कर ही नहीं सका।
प्रयाग से द्विवेदी जी पर निकलने वाले एक विशेषांक के संपादक ने आग्रह किया तो सहमत हो गया और उनका अंक मेरे कारण रुका न रह जाए इसलिए टुकड़ों में लिखकर पूरा करना चाहता हूं। आज की कड़ी को अंतिम कड़ी बनाना चाहता था। बन न पाएगा इसके लक्षण अभी से दिखाई देने लगे हैं।
संपादक को यह अच्छा न लगेगा कि कोई लेख उसके अंक में प्रकाशित होने से पहले ही लोगों की जानकारी में आ जाए। परंतु आदतें बदलती हैं तो पुरानी यादें छूटती भी हैं। उन पर लौटना मुश्किल होता है। जब हाथ से लिखता था, तो यह सोचकर कि मनहर चौहान टाइपराइटर पर सीधे लिखते हैं, हैरानी होती थी। सुनता था जैनेंद्र जी अपनी रचनाएं बोल कर लिखाया करते हैं तो हैरानी होती थी।
उन दिनों आसमान की छत के नीचे रहने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को जीविका के लिए अपने वांछित क्षेत्र में पसीना बहाने की, जगह, अनुवाद करना पड़ता था। प्रति लिखित नहीं टंकित ही देनी होगी यह नियम था। टाइपिस्टों की गलतियां सुधारने में उतनी ही मेहनत लगती थी जितनी वाणीलेखन की सुविधा उठाने के बाद संशोधन में लगती है।
तंग आकर, हो सकता है टाइप का खर्चा बचाने के लिए भी 63-64 में टाइपराइटर पर काम करना शुरू किया तो कुछ दिनों तक परेशानी झेलनी बड़ी, महीने 2 महीने के बाद हाथ से लिखने पर अनुवाद सँभल ही न पाए, टाइपराइटर पर काम आसान होने लगा। फिर पचीस एक साल बाद वर्ड में काम करना शुरू हुआ तो टाइपराइटर पर लिख ही नहीं सकता था। माइक्रोसॉफ्ट इंटरनेट के बाद भी सुविधाएं मिलीं तो आखिरी मंजिल फेसबुक बन गया। यदि सोचना और लिखना है तो इसी पर संभव है अन्यथा लिख ही नहीं सकता। यही मेरी पटरी और कलम बन गया है। यदि संपादक मेरे फेसबुक पर नजर डालते हैं तो मेरी लाचारी को समझ कर इस मित्र मंडली के बीच पढ़ने सुनाने की सीमा को समझ पाएंगे।
हम स्वयं नहीं लिखते हैं बहुत सी चीजें एक साथ होती हैं जिनमें कुछ लिखा जाता है। जगह बदलने पर, मेज कुर्सी बदलने पर, लिखने के साधन बदलने पर बदली परिस्थिति से समायोजित होने से पहले तक हमारा लिखना स्थगित या कामचलाऊ बना रहता है।
मेरे साथ एक और दिक्कत है, जिस विषय पर लिख रहा हूँ किसी कारण से उससे हटने के बाद, वापस लौटना बहुत कठिन हो जाता है। परंतु फेसबुक पर लिखने का एक और नुकसान भी है। बीच में आने वाली प्रतिक्रियाएं और अपेक्षाएं पहले से सोची हुई योजना को किसी न किसी अनुपात में बदल देती हैं। मैं एक रचनाकार के रूप में द्विवेदी जी पर यह अंतिम कड़ी लिखना चाहता था। बीच में कुछ सवाल उठाए गए, उनका समाधान भी जरूरी लगता है। यद्यपि इसके कारण जो लिखना था, उसके लिए जगह कम पड़ जाएगी, या बचेगी ही नहीं, यह संकट मंडरा रहा है।
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संभवतः विद्यानिवास जी ने एक बार, जब द्विवेदी जी से पूछा, “आपकी नजर में आप की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है?” तो उन्होंने नामवर जी का नाम लिया था। परंतु यदि नामवर जी सचमुच उनकी रचना थे तो वह रचना उनकी सबसे कमजोर रचना है, कमजोर भी नहीं, अधूरी!
रामविलास जी की कठोरता की तरह नामवर जी की अक्खड़ता पर जिन लोगों का ध्यान गया होगा वे यह समझ ही नहीं सकते ज्ञान के क्षेत्र में नामवर जी कितने विनम्र थे। वैसी विनम्रता मेरी आकांक्षा तो है परंतु उपलब्धि नहीं। जिस तीसरे व्यक्ति के सम्मुख विनत अनुभव करता हूं वह नामवर जी ही हैं, अपनी समस्त सीमाओं के बावजूद, अपने समस्त जोड़-तोड़ के बावजूद नाम और जमा का हिसाब लगाने के बाद नामवर जी के खाते में जमा निकलता है और मेरे खाते में ऋण। कृतज्ञता किसी के प्रति नहीं है. किसी ने न मेरे लिए कुछ किया, न मैंने किसी से चाहा, परंतु कृतार्थता इन तीनों पर लिख कर अनुभव कर सकता था, जिसका समय नहीं है, जो दूसरे दबावों के बीच पीछे खिसक गए हैं।
प्रसंगवश इतना कहें कि यदि द्विवेदी जी के बस में किसी को बनाना होता तो क्या वह किसी एक शिष्य को चुनकर ही जैसा चाहते थे वैसा बनाते? अपने शिक्षण में बेईमानी या पक्षपात से काम लेते? परंतु यदि कोई पूछे द्विवेदी जी के बनारस में इतने सीमित काल में इतने मेधावी शिष्य कैसे पैदा हो गए – रामदरश मिश्र. शिवप्रसाद सिंह, नामवर जी, केदार जी, विश्वनाथ त्रिपाठी – तो सोचना होगा उनमें कुछ तो ऐसा था, जिसके कारण उनके शिष्यों में, जो नामावली आती है, वह किसी अन्य विभागाध्यक्ष के संदर्नभ में नहीं आती। उन्होंने कुछ तो दिया होगा।
क्या दिया? ज्ञान नहीं, वह तो सब को समान दिया, बनते तो सभी लगभग एक जैसे ही – प्रतिभा के अनुसार कुछ नीचे कुछ ऊपर। परंतु ये सभी अलग-अलग रास्तों के पथिक थे। द्विवेदी जी ने उन्हें स्नेह दिया, संरक्षण दिया, और मुक्ति दी। अपनी इच्छा के अनुसार किसी को ढालने बनाने का प्रयास ही नहीं किया, फिर नामवर जी को द्विवेदी जी ने अपनी कृति कहा तो इस असमंजस में कहा होगा कि छोटी बड़ी रचना लेखक के लिए होती ही नहीं, पाठकों के अपने चुनाव के कारण, आलोचकों की नकलनवीसी के कारण , कुछ कृतियों के साथ उसकी पहचान जुड़ जाती है और लोग उन्हें उसकी सर्वोत्तम रचना मानने लगते हैं, जबकि उसने अपनी प्रत्येक रचना में अपना सब कुछ उड़ेलने का प्रयत्न किया है, इसलिए जैसे पिता के लिए यह तय करना कठिन होता है उसकी सबसे प्रिय संतान कौन सी है, उसी तरह रचनाकार के लिए यह तय करना कठिन होता है कि उसकी नजर में उस की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है।
फिर भी पिता को नाम लेना ही पड़े तो वह अपनी सबसे सफल या होनहार संतान का नाम लेगा और गुरु अपने सबसे प्रखर शिष्य का नाम लेगा। दिवेदी जी के हाथ में पड़ने से पहले उनके सभी शिष्य जो थे वही थे, द्विवेदी जी के स्पर्श से उनको आत्मविश्वास मिला और अपनी संभावनाओं का आकाश मिला।
महत्वाकांक्षी पिता और गुरु अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपना प्रतिरूप अपनी किसी संतान या शिष्य में देखता है, जो नहीं पा सका या जिस ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका, उस तक अपनी उस संतान या शिष्य के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है। द्विवेदी जी ने यही चाहा था। इसी रूप में नामवर जी को अपनी ही सर्वोत्तम कृति मानते रहे होंगे। परंतु मंगलाचरण की कमी रह गई थी। वह कृति उनकी आकांक्षाओं को तोड़कर एक अलग दिशा में बढ़ गई। रचना बिगड़ गई। परंतु न तो नामवर जी में प्रतिभा की कमी के कारण, न ही अविनय के कारण।