अनंततः
(जब तक न होश आए यही सिलसिला चले)
संपाद्य
घ
द्यूत क्रीड़ा की तरह ही दीपावली का इतिहास बताते हुए वह मार्कंडेय पुराण से आरंभ करते हैं ( आलोक पर्व की ज्योतिर्मयी देवी)। इस पर उनके दो निबंध और है ( अंधकार से जूझना और दीपावली: सामाजिक मंगलेच्छा का प्रतिमा पर्व)। इनमें एक प्रतीति सी दिखाई देती है ज्योति के प्रति भारतीय परंपरा में बहुत पहले से आकर्षण बना रहा है, और इस प्रसंग में लोकप्रिय तमसो मां ज्योतिर्गमय को भी बृहदारण्यक उपनिषद का उल्लेख किए बिना याद करते हैं परंतु इससे पीछे के इतिहास के विषय में उनको कोई जानकारी है इसका पता नहीं चलता ।
यह पर्व बहुत पुराना है, यह द्विवेदी जी को भी पता था। इसका रूप बदलता रहा है। आरंभ प्राचीन अवस्था में हुआ जब मनुष्य दिया बनाना तक नहीं जानता था। कृषिकर्म के आरंभ के साथ मनुष्य ने आहार-संग्रह युगीन दरिद्रता पर रोगों को और व्याधियों पर विजय प्राप्त की। इस सफलता को कई तरह से दोहराया और मनाया जाता रहा। भारत में खेती धान से आरंभ हुई इसलिए यह पर्व बरसाती फसल के तैयार होने के बाद आयोजित किया किया जाता था।
खेती का आरंभ होने से पहले जिन घासों के दाने को खाया जाता था उनके लिए औषधि शब्द का प्रयोग होता था- ओषधि अर्थात् शक्ति प्रदान करने वाली घासें – इसकी मोटी परिभाषा है कि जो वनस्पतियां फल पक
जाने के बाद सूख जाती हैं, वे औषधि हैं – ओषधयः फलपक्वान्ता ।
इनको तथा आहार के उपयोग में आने वाली बदरियों, कंदों, फलों को एक निश्चित विकास से पहले नोचने-खसोटने को वर्जित माना जाता था। यदि कोई व्यक्ति किसी भी कारण से इस मर्यादा का उल्लंघन करे तो उसे जान से भी हाथ धोना पड़ सकता था। इस सामाजिक प्रतिबंध को वरुण देवता ( वारण या वर्जना के देवता) के रूप में कल्पित किया गया।
इसलिए जिन औषधियों या घासों के दानों को मनुष्य अपने उपयोग में लाता था उन्हें वरुण प्रघास कहा जाता था। वरुण प्रघास का अर्थ है व्रीहि और यव। इसमें यव तो तब जुड़ा जब खेती करने वाले नए कछारों की ओर बढ़ते हुए सरस्वती आपया और दृषद्वती के कछार में पहुंचे जहां की समस्या यह थी कि यहां वर्षा के औसत की कमी के कारण जाड़े की फसल उगाना ही संभव था।
यह एक अलग प्रसंग है। इसके विस्तार में जाना उचित न होगा। परंतु वे सभी ग्रंथ जिनका हमें अपने अतीत को समझने के लिए सहारा लेना पड़ता है कुरुक्षेत्र में पहुंचने के बाद, अधिकांश तो बहुत बाद में रचे गए इसलिए प्रस्तुति में घालमेल हो गया। पहला युग्म था, व्रीहिश्यामकौ जिसे बदल कर व्रीहियवौ बना दिया गया।
इस आर्थिक रूपांतरण को कई रूपों में प्रस्तुत किया गया है और इसके कुछ रूप सांस्कृतिक प्रतीक बन गए जिनमें वारुणी मर्यादाओं का निर्वाह मेरे बचपन तक चलता रहा, आज भी गांव में इसका निर्वाह किया जाता है या नहीं, मैं नहीं जानता। दीपावली के दिए से भी अधिक का महत्वपूर्ण था दिवाली का भोजन। इसका अनिवार्य अंग था, जिमीकंद, जिसे पूर्वांचल में ओल कहते हैं। यहां में कल्पना से काम लेना चाहता हूं – कंदों में यही कंद क्यों? क्योंकि इसके लिए कई साल तक प्रतीक्षा करनी होती थी ।
यदि खेती का आरंभ उस समुदाय ने किया जो अपने को देव कहता था, तो उसके देवता इन्द्र ही हो सकते थे। परंतु थे क्या? आरंभिक खेती कछारों तक सीमित थी। उसकी वृष्टि पर निर्भरता कम थी। यह नया देवता उसके बाद पैदा हुआ जब किसानों ने कछार की भूमि से आगे की जमीन को खेती के काम में लाना जरूरी समझा।
परंतु जमीन को खाली करने के लिए झाड़ झंखाड़ को जलाने के लिए आग का सहारा लेने की जरूरत पड़ी। यहां एक नया देवता पैदा हुआ, विष्णु। अग्नि का वह रूप जो भले एक स्फुलिंग से पैदा हुआ हो, एक बार इस ने अपना विराट रूप धारण किया और अपने डग भरने शुरू किए तो आज के वैज्ञानिक युग में भी इसे नियंत्रित कर पाना असंभव नहीं तो भी दुष्कर तो होता ही है। इसी से जुड़ा है विष्णु का अवतार, उत्पादन अर्थात् यज्ञ से और आग से विष्णु का संबंध:
वामनो ह विष्णुः आस।
अग्निर्वै विष्णुः।
यज्ञो वै विष्णुः ।
उसी कथा में एक रोचक घटना का उल्लेख है कि अचानक विष्णु गायब हो गया। एक दूसरे से लोग पूछने लगे, विष्णु का क्या हुआ? कहां गया? फिर पता चला कि वह औषधियों की जड़ों में छिप गया है, और उसके बाद उन्होंने जमीन को खोदकर उसे प्राप्त किया ।
और लीजिए जब वही विस्तृत भू-भाग जल संकट से जूझने लगा तो एक नए देवता का अवतार हुआ। यह था इंद्र। इसके बाद पहले का देवता विष्णु उपेंद्र बन गया। परंतु यह नौबत कुरुक्षेत्र में आने के बाद सामने आई।
अब हम देव शास्त्र के विकास में तीन चरणों को लक्ष्य कर सकते हैं- 1. वर्जना का देवता, जो आज भी, गन्ने, टिकोरे, मटर आदि के मामले में लागू है, इसलिए वरुण देवता गौण हो गए, दृश्यपट से आज तक ओझल नहीं हुए हमारी वर्जनाए आज तक काम करती हैं और हैं इतनी प्रबल हैं कि उनके लिए प्राण दिया और प्राण लिया जा सकता है, इनके वरण में कालक्रम से अंतर आता रहा है, जिस के विस्तार में नहीं जाना चाहेंगे।
विष्णु जंगलों की सफाई के चरण का सबसे प्रधान देवता है, जो इन रखें प्राधान्य के साथ, वर्षा जल पर कृषि निर्भरता के साथ, गौण होकर उपेंद्र बनता है, परंतु इंद्र की भूमिका वाणिज्य व्यवसाय को बचाने की तरफ मुड़ जाती है, तो वह राम के रूप में अवतरित होता है। वैदिक इंद्र की सभी भूमिकाएं, उनके सभी संघर्ष, स्थानांतरित होकर राम पर आरोपित हो जाते हैं।
सीता जो ऋग्वेद में भी कृषि की देवी या हलाई ( जोतने से बनी लकीर) के रूप में दिखाई गई हैं, जो खेती के स्वामी इंद्र – इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु के द्वारा ग्रहण की जाती है। बाद में जब इंद्र का स्थान राम ले लेते हैं, उन्हें पुराने विष्णु का अवतार मान लिया जाता है, तो सीता या हराई, राम की पत्नी बन जाती है। राम का अर्थ है किसान, और इसी रूपक के इर्द-गिर्द 360 रानियों या चांद्रवर्ष के दिनों, तीन पटरानियों वर्ष के तीन मौसमों के स्वामी दशरथ, और कुशलता की देवी कौशल्या के पुत्र बनते हैं राम। मैं पुनः इसके विस्तार में नहीं जाऊंगा, इसके कई पहलू हैं।
इतना ही कहना पर्याप्त है कि इंद्र के विषय में जो रूप कथाएं गढ़ी गई थी उनका इंद्र के व्यावसायिक जगत से संबंध के बाद, किसी के एक नए अवतार राम आरोपण हो जाता है। (जारी)