Post – 2019-08-04

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
कवि या विद्वान

द्विवेदी जी का मन, उनके अनुसार जितना शोधकार्य में लगता था, उतना सर्जना में नहीं। यह विश्वभारती का प्रभाव था। उनकी प्रकृति सर्जक की थी। उनकी आरंभिक रचनाओं में वैसा ही निरालापन, वैसा ही उल्लास है जैसा बाद की रचनाओं में – ऐसा, जैसा, नहीं किसी ने लिक्खा, उनके बाद, न पहले। नागार्जुन कुछ करीब अवश्य पहुँचते हैं, परंतु वह वैविध्य कहाँ है। ग्रंथावली के 11वें खंड में संकलित आरंभ की कुछ कविताओं के अंश:
1….सारी उमर लेखक ने की ज्योतिष की पढ़ाई,
पर बंबई वाले ने फतह कर ली लड़ाई।
शुभलाभ, मेष-वृष-मिथुन-फल सबका हाँकता
साहित्य का सेवक मगर है धूल फाँकता।।…
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2
यदि मैं होता रसिक बिहारी कवि के युग में.
ललित कलित अलिपुंज रहे जब
मिलित मालती कुंज रहे जब
यमुना पुलिन सुवासित होता था वसंत के संग में…
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3
नंद के दुलारे चकचके से थके से खरे मानो कोऊ रेडियो विलोक्यो गाँव वारो है।
काजर की पूतरी कबूतर सी आँखिन सों मुल्हकि मुल्हकि ताको रंग कौं बघारो है।
छूटि गई मुरली लकुट कहूँ छूटि गई पीत पर तनु पै गुलाल लाल धारो है।
डूबिगो गचाक सौं मजाक के मजाक में यथा समुद्र मध्य कोऊ पोत मोह वारो है।।

उनके शोध कार्यों में कमी निकाली जा सकती है। यह कमी उनकी निजी नहीं है। हमारे इतिहास और भाषा विमर्श पर उन्होंने कब्जा कर लिया जो हमें अनंत काल तक अपने कब्जे में रखना चाहते थे, इसके लिए हमें ही नहीं अपने बच्चों को भी उल्टा पाठ पढ़ाते रहे। उनके कुछ पायकों ने विनय के सम्मोहन से विश्व भारती को भी कब्जे में ले लिया था। विंटरनित्ज ने तो भारतीय साहित्य का इतिहास ही गुरूदेव को समर्पित किया था। ब्यौरों में मामूली असहमति के बाद भी सभी की मान्यताएँ एक ही थीं। इसके कारण द्विवेदी जी ही नहीं, दुनिया के सभी विद्वानों के भारत विषयक शोध कार्य व्यर्थ हो गए। इनकी बुनियाद ही गलत हो गई, आधारशिला अपनी जगह से हटाई ही नहीं गई, बल्कि दिशा भी उलट दी गई।

उजड्डों को सभ्यता का जनक बना दिया गया, उनके अनुरूप हुए बिना वे भारत में उनके देश से लाए नहीं जा सकते थे, इसलिए अपने पूरे साहित्य में शांतिपाठ करने वालों को, त्राहि माम्, पाहि माम् की गुहार लगाने वालों को, सभ्यताद्रोही लंपट, लुटेरा बना दिया गया। हमारी अपनी समझ तो वर्णवादी और संस्कृत-केंद्रित होने के कारण औंधी पहले से थी। संस्कृत के विद्वान होने के कारण, द्विवेदी जी उस मनोबंध को तोड़ ही नहीं सकते थे जिसके कई आवर्तों ने उन्हें घेर रखा था।

एक विचित्र संयोग था, द्विवेदी जी का संस्कृत ज्ञान और रवींद्र नाथ का प्रखर संस्कृति बोध। वह विशेष अवसरों पर वेद की रचनाओं के पाठ से आयोजन का आरंभ करते थे। ऐसी परिष्कृत भाषा, अंतर्वस्तु और कलात्मक निखार जिस सांस्कृतिक स्तर का प्रमाण था उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी, परंतु उन तथ्यों और तर्कों का खंडन करने की तैयारी भी किसी में नहीं थी, इसलिए आधे मन से सभी ने यह मान रखा था कि उनके द्वारा तैयार किया गया इतिहास फरेब नहीं है। वैदिक> संस्कृत> प्राकृत>अपभ्रंश का वंशवृक्ष संस्कृत के विद्वानों के भी दिमाग में पहले से था।

कोई गलत मान्यता जितने भी लंबे समय से चली आ रही हो, और उसे किसी भी कारण से जितना भी व्यापक समर्थन क्यों न मिला हो, जांचने पर वह पहला प्रहार तक नहीं झेल पाती। इस मान्यता के साथ भी यही हुआ।

सत्य के संधान में ज्ञान की भूमिका से हम परिचित हैं, परंतु अज्ञान की शक्ति से परिचित नहीं। ज्ञानी को उससे तेज तर्रार धूर्त अपना कायल बना सकता है, ज्ञानी को शास्त्रलिखित के दबाव मैं, या समकालीन ज्ञानियों की सहमति से मूर्ख बनाया जा सकता है, अज्ञानी ऐसे झाँसों में नहीं आता। जब ज्ञानी लोग कई तरह से राजा की पोशाक की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे होते हैं, तो अज्ञानी ही बताता है कि राजा नंगा है और फिर उन्हें भी उसका नंगापन दिखाई देने लगता है।

भारतीय भाषा चिंतन ब्राह्मणों के हाथ में था। वर्चस्व की वही कामना जो पश्चिमी जगत में चार सौ साल पहले पैदा हुई थी, ब्राह्मणों में चार हजार साल से विद्यमान थी। नीति कथा के धुनिया और गीदड़ की सोच के अनुसार ‘बड़ों की बात बड़ों ने जानी’ में ‘जानी’ के स्थान पर ‘मानी’ लगा दीजिए और पिछले ढाई सौ साल के भारतीय इतिहास की समझ का नंगा रूप सामने आ जाएगा। पता चलेगा कि क्यों अभिजात हिंदू विद्वान, मुस्लिम अशराफ और पश्चिमी उपनिवेशवादी और नस्लवादी उसी समस्या पर एक तरह से सोचते थे और अंबेडकर दूसरी तरह से सोचते थे। और क्यों तथाकथित मार्क्सवादी और अंबेडकरवादी लौटकर वर्णवादियों, अशराफों और उपनिवेशवादियों ही तरह सोचने लगेे हैं। आत्मेत्थान की तलाश करने वाले, सत्य की तलाश नहीं कर सकते। उसमें उनकी कोई रुचि नहीं होती।

हम युगो से मानी जाने वाली या पूरी दुनिया में स्वीकार कर ली जाने वाली मान्यताओं के खोखलेपन को जांचने के लिए एक उदाहरण लेते हैं:
भाषा के मर्म को समझने की दृष्टि से विश्व के सबसे अग्रणी माने जाने वाले विद्वान मानते थे कि संसार की सभी भाषाएँं संस्कृत से निकली हैं, क्योंकि सृष्टि का आरंभ ही यज्ञ का आयोजन होने के बाद हुआ जिस में बाकायदा वेद के मंत्र पढ़े गए। वेद वाक्य को गलत कहा नहीं जा सकता, इसके बाद तर्क करने को कुछ रह नहीं जाता।

तर्क करने को फिर भी रह जाता है। यदि यज्ञ हुआ, उसमें हवि डाली गई तो उस हवन सामग्री में अनाज भी रहा होगा। अनाज तो द्विज पैदा ही नहीं करते, उसे पैदा करने वाला शूद भी रहा होगा। गरज कि सृष्टि से पहले शूद्र भी रहा होगा। चाहे ब्राह्मण स्वयं शूद्र रहा हो, या ब्राह्मण शूद्र से बाद में पैदा हुआ हो, परंतु उसी पुरुष सूक्त से इस सचाई तक पहुंचा तो जा सकता है। मैंने अंबेडकर की तरह पुरुष सूक्त की व्याख्या नहीं की है, फिर भी एक बार पुरुष सूक्त की अंबेडकर द्वारा की गई व्याख्या पर नजर डालें। उनसे पहले किसी दूसरे ने इतना वस्तुपरक, इतना तार्किक विश्लेषण नहीं किया है। अगली बात यह कि इतिहास ने अंबेडकर को ही सही सिद्ध किया।

ज्ञानियों की इस नासमझी का मजाक भी करने चलें तो रोना आएगा कि एक अनपढ़ जुलाहा जानता है की मुंह से कोई पैदा नहीं हो सकता, परंतु ब्राह्मण इसे नहीं समझ सकता। आज जब सृष्टि के विषय में, भाषा की उत्पत्ति के विषय में हमारी समझ साफ हो चुकी है, फिर भी ब्राह्मणवादी इसे जानते हुए भी पुरुष सूक्त से आगे नहीं बढ़ सकता।

अन्य लोगों की तरह क्षितिमोहन सेन और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनों का भाषा विमर्श भी इसी विडंबना का शिकार था, इसलिए वही काम जिसके लिए वे सबसे अधिक योग्य समझे जाते थे – भाषा, व्याकरण, शब्द विचार, उसे वे सही सही कर ही नहीं सकते थे।

परंतु विश्व भारती के बौद्धिक पर्यावरण के कारण वे मानते जो भी रहे हो, असमंजस से ग्रस्त थे। इसका मैं अनुमान ही कर सकता हूं। अनुमान का आधार क्या है इसका संकेत हम बाद में देंगे।

इससे पहले, यह याद दिला दें, कि द्विवेदी जी के बौद्धिक आतंक के कारण उनके शिष्य अपनी संभावनाओं को हासिल नहीं कर सके। वे अपनी विदग्धता के बावजूद, द्विवेदी जी के संपर्क में कुछ अलग तो बने, परंतु अपनी सकल उपलब्धि में औसत से ऊपर नहीं उठ सके। विडंबना यह कि केदार नाथ सिंह को छोड़कर वे सभी अपने अपने ढंग से, द्विवेदी जी का उद्धार करने के लिए तो विकल थे, परंतु दिवेदी जी को समझने की योग्यता से रहित थे। वे सभी आरती वंदना से आगे उनका सम्मान नहीं कर सके, उपयोग अवश्य किया।

आपसी द्वेष से वे इतने ग्रस्त थे, कि उनके दो पट्ट शिष्यों में से एक, शिवप्रसाद सिंह ने, द्विवेदी जी के आरती वंदन ग्रंथ ‘शांतिनिकेतन से शिवालिक तक’ में बहुत सारे लोगों को स्थान दिया, परंतु उसमें नामवर सिंह गायब है। नामवर जी ने ऐसा ही कोई आयोजन किया होता तो उसमें शिवप्रसाद सिंह नदारद मिलते हैं।

आपसी विद्वेष जब इतना था तब रामचंद्र शुक्ल का पुतला खड़ा करके, जो दिवेदी जी के बनारस पहुंचने से 9 साल पहले ही दिवंगत हो चुके थे, शुक्लविरोध, शुक्ल समर्थकों का विरोध इसलिए कि और कोई योग्यता न होने के कारण अपने को गुंडों का सरताज मानने वाले अध्यापक शुक्ल जी की आड़ लेकर अपने स्वार्थ साधन के लिए, द्विवेदीजी के साथ कमीनेपन के स्तर पर उतर कर पेश आते थे। उनके कमीनापन को उजागर करने की जगह, उन्होंने शुक्ल जी के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।

उनकी रचनाओं को पढ़ने पर ऐसा भ्रम पैदा होता है कि द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य का अपना इतिहास शुक्ल जी को तुच्छ सिद्ध करने के लिए लिखा था और तुलसी की जगह कबीर को इसलिए महत्व दिया था कि तुलसी रामचंद्र शुक्ल को प्रिय थे। जिन मूल्यों के पोषक थे, द्विवेदी जी ने उससे अलग एक नई परंपरा का आधार रखा था।

वखेड़े से बचते हुए, इतना ही निवेदन करें कि द्विवेदी जी रवींद्र के निकट परिक्रमा लगाने वाले यूरोपीय विद्वानों से और विशेषतः विंटरनित्ज से प्रभावित थे। 1937 में ही जब बनारस आने का कोई योग तक नहीं बना था, बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में उन्होंने यह आकांक्षा जताई थी कि वह विंटरनिट्स के हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर की तर्ज पर हिंदी में साहित्य के इतिहास की एक पुस्तक लिखना चाहते हैं। उन्होंने अपनी समस्याएं भी गिनाई थी जिनमें एक प्रति सप्ताह 35 कक्षाएँ लेने के बाद उदर पूर्ति के लिए दूसरे काम करने के कारण इस के लिए समय का अभाव था। हिंदी साहित्य की भूमिका 1947 से पहले प्रकाशित हो गई थी। इसका न तो किसी स्पर्धा से संबंध था, न ही बनारस के कड़वे अनुभव की प्रतिक्रिया स्वरूप इसका लेखन हुआ था।

जहां तक मानसिकता का सवाल है शांतिनिकेतन में पहुंचने वाले द्विवेदी जी सभी दृष्टियों से शुक्ल जी से इतने पिछड़े थे कि वह उनका उपहास नहीं कर सकते थे। जिसे दूसरी परंपरा कहा गया, वह द्विवेदी जी का आविष्कार नहीं थी। उसकी पूरी सामग्री, उन्हें क्षितिमोहन सेन से विरासत में मिली थी। उसका उन्होंने पूरी निष्ठा से निर्वाह किया, जबकि द्विवेदी के शिष्यों में कोई भी उसी तल्लीनता से शोध कार्य में अपने को अर्पित न कर सका।