Post – 2019-08-03

दिगंत तक फैला अट्टहास

द्विवेदी जी का संदर्भ आने पर कोई उनके विचारों की बात करे या न करे मुक्त भाव से हंसने की बात अवश्य करता है। मैंने उन्हें केवल 3 अवसरों पर केवल कुछ क्षणों के लिए देखा। उनका वह हास्य देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, परंतु मैंने उनके जिस हास्य को देखा है उस पर दूसरों की नजर नहीं पड़ी। कुछ चीजें मेरे सौभाग्य से दूसरों की नजर से ओझल रह जाती हैं।

मुझे उनका समस्त लेखन दिगंत तक फैले अट्टहास जैसा लगता है। वह दूसरों पर ही नहीं, अपने आप पर भी हँस लेते थे। वह बहुत, अधिक, विभिन्न, विविध आदि के लिए ‘नाना’ का प्रयोग करने के आदी थे। जब इस पर ध्यान गया तो नाना एक चरित्र बन गए। अपने ऊपर भी हँसने की यही विशेषता अधिक प्रखर रूप में तुलसीदास में है, “तुलसी गुसाँई भयो भौंड़े दिन भूलि गयो।” परंतु निश्छल हास्य और अट्टहास के पीछे क्या है, इसे जीकर ही जाना जा सकता है, अन्यथा उस ओर नजर नहीं जाती। मैं अपने शब्दों में कुछ न कहूँगा। तीन उद्धरण पर्याप्त हैं:
अट्टहास कर, अट्टहास कर, अट्टहास से
मन को गड़ने वाले दर्द डूब जाते है
दुक्खों का दुरतिक्रम घेरा
अट्टहास ही तोड़ सका है अभियानों में।
त्रिलोचन

2. कबहुँ न नाथ नींद भरि सोयो।
तुलसी

3. ‘Humour in the essays of Lamb is the humour of life. It is most akin to pathos. We can say that it is saving grace for him, for after all it enables him to detach himself from the painful realities, or rather to view them as things apart from himself.”

मुझे उनके व्यक्तिगत जीवन की जानकारी नहीं, परंतु ऊपर से संतुलित दीखते हुए भी वह भी भीतर किंचित उद्विग्न थे और उस ऊद्विग्नता पर काबू करने के लिए उन्होंने एक छद्म आवरण तैयार कर लिया था जो उनके स्वभाव का अंग बन गया। मैं नहीं जानता कारण क्या था।

परिस्थितियां समान होने पर भी हमारी प्रतिक्रियाएँ समान नहीं होती है। दिवेदी जी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के होते हुए भी ज्योतिष में आचार्य किया था, जिसे मैं अर्थकरी विद्या के रूप में रेखांकित कर आया हूं।

लगता है, आरंभ में विद्या से उनकी एकमात्र आकांक्षा पारिवारिक दैन्य को दूर करना था। कोई अन्य महत्वाकांक्षा थी ही नहीं। एक सुलझा हुआ (नॉर्मल) आदमी सुख और लाभ की आकांक्षा से परिचालित होता है। इसमें कुछ भी अशोभन नहीं है। ऐसा सदा से और सभी समाजों में होता है। मैंने जिस नीतिवाक्य के एक अंश का उपयोग किया था उसका पूरा पाठ निम्न प्रकार है:
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रोsर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्।।

दुख की तलाश तो आत्मपीड़क (sadist) ही कर सकते हैं, जिसका ए्क अपसामान्य (abnormal) रूप है जो मनोव्याधि में प्रकट होता है, और दूसरा अतिसामान्य (super-normal) जो अतिकर्ष या नए कीर्तिमान स्थापित करने की महत्वाकांक्षा से परिचालित होता है। इसमें कष्ट सहकर भी, यहां तक कि प्राण तक देकर किसी महान लक्ष्य की प्राप्ति इतना आकर्षित करती है कि कोई भी कष्ट कष्ट नहीं रह जाता, आनंदानुभूति बन जाता है। यह प्रतिभा के उत्कर्ष से ही संभव हो पाता है। भौतिक दृष्टि से सफलता की कामना करने वाले लोग सपने नहीं देखते वे लालसाएँ पालते हैं, सपने केवल वे ही देखते हैं जो दुनिया को या इसके किसी पहलू को बदलना चाहते हैं।

द्विवेदी जी ने अपना क्षेत्र ज्योतिष चुना था, इसमें नया कुछ करने को था ही नहीं, इसलिए वह सपने नहीं पाल सकते थे। जीविका चला सकते थे, परंतु प्रतिभा के उत्कर्ष ने उनकी दिशा ही बदल दी। नामवर जी में यह आरंभ से ही थी, द्विवेदी जी में असमंजस का रूप लिया और उनके भाग्य का फैसला मालवीय जी ने कर दिया।

ज्योतिषाचार्य को ही पता होगा कि एक होनी के पीछे कितने नक्षत्रों , कितने ग्रहों, और उनसे चालित कितने मनुष्यों का हाथ होता है। शांतिनिकेतन को 1921 में विश्वविद्यालय की मान्यता मिल गई थी और वह विश्व भारती बन गया था। पुराना नाम नए के साथ चलता रहा और आज तक चल रहा है भले वहां शांति न हो।

क्या 1930 में ही अर्थात विश्वविद्यालय बनने के 9 साल बाद ही रवींद्र को यह सूझा कि यहां हिंदी की शिक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिए। ग्रहों की बात कर रहे हैं, इसलिए रवींद्र को न तो श्रेय दे रहे हैं न दोष। विश्व भारती की आर्थिक दशा ऐसी न थी, कि रवींद्र जिसे उचित समझते उसके लिए अर्थव्यवस्था भी कर पाते। हिंदी भी पढ़ाई होनी चाहिए, यह विचार उन्हें तब आया जब बनारस के शिव प्रसाद गुप्त ने विश्व भारती को 60 रुपए प्रतिमाह हिंदी को स्थान देने के लिए देना आरंभ किया। यह वादा उसी वर्ष होना था जिस वर्ष दिवेदी जी ज्योतिषाचार्य बने थे। रवींद्रनाथ टैगोर को क्या मालवीय जी से ही इसका अनुरोध करना था और मालवीय जी को हिंदी पढ़ाने के लिए एक ऐसे व्यक्ति का ही ध्यान आना था जिसके पास ज्योतिष के ज्ञान का प्रमाणपत्र तो था, हिंदी के ज्ञान का दावा तक न था। ग्रहों का सबसे बड़ा खेल है ज्योतिष को विश्वभारती के प्रभाव में अविश्वसनीय मानने के बाद भी द्विवेदी जी का ग्रहों के खेल में, पूजा पाठ के प्रभाव में विश्वास बना रह जाना। वह हिंदी शिक्षक बन कर गए थे, हिंदी के भाग्य विधाता बनकर नहीं। इतने विरोधी ग्रहों के होते हुए भी जो होना था वह हुए और अगला आश्चर्य यह कि वह हिंदी के स्नातक हुए बिना भी काशी विवि में विभागाध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किए गए और बने ही नहीं हिंदी साहित्य के भविष्य को भी नया मोड़ दिया।

यह नया मोड़ क्या था? अब तक का हिंदी साहित्य सौंदर्य की कसौटी पर कसा जा रहा था, जिसमें विचारधारा गौण थी, इसलिए शुक्ल जी ने संत कवियों को ज्ञानमार्गी कह कर अवर कोटि में रखा था। इसके बाद ज्ञानमार्ग प्रधान हो गया, विचार और विचारधारा प्रधान हो गई। साहित्य साहित्य न रहा, इन्कलाब जिंदावाद बन गया और अपनी स्वायत्तता खोकर राजनीति का सेवक और साहित्यकार अपने टुच्चेपन के लिए कुख्यात राजनीतिज्ञों का दुमछल्ला बन कर रह गया।

पता नहीं मै सही दिशा में बढ़ा हूँ या नहीं। दुबारा सोचना होगा, परन्तु यदि द्विवेदी जी जीवित होते और उनके सामने मैं यही सवाल करता तो उनका जवाब क्या होता?

अट्टहास। वह अपने पर भी हँस सकते थे, अपनों पर भी हँस सकते थे, अपनी अधौगति पर भी, अपनी परिणति पर भी।