#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
दबा-पिचका महाकलश
यदि द्विवेदी जी को ऐसा लगा कि नामवर जी उनकी कृति हैं, तो ऐसा कब लग और यह भ्रम उसके बाद भी बना रह गया या नहीं इसके बारे में हमें कोई जा नकारी नहीं। नामवर जी द्विवेदी जी को मिट्टी के लोंदे के रूप में नहीं मिले थे, बने बनाए मिले थे परंतु उस कच्चे बर्तन की तरह जो दबाव और खिंचाव का प्रतिरोध नहीं कर पाता। नामवर जी द्विवेदी जी के संपर्क में दबे भी और वाम वाम वाम दिशा, के प्रलोभन में, या समझ खो कर कि दिशाएं तो चार हैं, सभी का एक दिशा में सिमट जाना सृजन-विरोधी और अनिष्टकारक है, उसके दबाव में आ गए।
इन दिनों अपने को कम्युनिस्ट कहना, बलिदानियों के पथ पर अग्रसर होने का दूसरा नाम था। द्विवेदी जी का वश चलता वह इधर नहीं जाने देते, परंतु द्विवेदी जी में भी एक विद्रोही पलता था। शांतिनिकेतन में जाने के बाद वह विचारों में परंपरावादी, रूढ़िवादी, जातिवादी नहीं रह गए थे, परंतु व्यवहार में इतने समझदार भी थे कि अपनी संतानों का संबंध पुरातन मर्यादाओं के भीतर ही रखा।
जो भी हो, नामवर जी की यह विचलन द्विवेदी जी के लिए स्वीकार्य थी। क्या आपने उसे सूक्ति पर ध्यान दिया है जिसमें कहा गया है, धैर्यवान लोग, अर्थात् मर्यादा का निर्वाह करने वाले लोग, उस मर्यादा से, कुछ इधर उधर तो हो सकते हैं, परंतु अधिक विचलित नहीं हो सकतेः – सत्यात् पथात् प्रविचलंति पदं न धीराः।
द्विवेदी जी मार्क्सवादी नहीं थे, मार्क्सवाद उस दिशा की ओर ले जाता था जिसमें अपने समाज का आत्म निरीक्षण करते हुए इसका नव निर्माण किया जा सकता था। परंतु आयु का भेद छोड़ दें तो यह दो विलक्षण प्रतिभाओं का सानिध्य था, जिसमें दबाव पैदा हुआ और बदलाव दोनों में आए। ये दो महाकलश दो साँचो में ढले थे। एक को शांतिनिकेतन मिला था. परंतु शांति निकेतन के कारण ही वह लोच भी मिली थी, जिसमें प्रतिकूल लगने वाले विचारों के लिए जहां जगह खाली नहीं थी वहां भी कुछ दब-सिकुड़ कर उसके लिए जगह बनाने की उदारता थी।
नामवर जी हजारी प्रसाद द्विवेदी की कृति नहीं थे। परंतु इतने विनम्र अवश्य थे कि यदि पंडित जी यह दावा करते कि यह मेरी कृति है, तो उसका विरोध नहीं कर सकते थे। न ही कभी किया। परंतु यदि कोई याद दिला दे कि आप तो मार्कंडेय सिंह की निर्मिति हैं तो इससे इंकार नहीं कर सकते थे।
द्विवेदी जी की रचनाएं हमारे सामने हैं, उनके माध्यम से ही हम द्विवेदी जी को जानते हैं। मारकंडेय सिंह का लिखा कुछ भी नहीं देखा, नामवर जी के संस्मरणों से ही उन्हें जान पाया। और सुनी सुनाई इबारतों के माध्यम से उन्हें जितना जान पाया, वह हिंदी की महान विभूतियों में से एक थे।
इस बात का निर्णय करने के लिए कि नामवर जी किसकी कृति, किसकी परिष्कृति और किसकी विकृति थे, कुछ और जानकारी चाहिए जो मेरे पास नहीं है। परंतु एक प्रसंग काम चलाऊ धारणा बनाने के लिए पर्याप्त है।
द्विवेदी जी बनारस में नए-नए पधारे थे और अपने ज्ञान और उदार दृष्टि से बनारस के लोगों को मुग्ध कर रहे थे। किसी के आग्रह पर मारकंडेय सिंह भी उनका व्याख्यान सुनने गए। संभवतः अनुरोध नामवर जी का ही था। व्याख्यान सुनने के बाद, मारकंडेय सिंह ने टिप्पणी की थी कि झूमते बहुत हैं।
जिन्होंने नामवर जी को सुना होगा वे इस बात को लक्ष्य करने से नहीं चूके होंगे कि नामवर जी मंच पर कभी अंग चालन का प्रयोग नहीं करते थे। प्रयोग नहीं करते थे यह कहना कंजूसी होगी। इस नियम का निर्वाह उसी तरह करते थे जैसे कोई अपनी भाषा में व्याकरण के नियमों का निर्वाह करे। विचारों की स्पष्टता,, वाक्य विन्यास, शब्द चयन, विषय सीमा के निर्वाह के विषय में मारकंडेय सिंह के निर्देशों ने नामवर जी और केदार जी दोनों को अपनी बात रखने का सलीका सिखाया था।
नामवर जी के अभाव में भी मैं द्विवेदी जी को जान सकता था, परंतु मारकंडे सिंह को नहीं, जिन के विषय में नामवर जी के माध्यम से उपलब्ध सूचनाओं के कारण मैं उनके प्रति नतशिर हो जाता हूं। सिरजनहार पर्दे के पीछे ही रह जाता है। नामवर जी में असाधारण प्रतिभा थी। उसके अभाव में मारकंडेय सिंह भी उन्हें वह आकार नहीं दे सकते थे, अन्यथा उदय प्रताप कॉलेज से निकलने वाली सभी प्रतिभाएं उतनी ही प्रखर होतीं।
गुरु किसी को बनाता नहीं है, उसे उसकी संभावनाओं तक पहुंचने में सेतु का काम करता है। गढ़ता नहीं है, स्पर्श करता है। सही आंच देकर उसे पकाता है। द्विवेदी जी ने उसे सँवारने की कोशिश की, और इस दबाव से सृजित बनने की जगह बिगड़ गया। जो कमी थी उसे मार्क्सवाद ने पूरा कर दिया। इन दोनों के कारण हिंदी जगत को कई तरह के नुकसान भी उठाने पड़े और कुछ राहत भी मिली परंतु सबसे बड़ा नुकसान यह रहा कि वह अपना दिशाबोध ही खो बैठा।
आजकल पुराने मुहावरे का एक नया संस्करण विज्ञापन की दुनिया में आया है, न घर का न टाटा स्काई का। इससे पुराना और पुराने मुहावरे से कुछ नया मुहावरा आया तो था, परंतु उसे किसी ने दोहराया नहीं.मुहावरा घूमता और इस तरह पीसता रहा कि पिसाई के बाद भी पिसान देखने में आया ही नहीं। इसका दूसरा नाम प्रगतिशील आंदोलन है, जिसने अपनी भी दुर्गति की और साहित्य की भी फिर भी चक्की चल रही है। इस दौर की सभी रक्षणीय कृतियाँ उनकी हैं जिन्होने पिसने से इन्कार कर। वाम वाम वाम दिशा लिखने वाले को भी इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा कि
हम अपने खयाल को सनम समझे थे।
अपने को खयाल से भी कम समझे थे।
होना ही था, समझना था कहाँ शमशेर
होना भी वह कहाँ था जो हम समझे थे।।