#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
मैने चाहा था कि ऐसा हो पर ऐसा न हुआ
कुछ बातें सूत्र रूप में रखते हुए आज इस शृंखला की समाप्ति का इरादा था, अब कल भी झेलने को तैयार रहेे:
क
1. द्विवेदी जी के शिष्यों में लगभग सभी वाग्विलासी थे। किसी में किसी गंभीर क्षेत्र में उसी निष्ठा से काम करने का धैर्य नहीं था। किसी ने उन क्षेत्रों में आगे कोई काम नहीं किया। कोई भी चीज पढ़ने से नहीं समझ में आती है। सही समझ काम करने से आती है। न तो कोसंबी के कार्यक्षेत्र में सक्रिय रुचि लेकर किसी मार्क्सवादी इतिहासकार ने काम किया, न द्विवेदी जी के कार्य क्षेत्र में उनके किसी शिष्य ने काम किया। जिस तरह मार्क्सवादी इतिहासकार स्रोत सामग्री से अनभिज्ञता के कारण कोसंबी को समझने की योग्यता नही रखते थे, इसलिए उनका मुग्ध भाव से कीर्तन करते रहे, उसी तरह द्विवेदी जी के शिष्य उन्हें समझने की योग्यता न रखने के कारण उनका कीर्तन करते रहे – एकोदेवः महादेवः नान्यः तत्समं भवेत् ।
2. बिना समझे किसी की प्रशंसा करना स्वयं उसके लिए सुखद अनुभव नहीं है – असझवार सराहिबो, समझवार को मौन।
इससे व्यक्ति की महिमा नहीं बढ़ती, उसे समझने की रास्ते में बाधा पड़ती है। पढ़ने वाले आग्रहमुक्त भाव से उसका अवगाहन नहीं कर पाते; उसकी रचना या अनुसंधान के अछूते पहलुओं की ओर ध्यान नहीं दे पाते।
सही दाद के अभाव में वह व्यक्ति प्रशंसा के बीच भी उपेक्षित अनुभव करता है। उसे अपनी तारीफ सुनने की इतनी जरूरत नहीं होती जितनी अपनी कमियों को समझने की।
उन्होंने द्विवेदी जी को भी क्षति पहुँचाई, हिंदी आलोचना को भी विषाक्त किया और हिंदी की सृजनशीलता को भी कुंठित किया। जो अपना काम न कर सके वह उसका उद्धार कैसे कर सकता है जो अपने काम के बल पर ही जाना जाता है।
द्विवेदी जी अंडा नहीं थे कि उनको सभी ठोकरों और प्रहारों से बचा कर रखा जाए :
खुरुचि खरोंचि के घटावै कोई कितना भी
बाकी के बचे में शिष्य सकल समाइहैं।
जगह बची है ढेर सारी घुसो दायें बायें
पलड़ा झुका कि उठा पारखी बताइहैं।
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ख
1. कबीर की तरह द्विवेदी जी भी मुझे एक संधिभूमि पर दिखाई देते हैं। उन तक हिंदी, हिंदी प्रेमियों और हिदी सेवको की भाषा थी। उसके बाद यह हिंदी-सेवियों की भाषा हो गई। सामाजिक और साहित्यिक भाषा नहीं रह गई, राष्ट्रभाषा और राजकाज की भाषा हो गई और इस चेतना के कारण हिंदी भाषियों में अपने ही देश के उन लोगों की भाषा की अवज्ञा आरंभ हुई जिन्होंने हिंदी को पूरे देश के लिए व्यावहारिक भाषा मान कर इसकी वकालत की थी। हम इसके परिणामों से परिचित हैं इसलिए इस पर समय व्यर्थ न करेंगे।
2. हावी होने की इस प्रवृत्ति से पैदा हुई वह जमात जिसके हाथ में कुदाली नहीं थी, टोकरी थी। यह पैदा करना नहीं जानती थी, परिश्रम करने से बचती थी, टोकरी में भरने को आतुर थी। मार्क्सवाद के नाम पर हो, प्रयोगवाद, नई कविता या दूसरे कई नामों से हो, पारस्परिक विरोधों के बावजूद, ये सभी मूलोच्छिन्न, पश्चिमाभिमुख थे और इन सभी में अपने अतीत के प्रति विरोध या अवज्ञा का भाव था, इसलिए सबका अपने अतीत का ज्ञान सतही था, सभी पश्चिम के वर्तमान को अपना भविष्य बनाना चाहते थे। कलावादी भी और साम्यवादी भी जब कि पश्चिम उनका इस्तेमाल करना चाहता था, इसलिए दोनों ओर से पूरा एकात्म्य था।
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ग
1. द्विवेदी जी के सही मूल्यांकन के लिए उनकी सीमाओं को जानना जरूरी है। द्विवेदी जी साहित्याचार्य नहीं थे, ज्योतिषाचार्य थे। उसके लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना जरूरी था, संस्कृत वांग्मय का नहीं। 23 वर्ष की आयु में वह हिंदी के शिक्षक हो कर विश्व भारती चले गए थे। वहां उन्हें हिंदी भाषा सिखानी थी, जिसके लिए व्याकरण और हिंदी के प्रचलित प्रयोगों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत थी, साहित्य पर ध्यान देने की जरूरत इसके साथ पैदा हुई, और उन्होंने आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य के ही अवगाहन का ही प्रयत्न नहीं किया, पृथ्वीराज रासो से भी पीछे नाथों और सिद्धों की ओर लौटते हुए अपभ्रंश भाषा तक पहुंचे और इससे ही हिंदी की उत्पत्ति की कल्पना की।
2. मैं द्विवेदी जी से दूर रहकर भी उन्हें उनके शिष्यों से अधिक इसलिए समझ सकता हूं कि मुझे भी बिना किसी अनुकूल परिवेश के अपना रास्ता खुद बनाना पड़ा और गलतियों के बीच से सही समझ विकसित करनी पड़ी। उनसे विश्व भारती में कई तरह की अपेक्षाएं थीं। रवींद्र उनको ज्योतिषाचार्य के रूप में महत्व नहीं देते थे, संस्कृतज्ञ हिंदी विद्वान के रूप में उनको जानते थे। उनकी अपेक्षाओं को भाँपते हुए द्विवेदी जी ने संस्कृत साहित्य का भी बड़े मनोयोग से अध्ययन किया और उसकी दुर्लभ सामग्री का ऐसा संकलन और उपयोग किया जो इससे पहले किसी से संभव न हुआ था।
3. पूजा करने वालों को अपने आराध्य की अनंत शक्ति में इतना विश्वास होता है कि वे समझते हैं वह जिन चीजों का नाम लेता है उनका पारंगत अवश्य होगा । मनुष्य की सीमाओं को जानने वाले, ऐसे व्यक्ति का सम्मान करते हुए भी, यह समझने का प्रयत्न करते हैं वह अपने दबाव और सीमाओं के बीच क्या कर सकता था, और कहां से आगे बढ़ने पर, अन्यथा ईमानदार होने के बावजूद किन परिस्थितियों में, कितने गलत दावे करने पड़ सकते थे। भक्तों के लिए यह अकल्पनीय है, तत्वदर्शियों के लिए ये विचलनें प्राकृत नियम का अंग हैं, इसलिए सही दिशा में बढ़ने का उसका प्रयत्न ऐसी विचलनों से अधिक महत्वपूर्ण है।
3. इन तमाम व्यस्तताओं के बीच द्विवेदी जी को वैदिक साहित्य के लिए समय नहीं मिला था। यहां तक उपनिषद काल को समझने के लिए भी वह यथेष्ट समय नहीं निकाल पाए थे। इसके बाद भी उन्हें संस्कृतज्ञ मानकर रवींद्र जब वेद के मार्मिक अंशों का चयन करने का उत्तरदायित्व सौंप देते थे तो वह यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि उन्हें ऋग्वेद का ज्ञान नहीं है, प्रयत्न करके अपने संस्कृत ज्ञान के बल पर अपना चयन और व्याख्या दोनों उनके सम्मुख प्रस्तुत करते थे, और द्विवेदी जी के अनुसार ही गुरुदेव उनका जितना स्वच्छ चयन और अनुवाद करते थे उस पर द्विवेदी जी स्वयं मुग्ध हो जाते थे।
रवींद्र को दो संस्कृतज्ञों का सानिध्य प्राप्त था। संभव है, यही काम वह क्षितिमोहन सेन को भी सौंपते रहे हों, और उनका चयन और अनुवाद दोनों के समन्वय का परिणाम होता रहा हो। द्विवेदी जी के नम्र निवेदन को इस बात का प्रमाण नहीं बनाया जा सकता, कि उन्हें वैदिक साहित्य का ज्ञान नहीं था।
4. मैं इस नतीजे पर इसलिए पहुँचा कि उनके निबंधों में प्राचीन इतिहास का जो उल्लेख आता है वह अपने प्राचीनतम रूप में महाभारत से कुछ आगे पीछे ही आरंभ होता है, उससे पीछे नहीं पहुंच पाता। उदाहरण के लिए ग्रंथावली के नवें खंड में द्यूतक्रीडा पर एक निबंध है. भारत में द्यूतक्रीड़ा। आरंभ होता है मृच्छकटिक में जुए के विषय में मिलने वाली जानकारियों के साथ। पीछे के इतिहास का पता नहीं चलता। इस बात का उल्लेख तक नहीं कि ऋग्वेद में जुए की भर्त्सना में एक पूरा सूक्त (अक्ष-कितव निन्दा,ऋ. 10.34) है, और ऋग्वेद की सूचनाओं के अनुसार आरंभ में यह बुराई बुराई नहीं थी। प्रतिस्पर्धा का रूप थी जिससे नई चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा मिलती है।
इसकी पुरानी झलक शतपथ 3.6.2 में कद्रू और स्पर्णी की प्रतिस्पर्धा में मिलती है। इसके विस्तार में हम नहीं जाएंगे परंतु यह याद दिलाना जरूरी है कि विचारों की इस स्पर्धा ने शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले को विजेता की शर्तों को मानने की बाध्यता उत्पन्न हुई और यह परंपरा बहुत बाद तक शास्त्रार्थ में जीवित रही जिसके कारण विचारों में परिवर्तन के लिए भारत मैं कभी हिंसा या बल प्रयोग की जरूरत नहीं समझी गई।
वैदिक सभ्यता के उस खास चरण पर जिसका भौतिक पक्ष हमें हडप्पा सभ्यता के पुरावशेषों में मिलता है, इसने जल्द से जल्द धनी बनने की आकांक्षा में चालाकी और फरेब वाले उस जुए का रूप ले लिया जिसका विवरण मृच्छकटिक में मिलता है जहां से वह आरंभ करते हैं।
हमारे लिए जो महत्वपूर्ण है वह यह कि द्विवेदी जी की सहायता के बिना में बाद के विकास को समझ ही नहीं सकता था।