Post – 2019-08-02

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
द्विवेदी जी नामवर को भारतविद बनाना चाहते थे

नामवर जी से न तो मैंने कभी यह प्रश्न किया, न ही उन्होंने अपनी ओर से ऐसा ऐसा कहा, परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि द्विवेदी जी उन्हें भारतविद बनाना चाहते थे। उस काल की सभी महान विभूतियां भारत विद थीं। मिलने में इतना आसान लगता है, बनने में उतनी यह उतनी कठिन साधना की मांग करता था । भाषा के क्षेत्र में अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत पर अधिकार, किसी भारतीय बोली पर अधिकार, यह तो बुनियाद हुई, इसके बाद आरंभ होती थी वह तपस्या जिसमें आप किसी चुने हुए क्षेत्र में उस गहराई तक पहुंचते हैं, जहां से समाज, उसका अतीत-वर्तमान सब कुछ एक नए आलोक में उजागर होने लगता है। और यह दृष्टि अनन्य होती है,आपको कुछ ऐसा दिखता है जैसा कभी किसी को दीखा ही नहीं। यह आनंद की वह अवस्था होती है, जिसमें भौतिक उपलब्धियाँ तुच्छ लगती है- धन, मान, कीर्ति सभी। वे स्वतः आएँ तो उदासी भाव प्रधान होता है, सत्य साक्षात्कार का आनंद सभी को तुच्छ बना देता है। नामवर जी में ये सभी प्रवृत्तियां थीं। इनके विकास में संभव है, द्विवेदी जी द्वारा इस क्षेत्र की विभूतियों के जीवन और कार्यनिष्ठा के विषय में समय समय पर दोहराई गई कहानियों की भूमिका रही हो ।
नामवर जी जब किसी भारतीय भारतविद के विषय में बात करते तो उनकी जानकारी पर विस्मय में होता था, मेरे लिए भी वे जानकारियाँ मूल्यवान होतीं। ऐसी जानकारियाँ डॉ. महादेव साहा को छोड़ अन्य किसी के पास नहीं थीं। जिन के कारनामों पर वह मुग्ध रहते थे, उनके पास भी नहीं। कर्म के लिए, सिर्फ अपनी समस्या का ज्ञान और संकल्प की आवश्यकता होती है। मैंने उन लोगों के विषय में कभी जानने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की।

मुझे बड़े विद्वानों से डर लगता था, उनकी महिमा से घबराहट पैदा होती थी। आज भी होती है। उनके विषय में जानना, अपने विषय से हट जाना या उनकी छाया बन जाना होता। अपनी उपलब्धि से संतुष्ट पिता की संतानों का विकास, पूरी सुरक्षा और सुविधा के बावजूद, अपेक्षा से नीचे रह जाती है।

वृक्ष के नीचे वृक्ष नहीं उगा करते, महा वृक्ष के नीचे तो घास तक नहीं उग पाती। छाया लेने वालों का जमघट अवश्य होता है।

वृक्ष को दूसरे वृक्षों से कुछ नहीं मिलता, अवरोध के सिवा। उसे अपने बीज से ही उगना होता है, अपनी जड़ों के बल पर ही खड़ा होना होता है, अपनी जमीन से ही रस ग्रहण करना होता है, और दूसरे वृक्षों से अपेक्षित दूरी बनाने पर ही उसे भरपूर धूप मिल पाती है।

महान विभूतियों की महिमा का ‘ग्रहण’ महादेव साहा पर नामवर जी से अधिक था। वह अपने विश्वकोशीय ज्ञान के होते हुए और आजीवन ज्ञान-साधक बने रहकर भी, कोई ऐसा काम नहीं कर सके जिसके लिए उन्हें याद किया जाए।

नामवर जी ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ के बाद, उस दिशा में कोई काम नहीं कर सके जिसके लिए द्विवेदी जी उन्हें तैयार कर रहे थे।

स्वयं द्विवेदी जी टैगोर से अधिक क्षितिमोहन सेन से प्रभावित थे, इसलिए आजीवन उनका अनुसरण करते रहे, इसे द्विवेदी जी के अनुसंधान कार्यों को क्षितिमोहन सेन के अनुसंधानों को सामने रखकर, समझा जा सकता है। क्षितिमोहन सेन की उल्लेखनीय कृतियां निम्न हैं: कबीर (चार खंडों 1910-11), भारतीय मध्ययुगेर साधनार धारा(1930), भारतीय संस्कृति (1943), बोंग्लार साधना (1945), युगगुरु राममोहन (1945), जातिभेद (1946), बांग्लार बाउल (1947), हिंदू संस्कृतिर स्वरूप (1947), भारतेर हिंदू-मुसलाान युक्त साधना, प्राचीन भारतेर नारी (1950), चिन्मय बंग (1957), साधक ओ साधना 92003) । मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगा कि द्विवेदी जी दूसरी परंपरा की खोज करने वाले थे. या दूसरी परंपरा की खोज करने वालों के छाया-ग्राही बन कर रह गए थे।

द्विवेदी जी क्षितिमोहन सेन नहीं बन सकते थे, तब के नामवर जी बन सकते थे। एक दौर था जिसमें फाकाकशी में भी, जब रोटी के लिए पैसा नहीं होता था तब भी कहीं से देने पैसे का जुगाड़ हो जाए तो पैसा पहले किताब पर खर्च होता था, फिर रोटी की याद आती थी। ऐसा द्विवेदी जी के जीवन में कभी नहीं हुआ। दोनों आर्थिक दृष्टि से निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से ही आते थे। परंतु दिवेदी जी की पहली प्राथमिकता थी दारिद्र्य निवारण। इसीलिए उन्होंने अपनी निसर्गजात प्रतिभा की दिशा को तोड़ते हुए ज्योतिष का चुनाव किया था। अर्थकरी विद्या का। दिशा बदली, देश बदला, बौद्धिक पर्यावरण बदला, परंतु यह अंतः प्रेरणा बनी रही, जब कि क्षितिमोहन सेन विद्यया अमृतं अश्नुते में प्रवेश करने के बाद, बाहर निकले ही नहीं । दिवेदी जी कभी इस परिवेश में पूरी तरह संतुष्ट हुए ही नहीं । इससे न वह कामचलाऊ पांडित्य से ऊपर उठ सके, न हिंदी जगत में दिवेदी जी का सही मूल्यांकन हो सका।