छूटा हुआ पन्ना
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यदि किसी समाज या समुदाय के लोग किसी चीज में आस्था रखते हैं, तो यह नहीं माना जा सकता की वे जिन चीजों में विश्वास करते हैं वे सही हैं।
सही या गलत होने का संख्याबल से कोई संबंध नहीं है।
कहते हैं आइंस्टाइन के विरुद्ध बहुत सारे वैज्ञानिकों ने एक पत्र के माध्यम से दावा किया कि आइंस्टीन का सिद्धांत गलत है तो उनका छोटा सा जवाब था, यदि गलत है तो उसे किसी एक व्यक्ति द्वारा गलत सिद्ध करना ही काफी था, इतने लोगों की जरूरत नहीं थी।
मान्यता का अर्थ है दूसरे लोग जिसको मानते हैं उसे बिना जांचे-परखे मान लेना है। ईश्वर है, भूत प्रेत होते हैं, यह स्थान पवित्र है या मकान भुतहा है, यह दिन अशुभ है जैसे असंख्य विश्वासों और मान्यताओं से हम परिचित हैं। इसके पीछे सचाई नहीं सामूहिक सम्मोहन की भूमिका होती है।
मानने वालों की भावना इतनी प्रबल होती है कि उनके पास इसके सही होने के ऐसे प्रमाण भी होते हैं, जिनका खंडन नहीं किया जा सकता, परंतु उनके विरुद्ध भी प्रमाण प्रमाण होते हैं जिनकी और वे ध्यान नहीं देते।
कोई घटना या कार्य असंभव है, यह जानते हुए भी उसे केव इस मामले में संभव मानने से बहुत से लोगों को आत्मबल मिलता है। हनुमान का चरित्र असंभव घटनाओं का सिलसिला है, हनुमान चालीसा पढ़ने वालों के लिए असंभव होते हुए संभव है और उनका स्मरण करने से हनुमान की महिमा का एक अंश उनमें भी प्रवेश कर जाता है। इच्छित काम सिद्ध हो जाता है। हनुमान की महिमा में विश्वास रखनेवाले हरिवंश राय बच्चन जैसे लोग हुए हैं , काली की महिमा में विश्वास करने वाले गोपीनाथ कविराज जैसे महान पंडित रहें।
जो गलत है या जो हमें गलत लगता है, परंतु इसके बावजूद जिसमें बहुत सारे लोगों की आस्था है, उसके विषय में, असहमति भी, उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए ही प्रगट की जानी चाहिए, तथ्यपरक ढंग से की जानी चाहिए। यह केवल उनकी भावना की रक्षा के लिए जरूरी नहीं है, नम्रता के साथ विचार प्रकट करने पर ही उसका कुछ-न-कुछ असर उन लोगों पर भी होता है जो अंध-श्रद्धा अंध-विश्वास और अंध-आस्था से ग्रस्त होते हैं। हमने इस बात का प्रयत्न किया है कि ऊपर की कसौटी का सम्मान करते हुए अपनी बातें रखूँ , परंतु यह दावा नहीं कर सकता कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे कुछ लोग खिन्नता न अनुभव करें।
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हम इस बात को समय-समय पर दुहराते रहे हैं कि ’मेरी इन बातों को माना न जाए, परखा जाए।…मैं इस्लाम का अधिकारी विद्वान नहीं हूँ। जानकारी परिश्रम करके, कम समय में, जुटाई जा सकती है, परंतु अधिकार लंबे समय तक किसी समस्या के अंतर्विरोधों से जूझते हुए, किसी समाधान पर पहुंचने के बाद ही प्राप्त होता है।’
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अपनी जानकारी के लिए मैने जिन स्रोतों पर निर्भर किया, वे, लगभग सभी, इंटरनेट के माध्यम से ही सुलभ हो सके। इसका एक दुखद पहलू यह था कि कुछ हिंदू और मुसलमान एक दूसरे की आलोचना करते हुए इतने ओछे स्तर पर उतर आते हैं कि लगा, जितने लोग सामुदायिक घृणा के प्रसार में लगे हुए हैं, उनके सक्रिय रहते हैं, आलोचना और विचार को भी प्रहार समझने की भूल तो की ही जा सकती है।
इस प्रसंग में मुझे इस्लामपूर्व के कबीलाई अरब समाज के उन शायरों की याद आती है जो अपने कबीले की शान में कशीदे पढ़ने के साथ दूसरे कबीले को फूहड़ गालियां दिया करते थे। ऐसे लोगों की संख्या फेसबुक पर बहुत बडी है। उन्हें पहली बार इस बात का गर्व होगा कि वे एक ‘महान’ परंपरा के सच्चे वारिस हैं।
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अपने पहले आलेख में मैंने उम्मत के साथ सर्वत्र साहब लगाया था। मुसलमान तो उनके नाम के साथ इतने विशेषणों का प्रयोग करते हैं उनके विचार विशेषणों में ही खो जाते हैं। विशेषण छोटे आदमी को बड़ा और बड़े आदमी को छोटा बनाते हैं। राम, श्रीराम या राजाराम से, गांधी, महात्मा गांधी और गांधी जी से बड़े भी हैं, विशेषण हट जाने के बाद हमारी आत्मा के अधिक निकट भी, अधिक व्यापक भी। यह सोचकर ‘साहब’ विशेषण को हटा दिया।
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विषय इतना विस्तृत है कि हमारे प्रयत्न के बाद भी बहुत से पहलू छूट गए हैं। उन पर विस्तार से लिखने की क्षमता नहीं है उनके विषय में संक्षेप में कुछ टिप्पणियां की जा सकती है।
कुरान
पहली आयत के साथ ही कुरान नीचे उतरा। मुहम्मद का अवतार नहीं हुआ, वे अपने माता पिता की संतान थे। कुरान का हुआ। वह अल्लाह के पास अरबी भाषा में लिखा हुआ पड़ा था। अरबी भाषा में इसलिए कि यदि अरबी में न होता तो अरब के लोग यह नहीं मानते कि अल्लाह ने उनके लिए ही पैगंबर भेजा है। (इसका मतलब है, आरंभ में मुहम्मद केवल अरब कबीलों को एक में जोड़ना और संगठित करना चाहते थे। तरीका बदलने और शक्ति बढ़ने के साथ लक्ष्य में परिवर्तन होता गया।) इसी अरबी कुरान को लेकर जिब्रील सातवें आसमान से उतर सबसे नीचे के आसमान पर आ गए। इस पर महिमा के मंदिर (the ‘Temple of Majesty’) में उसे सँभाल कर रखा और रमजान महीने में शक्ति की रात (लैलातुल क़द्र) में इसकी एक आयत लेकर उतरे। मुहम्मद के इंतकाल से ठीक पहले तक कुरान उतरता रहा। इस तर्क से कुरान का अर्थ वह ग्रंथ नहीं है जिसे हम कुरान के नाम से जानते हैं। जिस ‘क़ुरा’ मूल से यह शब्द निकला है उसका अर्थ होता है (recitation) – वाचन या गायन। अर्थात् जो संकेत मिल रहा है, उसे दुहराना है।
आयत
आयत का शाब्दिक अर्थ संकेत या निशानी है। इल्हाम संकेत के रूप में सुनाई देता था जो घंटी बजने से ले कर सपने में किसी के प्रकट हो कर कुछ कहने या देखने तक किसी रूप में हो सकता था।
हफीज/ हाफिज
कुरान शरीफ पूरा का पूरा कंठस्थ कर जाने वाले को हफीज कहा जाता था। इन्हीं की मदद से कुरान का संकलन हो पाया। मुहम्मद को जो इल्हाम होता था उसे जिस रूप में दूसरों को बताते थे वे याद कर लेते थे और दूसरों को सुनाते थे। इस तरह एक से दूसरे को होते हुए मुहम्मद पर विश्वास करने वालों के बीच इनका प्रचार हो जाता था। कुरान की मौलिकता को सिद्ध करने के लिए यह बताने की कोशिश की जाती है कि मुहम्मद उम्मी या अनपढ़ थे, परंतु कुरान में ऐसे अनेक संकेत पाए जाते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि वह पढ़ना लिखना जानते थे। फिर भी ऐसा कोई संकेत नहीं है जिससे यह साबित हो कि वह आयतों को लिख लिया करते थे। एक संदर्भ ऐसा मिलता है जिस से लगता है लिखने के लिए पहले एक यहूदी से सहायता लेते थे।
क़ुर्रा
उसके जीवन काल में ही कुरान पढ़ने और इसकी शिक्षा देने वाले लोग थे, जिन्हें क़ुर्रा (Qurra’, or Qur’an Reader) कहा जाता था। फिर भी एक ऐसी पुस्तक जो लगातार उतरती थी चली जा रही थी और अंतिम दिन तक उतरी उसका लिखित या कंठस्थ पाठ किनके पास कितना था, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जितने मुँह, उतने कुरान। यही कारण था कि इसका मानक पाठ तैयार करने की आवश्यकता अनुभव हुई, फिर भी अरबी कुरान के ही 26 पाठभेद पाए जाते हैं इनमें से 7 को अधिक भरोसे का माना जाता है।[]
[] One of the famous misinformation spread by these scholars is that all the Qurans in the world are identical, and that it is free from any variation.
मान्य पाठों को अधिक समानता रखने के आधार पर तैयार किया गया। इसके बाद भी संपादन के समय एक विषय से संबंधित अलग अलग कालों में उतरी आयतों को एक सूरे के अंतर्गत रखने का प्रयत्न किया गया। घालमेल इतना है कि अनेक आयतों के विषय में यह तय नहीं हो पाता कि वे मक्का में उतरी थी, या मदीने में। इसके बाद भी कुछ विषयों से संबंधित आयतों को इबारत या प्रस्तुति में भिन्नता के साथ अनेक सूरों में दुहराया गया, जैसे जन्नत और दोजख से संबंध रखने वाली आयतें, इब्राहिम से संबंधित आयतें। क्योंकि मुसलमानों को एक बार डरा कर छोड़ा नहीं जा सकता था । जन्नत और जहन्नुम की बार-बार याद दिला कर उनको दहशत में रखना जरूरी था। इसी तरह अपनी स्वीकार्यता के लिए इब्राहिम का सहारा लेना जरूरी था।
एक ही सूरे में आयतों की क्रमसंख्या में भी जहां-तहां अंतर पाया जाता है, फिर भी अधिकांश पाठांतर एक ही आशय के भिन्न शब्दों से संबंध रखते हैं। इनमें भी जहां एकवचन और बहुवचन का अंतर है, वहाँ एकेश्वरवाद और बहुदेववाद का द्वंद्व देखने को मिल सकता है।
(जारी)