Post – 2019-08-01

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
अधूरी रचना

महत्वाकांक्षी, परंतु जो कुछ बन सके उससे असंतुष्ट, पिता या गुरु अपने प्रतिभाशाली पुत्र और शिष्य के माध्यम से अपनी आकांक्षा पूरी करना चाहता है। आत्मोत्थान के इस नियम से वह अपने पुत्र और शिष्य को अपने से छोटा नहीं बहुत-बहुत बड़ा बनाना चाहता है। इतना बड़ा कि लोग उसे भूल जाएं । वह उसका पुत्र या शिष्य नहीं होता, उसका भविष्य होता है, उसकी अपूर्णता की पूर्ति होता है, उसकी चरम उपलब्धि। नामवर जी द्विवेदी जी को, दैव कृपा से ( क्योंकि इसमें उनका विश्वास था) , ऐसे ही शिष्य मिल गए थे। उनकी संभाव्यता को, द्विवेदी जी ने नहीं पैदा किया था, यह उनमें थी, मारकंडे सिंह के स्पर्श से यह निखरी थी, द्विवेदी जी को उपलब्ध हुई थी और उसका वह अपनी अधूरी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे।

कच्चे लोंदे को कल्पित आकार देना आसान होता, परंतु बनी-बनाई कृति का गीलापन (नम्यता) को देख कर उसे इच्छित आकार में ढालना और अपने सपनों की ऊंचाई तक पहुंचाना, लगभग असंभव होता है । नामवर जी की संभावित ऊंचाई तक पहुंचने में, गुरुदेव की आकांक्षाएं बाधक बनी, परंतु व्यर्थ नहीं गईं ( व्यर्थ कुछ नहीं जाता, दुख और आघात भी नहीं)। उनसे उनके नैसर्गिक विकास में जो खम पैदा हुआ उससे उनकी शोभा बढ़ी परन्तु आधानता (भीतर का आयतन) मे संकुचन आया। ऐसा ही संकुचन पार्टी निर्देशित मार्क्सवाद के कारण आया, परंतु इस दूसरे दबाव से उनके प्रभाव क्षेत्र का विस्तार हुआ, रुतबा बढ़ा। इस विरोधाभास को समझना जरूरी है क्योंकि इसके बिना नामवर जी में प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा की संभावनाओं को नहीं समझा जा सकता। वह जो हो सकते थे, न हो सके; जो बन गए उसे अपनी उपलब्धि मानते रहे जब कि समग्र उपलब्ध औसत से भी कम रही।

मैं नामवर जी का सम्मान करता था, आज भी करता हूँ, परंतु हमारी कभी पटी नहीं, कई बार उन्हें झेलना पड़ता था, और कई बार धैर्य खो जाने के कारण विरोध भी करना पड़ता था, और एक बार मैंने कठोर शब्दों में उनके किसी कथन या कार्य का जो मेरी नजर में उनके लिए अकीर्तिकर था फोन पर विरोध प्रकट किया तो उनका जवाब था, ‘ऐसा आप ही कह सकते हैं।’ मैं इसका अर्थ समझाऊं इससे पहले यहां से आगे पढ़ना छोड़ कर इस वाक्य का अर्थ तलाश कीजिए फिर कुछ रुक कर पढ़िए कि मेरी समझ में इसका अर्थ क्या था।

इस वाक्य का अर्थ था, “ऐसी बदतमीजी तुम ही कर सकते हो।”

परंतु आप कह सकते हैं, बात तो दिवेदी जी की चली थी, नामवर ने इतनी जगह क्यों घेर ली। इसका उत्तर है द्विवेदी जी के दो संदर्भ बिंदु हैं, एक रवींद्र और दूसरे नामवर। इनमें से किसी को छोड़ दिया जाए, द्विवेदी जी को नहीं समझा जा सकता, उनकी सफलताओं और विफलताओं को ही नहीं, नामवर जी की संभावनाओं, उपलब्धियों और अनुपलब्धियों को भी नहीं समझा जा सकता।

यह बात मैं नामवर जी के जीवन काल में कहता कि मेरी दृष्टि में प्रतिभा के मामले में गुरू-शिष्य दोनों समान ऊर्जा के धनी थे फिर भी वजन नामवर जी की तरफ झुका दिखाई देता है, तो नामवर जी से मुझे फटकार ही सुनने को मिलती। वह द्विवेदी जी के प्रति ही इतने विनम्र नहीं थे, उन पाश्चात्य आलोचकों के प्रति भी उतने ही विनम्र थे, जिनसे उन्होंने नई आलोचना का ककहरा सीखा था और दुर्भाग्य से यह ककहरा ही गलत था और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह कि नामवर जी को श्रद्धा वश न द्विवेदी जी की सीमाओं का बोध था न अपने पाश्चात्य प्रेरणा स्रोतों की सीमाओं का। विनम्रता और श्रद्धा भाव ने उन्हें अपनी प्रतिभा, जमीन और दिशा के अनुरूप विकसित होने में बाधा पहुंचाई।

नामवर जी मुझे विस्मित करते हैं और हताश भी, क्योंकि वह अपने बौद्धिक जुए उतार फेंकने के बाद ही अपनी गर्दन सीधी कर सकते थे। वह द्विवेदी जी की लालित्य की अवधारणा और पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र के दबाव में इधर-उधर गर्दन हिलाते रहे। विचारों के क्षेत्र में दो प्रभावों के बीच वह अव्यवस्थित अनुभव करते थे फिर भी दोनों में से किसी को झटक कर फेंकने का इरादा तक नहीं था, यदि था तो उनके अनुसार अपने को सही सिद्ध करने का जो संभव न था।

जो भी हो बनारस में पहुंचने के बाद, असंख्य मर्मभेदी, विषाक्त, बाणों को झेलते हुए भी, काशी आने के अपने निर्णय पर पछताते हुए दिवेदी जी को एक ही सान्त्वना थी कि उन्हें नामवर जैसा शिष्य मिला। नामवर जी के लिए उनका स्नेह, उनका संरक्षण, उनका मार्गदर्शन, तब तक के किसी अन्य छात्र के लिए अलभ्य था।

द्विवेदी जी ने दुर्बलता के एक क्षण में शांतिनिकेतन की जगह काशी का चुनाव किया। दुख पाया पर, असंतुष्ट नहीं रहे, क्योंकि उन्हें जैसे छात्र काशी में मिले, शांतिनिकेतन में दुर्लभ थे। द्विवेदी जी की अधूरी आकांक्षा की पूर्ति काशी में ही संभव लग रही थी, शांतिनिकेतन में संभव नहीं थी।

हमने पीछे द्विवेदी जी की एकमात्र दुर्बलता (पारिवारिक आर्थिक विपन्नता) से उपजे दैन्य और पलायन की जिस श्रृंखला हवाला दिया था, उसमें उनका यह पक्ष छूट गया था कि द्विवेदी जी में एक दुर्लभ नैतिक दृढ़ता भी थी। इंदिरा जी से उनका सीधा संपर्क था, परंतु अपने दुर्दिन में भी उन्होंने उसका उपयोग नहीं किया। आपातकाल में उन्होंने उस समय जब इंदिरा जी पर चारों ओर से विष बुझे बाण दागे जा रहे थे, स्नेहासिक्त दयाद्र समर्थन किया था जिसके पीछे किसी स्वार्थ-सिद्धि की कल्पना तक न थी। यह दूसरी बात है कि डॉ नगेंद्र जैसे दुनियादार लोग यह जानकर कि उनके सीधे संबंध इंदिरा जी से हैं उनको अपने अनुकूल बनाने के लिए उन्हें कई तरह से कृतार्थ करते रहे। द्विवेदी जी इसे जानते हुए, इसका लाभ अवश्य उठाते रहे, परन्तु किसी तरह का समझौता किए बिना।

द्विवेदी जी कहते थे शांतिनिकेतन में पहुंचने के बाद मेरा नया जन्म हुआ। उनके कई शिष्यों ने इस नए जन्म का संबंध रवींद्र से संपर्क के रूप में ग्रहण किया है। द्विवेदी जी ने इसका भाष्य किया हो तो इसकी मुझे जानकारी नहीं, परंतु जहां तक मैं समझता हूं, यह रवींद्र नहीं थे, रवींद्र के चतुर्दिक, उनके चुंबकीय आकर्षण से निर्मित, सांस्कृतिक, बौद्धिक और कलात्मक परिवेश था, जिससे वह अभिभूत हो गए थे।

यह परिवेश जितना रवींद्र से प्रभावित था स्वयं रवींद्र अपने परिवेश, या उन विभूतियों से प्रभावित थे, जो उपग्रह की तरह उनकी परिक्रमा कर रहे थे। धरती सूरज से ही प्रकाश नहीं पाती, अपने उपग्रहों से भी प्रकाशित होती है। रातों में रोशनी चांद ही दे सकती है, भले सूरज का प्रकाश ही उससे परावर्तित हो कर हमारे पास आता हो।

इस परिवेश का दायरा इतना बड़ा था कि इसमें द्विवेदी जी की पुरानपंथी सोच और जीवन शैली के लिए भी जगह थी, परंतु समर्थन नहीं था – ‘हम आपको अपनी जीवनशैली बदलने को बाध्य नहीं करेंगे, यदि आपको कभी लगे कि इसमें परिवर्तन जरूरी है, तो आप ऐसा कर सकते हैं।’ रवींद्र का प्रभाव नहीं, रवींद्र के प्रभाव से निर्मित सांचा या पर्यावरण, उस में पहुँचने वाले को, वह जैसा था, वैसा रहने नहीं देता था। द्विवेदी जी का नया जन्म इसी रूप में हुआ था। सोच में, रूढ़वादिता में, जातिगत श्रेष्ठताबोध परिवेश की हवा से हवा होने लगे।

इस पर्यावरण में मास्टर मौसाय जैसे पुरातन ज्ञान के अधिकारी और नई सोच की दिशा में उन्मुख व्यक्ति थे, नंदलाल बोस जैसे कृती थे जो आधुनिक होते हुए भी भारतीय कला परंपरा का सम्मान करते थे और इसे आधुनिकता की अपेक्षाओं से जोड़ते हुए, एक नई कला विधा का आविष्कार करना चाहते थे, रवींद्र को अपने विचारों का कायल बनाने के लिए प्रयत्नशील ब्लॉख, सिलवियाँ लेवी, जीन प्रैजिलुस्की, विंटरनित्ज जैसे यूरोपीय विद्वान थे, और इनकी मान्यताओं को नकारने वाले भारतीय चिंतकों के अपने विचार थे जो दबे हुए लगते थे पर बेतुके नहीं। रवींद्र और उनकी परिधि के लोग सभी तरह के विचारों के प्रति खुले पर असमंजस की स्थिति में थे, यह असमंजस भी द्विवेदी जी के भीतर इसी परिवेश के कारण आया।
दुर्भाग्य की बात है कि अपने समस्त प्रतिरोध के बावजूद रवींद्र भी उनसे अभिभूत थे, द्विवेदी जी भी अभिभूत थे, परंतु मन में गहरी आशंका भी थी। कहीं कुछ गड़बड़ है। द्विवेदी जी संभवत इससे पार जाना चाहते थे, स्वयं सभी मामलों में सक्षम नहीं अनुभव करते थे और उम्र का तकाजा था, द्विवेदी जी अपने ढंग से अपने शिष्य को नए रूप में गढ़ते-बनाते हुए अपनी आशंकाओं से पार पाना चाहते थे।