छूटा हुआ पन्ना
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परंतु कुरान में ही इस बात के प्रमाण हैं कि इस सिद्धांत से आकर्षित होकर गुलामों के एक छोटे से दल को छोड़कर किसी ने इसे नहीं अपनाया, जब कि इस्लाम ने अपनी झक में असंख्य गुलाम पैदा कियेे और बेचा। बेचने के लिए उनके पास सिर्फ यही माल था।
इसका सबसे बड़ा आकर्षण लूटपाट और मनमानी करने की छूट सिद्ध हुई और हुई लुटेरों के जत्थे के शक्तिशाली होने के साथ उससे भी अधिक अधिक कारगर हथियार अपनी जिंदगी, धन और सम्मान बचाने की चिंता ने ले लिया। दो तरह की दहशत एक मरने के बाद इस्लाम कबूल न करने के कारण जहन्नुम में जाने की, और दूसरी (जो इस कपोल कल्पना के कायल नहीं थे उनमें) मुस्लिम लुटेरों, अपहर्ताओं और दहशतगर्दों की दहशत । इनके साथ दो तरह के प्रलोभन – इस दुनिया में ताकतवर बन जाने के बाद सताने, लूटने, कुछ भी करने काे धार्मिक कर्तव्य की गरिमा मिल जाना जो इन अपराधों से उत्पन्न आत्मग्लानि को कम कर देता है, और इन्हीं की बदौलत यही चीजें जन्नत में बिना किसी अभाव के भोगने का प्रलोभन। पहले के कारण इससे सबसे अधिक आकर्षित आपराधिक प्रवृत्ति के लोग हो सकते थे जब कि सभ्य मनुष्य उनके डर से झुकने को तैयार होता रहा। इस्लाम के विस्तार में ये ही सहायक रहे। नैतिक मर्यादाओं का अपनी सीमा में निर्वाह करने वाले अरब समाज का और उससे आगे दूसरे समाजों का अपराधीकरण इसकी सबसे बड़ी देन है। ज्ञान-विज्ञान, कला, स्वतंत्र चिंतन, और स्वविवेक जैसे मूल्यों का सर्वनाश, उन सब की जगह केवल विश्वास,अंधविश्वास और अंधविश्वासों के बढ़ते दबाव के बीच असहमत होने की सभी संभावनाओं का अंत, यह इस्लाम की देन थी। आत्मरक्षा के तकाजे से इनसे बाहर आने की बाध्यता समय-समय पर पैदा होती रही है परंतु आज भी उसकी आंखें आगे की ओर नहीं, पीछे की ओर लगी हुई हैं। बढ़ना आगे है, देखना पीछे, लड़खड़ा कर गिरने के कारण अनेक हैं – बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, पोथी आपकी सुभान अल्ला।
मुनाफिकून
कुरान में भी उन लोगों का जिक्र है जिनको विवशता में मुसलमान बनना पड़ा था, जो मुसलमान बनना नहीं चाहते थे, मुसलमान बनने के बाद भी अपने रीति-रिवाज, पुरानी मान्यताएं, और पूजा-आराधना छोड़ना नहीं चाहते थे। इन्हें मुनाफिकून कहा जाता था। मुनाफा का जो अर्थ हम जानते हैं उसके अनुसार ये ऐसे लोग थे, जो फायदे के लिए मुसलमान बन गए थे। बताया जाता है कि वे लूटपाट लालच में मुसलमान बने थे। यह इतिहास का उल्टा पाठ है।
सताए हुए लोगों को, विवश लोगों को, जो अपनी मान्यताओं के लिए खतरा उठाने को तैयार थे, जिन्हें लूटपाट में पहले शामिल किया किया ही नहीं गया, जिन पर विश्वास नहीं किया गया, उन बेचारों को मुनाफे के लिए मुसलमान बनना बताया जा रहा है, और लुटेरों को त्यागी सिद्ध किया जा रहा है। इस हिसाब से भारत के सभी लोग जो मध्यकाल के अत्याचार से घबराकर मुसलमान बने, जिनका सर सैयद के समय तक इस्तेमाल तो किया गया, पर जिन पर भरोसा नहीं किया गया, वे लालची और भ्रष्ट हो गए, जबकि लालची और भ्रष्ट वे तब हुए जब अपने उपनाम तक को अपनी पुरानी गरिमा के याद में जीवित रखने के बाद भी, यह भूल गए कि वे क्या थे, कितने मजबूर किए गए थे, पर इसके बाद भी अपने अतीत पर गर्व करते रहे, जिसके कारण उन्होंने अपना उपनाम नहीं छोड़ा, अपनी पुरानी पहचान को बचाने की आखिरी कोशिश की, जो सबसे अधिक कश्मीर में दिखाई देती है।
इस्लामी समानता
हम इस भ्रम को दूर करना चाहते हैं कि इस्लाम की स्थापना सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए हुई थी। उसने अपने लिए जिस मूल्य प्रणाली का विकास किया था उसमें यह समानता संगठन की जरूरत के अनुसार स्वतः पैदा हो जाती है। अपराध जगत के लोग अपना धर्म और जाति छोड़कर एक नया भ्रातृभाव अपना लेते हैं। इसके बिना उनका संगठन चल ही नहीं सकता। बाहर के लोगों से उनका वैरभाव रहता है। जिन को लूटना है उनको गर्हित सिद्ध करने के बाद लूटने का जोश भरने वाली नफरत अधिक प्रबल हो जाती है। इसलिए इस्लाम से बाहर के सभी लोग शैतान की जद में थे और आज भी हैं। न तो उनसे भाई चारा संभव था, न ही ऊपरी दिखावे से अधिक अपने भीतर संभव था। अपराधी संगठनों में भी काम को प्रभावी बनाने के लिए बड़े ( निर्णय लेने वाले) और छोटे (निर्णय का पालन करने वाले) का एक अलिखित विधान होता है जिस का उल्लंघन नहीं किया जाता। इस्लाम में भी ऐसा था। यह हिंदुस्तान में आने के बाद वर्णभेद के कारण पैदा नहीं हुआ। इस्लाम में पहले से था। गुलामों के प्रति क्रूरता नहीं की जानी चाहिए, अनाथों और अनाश्रितौं के लिए दया थी, समानता का भाव नहीं था। अपने दास के साथ उसकी पत्नी और बच्चों के साथ, जिस प्रकार की छूट लेने की अनुमति थी, वह समता की परिधि में नहीं आता।
कुरान में इसके समर्थन में संभवतः कोई दूसरा इल्हाम नहीं हुआ या हुआ तो उसे समझने में हमसे भूल हो रही हो सकती है, परंतु जहां अपनी पत्नी को ही पुरुष के समान अधिकार न मिला हो, उसमें पूरे समाज की समानता की बात करना समानता का उपहास करना है। मुहम्मद के विधान के अनुसार मुहाजिर सामाजिक श्रेणी विभाग में सबसे ऊपर आते थे, अंसर उसके बाद, मुनाफिकून इनसे बाद. और जो इन तीनों के रहम पर पलते थे यतीम वे अपने रहीमों की बराबरी में आने की सोच भी नहीं सकते थे।
ऊंच-नीच का यह सवाल मुहम्मद के सामने भी उठा। मुहम्मद ने कहा मेरे बाद जो मेरी जगह लेगा उसकी आज्ञा का पालन कुरैश भी करेंगे, परंतु कुरैशो की बात दूसरे सभी मानेंगे। क्या यह सामाजिक श्रेणी भेद का प्रमाण नहीं है? क्या यह भेद भारत में पहुंचने के बाद पैदा हुआ? सामाजिक स्तरभेद जहां आर्थिक स्तरभेद के समानांतर चलता हो वहां इसका इतिहास, इसको चलाने वाली शक्तियां, सभी एक नई सोच और नई परिभाषा की मांग करते हैं, न कि फतवेबाजी की। फतवेबाजी राजनीतिज्ञों की जरूरत हो सकती है समाज की नहीं। सत्ता पर कब्जा करने वालों की जरूरतें दूसरी होती है, सत्ता के दबाव में जीने वालों की जरूरतें दूसरी होती है, इसीलिए लोकतंत्र को छोड़कर सत्ता की जरूरत समाज की जरूरत नहीं बन पाती. और लोकतंत्र का निर्वाह सत्ता के भूखे लोगों के कारण लोकतंत्र में भी नहीं हो पाता।
इस्लामी आतंक में जीने वाले मुसलमान
आज से 30 साल पहले जब अपने शोधकार्य के सिलसिले में यूनान और एशिया माइनर में अपना समय लगाने वाले गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष शिवाजी सिंह ने कहा था कुर्द आज भी चोरी-छिपे गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं तो मुझे विश्वास नहीं हुआ था। व्यक्ति के रूप में मेरे मन में उनके प्रति सम्मान था, परंतु उनकी सहानुभूति उस संगठन के साथ थी, जिस पर मुझे भरोसा नहीं था। तब तक कुर्दों और यजीदियों के विरुद्ध आतंकी मुसलमानों के अत्याचारों की कहानियां सुनने में नहीं आती थी। बाद में समझ में आया वह गलत नहीं थे, अविश्वसनीय अवश्य थे, और इसके पीछे मार्क्सवादी होने का दावा करने के कारण मेरा दुराग्रह उत्तरदायी था।
परंतु उलट कर देखें अपने विजित साम्राज्य में विजेता इस्लाम रहा या उपेक्षा, बहिष्कार और यातना भोगते हुए भी अपने विश्वास पर टिके रहने वाले जिन्हें पैगन, काफिर आदि कह कर देववादी समाजों के प्रति नफरत पैदा की जाती है।