Post – 2019-08-08

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी: #ज्योतिपर्व


पूरी भारतीय संस्कृति. इसका समस्त कर्मकांड, इसका ज्योतिर्विज्ञान, पल-मुहुर्त का विचार, मकर संक्रांति, होली, रामनवमी, दशहरा, दिवाली, गोवर्धन पूजा, नवान्न, समस्त साहित्य कृषि क्रांति से फूटा, जब कि कला-कौशल, चिकित्सा, पशुपालन में किसानी से बचने वाले फिर भी कृषि उत्पाद पाने के लिए अपनी सेवाएँ अर्पित करने वाले आहारसंग्रही और आखेटजीवी चरण से निकले लोगों की भूमिका थी।

हमें इनकी चर्चा में आगे बढ़ने से अपने को इसलिए रोकना पड़ता है कि एक तो हम द्विवेदी जी पर विचार कर रहे हैं न कि कृषिक्रांति पर। कृषि क्रांति का संदर्भ केवल इस कारण आया, कि हमारी समझ से, दीपावली का पर्व आरंभ में दरिद्रता के निवारण और समृद्धि के आगमन से संबंधित था और इसका आयोजन स्थाई निवास अपनाने के बाद आरंभ हुआ; दूसरे कृषि क्रांति के सभी आयामों को समझने की योग्यता मुझ में नहीं है।

फिर भी कुछ प्रतीकों को स्पष्ट करने का प्रलोभन होता है। कृषि क्रांति पश्चिम एशिया में नहीं भारत में संपन्न हुई थी, इसका दावा और प्रमाण प्रस्तुत करने का आग्रह मेरा रहा है। बाद ने प्रख्यात पुरातत्व विद् जैरिज ने लहुरादेवा के साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद घोषित किया था कि दुनिया का पहला किसान भारतीय था The first farmer was Indian. लहुरादेवा के साथ जुड़ा उत्तर पद ‘देवा’ अर्थात् ‘ देवास या देवों की बस्ती जहां ऋग्वेद और ब्राह्मणों में आए उन संकेतों की पुष्टि करता है कि कृषि का आरंभ जिन लोगों ने किया था वे अपने को देव कहते थे (अन्नं वै कृषिः एतत् वा अस्मिन् देवाः संस्करिष्यन्तः पुरस्तात् अन्नं अदधुः तथा एव अस्मिन् अयं एतत् संस्करिष्यन् पुररस्तात अन्नं दधाति- मा.श. 7.2.2 18; सर्वं एतत् अन्नं यती सर्वौषधं सर्वेण एव एनं एतत् अन्नेन प्रीणाति अथो सर्वेण एव एनं एतत् अन्नेन अभिषिञ्चति, 7.2.4.14) वहीं इसका पूर्व पद ‘ लहुरा’ इस बात की पुष्टि करता है कि यह छोटी बस्ती, इससे पहले बसी देवों की किसी पुरानी बस्ती से अलग होने वाले लोगों ने बसाई थी, जो कृषि की और भी दीर्घ प्राचीनता का द्योतक है।

प्राचीन भारत की उपलब्धियों की अवज्ञा औपनिवेशिक हितों से जुड़े हुए लोग लगातार करते रहे और किसी न किसी बहाने आज भी करते हैं, क्योंकि नई रोशनी में उनके जीवन भर का काम अंधकार में चला जाता है।

दूसरे लोग अध्ययनशीलता की कमी के कारण, या तो जानते ही नहीं कि प्राचीन धारणा में कोई परिवर्तन हुआ है, या आदतवश पुरानी कहानियों को दोहराते रहते हैं। कहानियाँ मैं इसलिए कह रहा हूं कि यह प्रस्ताव एक व्यक्ति (चाइल्ड ) की कल्पना की उपज है। पश्चिम एशिया के पौराणिक प्रमाण भी इसी बात की पुष्टि करते हैं की आनंद कानन या ईडन गार्डन पूरब में कहीं था और वहां से निकाले गए आदम मियां पश्चिम में पहुंचे थे।

यह निष्कासन उसी आदिम संघर्ष का परिणाम था जिसमें देवों को कृषि कर्म अपनाने के अपराध में असुरों द्वारा आरंभ में प्रताड़ित किया जा रहा था. और वे इधर उधर भाग कर अपनी जान बचाने का प्रयत्न कर रहे थे परंतु एक बार खेती के लाभ से परिचित होने के बाद वे किसी भी कीमत पर इसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।

यदि कोई दूसरा विद्वान खेती के आविष्कार को भारत से जोड़कर नहीं देख रहा था, गरीबी और अंधकार के अमावस में समृद्धि और प्रकाश की इस उपासना के रूपक को नहीं समझ पा रहा था, तो द्विवेदी जी को इस बात के लिए दोष नहीं दिया जा सकता कि उनका ध्यान इस तथ्य की ओर क्यों नहीं गया।

ऋग्वेद में दसवें मंडल में पाँच ऋचाओं का एक पूरा सूक्त है जिस का विषय है अलक्ष्मीनाशनं, अर्थात् दरिद्रता का विनाश, जिस के कवि हैं शिरिम्बिष्ट भरद्वाज:
अरायि काणे विकटे गिरिं गच्छ सदान्वे ।
शिरिम्बिठस्य सत्वभिस्तेभिष्ट्वा चातयामसि ।। 10.155.1
चत्तो इतश्चत्तामुतः सर्वा भ्रूणानि आरुषी ।
अराय्यं ब्रह्मणस्पते तीक्ष्णशृङ्गोदृषन्निहि ।। 10.155.2
अदो यद् दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् ।
तदारभस्वदुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ।। 10.155.3

मैं इस सूक्त की पहली और तीसरी ऋचा का भाव स्पष्ट करना चाहूंगा। पहली ऋचा में इस दरिद्रता की दानवी को कंगाल बनाने वाली (अरायी), कानी (काणे), विकराल (विकट) के रूप में चित्रित किया गया है। शिरिम्बिठ का अर्थ मोनियर विलियम्स ने बादल किया है, उसके सत्व अर्थात अनुकूल वर्षा से कवि दरिद्रता को कुचलने (चांतने) की बात करता है। ( चाँतना का प्रयोग भोजपुरी में आज भी चलता है । जिस नियम से तमिल में स्वामी> सामी>चामी हो जाता है, उसी के उल्टे नियम से चातना>सातना (सं. सातयति> हिं. सताना), जातना > हिं. जाँत और ज>य के तर्क से > यातना का विकास हुआ।)

तीसरी ऋचा में नदी में ऊपर से बह कर आने वाले और समुद्र पार पहुंचने वाले लट्ठे/ लट्ठों के अट्टाल पर चढ़ कर अपना देश छोड़कर सुदूर विदेश में जाने का आग्रह कर रहा है। इसके विस्तार में जाएं तो वैदिक कालीन लकड़ी के अंतरराष्ट्रीय व्यापार तंत्र को समझना होगा जिसकी अनुमति यहां नहीं है। परंतु यह कहने की छूट है कि हमारी समृद्धि का एक स्रोत लकड़ी का व्यापार था- जो जैसा कि लड़कमंडी, मंडी, काठगोदाम, काठमांडो से प्रकट है, आधुनिक काल तक जारी रहा है।

जिस कारण यह पंक्ति मुझे बहुत आकर्षित करती है वह यह है कि भोजपुरी क्षेत्र में दिवाली की आधी रात के बाद पुराने सूप काे हँसिए से पीटते हुए स्त्रियां घर के कोने कोने में इस्सर पइठें, दलिद्दर निकलें का रट लगाती गाँव के बाहर तक जाती हैं। पीटने से सूप की धज्जियाँ ताे पहले ही उड़ चुकी होती हैं। सूप को फेंक कर, हँसिये को लिए वापस आती हैं। उसे पिछवाड़े की देहरी में डाल देती थीं जो शुद्धि के बाद ही पुनः प्रयोग में आता था। मुझे ऋग्वेद की ऋचा और मेरे बचपन के अनुभवसत्य के बीच इतना सादृश्य दिखाई देता है कि मैं चकित रह जाता हूं।

ऋग्वेद में अंधकार के निवारण और प्रकाश के प्रवेश, प्रकाश की कामना, अंधकार से भय पर इतनी पंक्तियां मिलती हैं जिनका उल्लेख करना उचित नहीं होगा परंतु यह सभी उषा या सूर्य के उदय रात के अंध कार को आग के सहारे के मिटाने से ही संबंधित हैं कहीं भी दिया जलाने का संकेत नहीं मिलता। हडप्पा के अवशेषों में भी कुल्हड़ों के टुकड़ों के अंबार तो पाए गए हैं परंतु दीयों के टुकड़ों के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि प्रकाश वर्ष के रूप में इसे कैसे बनाया जाता रहा होगा।

परंतु ज्योति का संबंध कृषिकर्म से है इसके संकेत मिलते हैं। मनु जो कृषि क्रांति के प्रतीक पुरुष हैं उनके द्वारा मनुष्यों में ज्योति का प्रसार करने के लिए आग की प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है – नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । 1.36.18

ज्योति का एक अनिवार्य संबंध कृषि उत्पादन जनित समृद्धि से है इसकी पुष्टि अन्यत्र भी होती है – यवं वृकेण अश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा । अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ।। 1.117.21
यो वर्धन ओषधीनां यो अपां यो विश्वस्य जगतो देव ईशे । स त्रिधातु शरणं शर्म यंसत्त्रिवर्तु ज्योतिः स्वभिष्ट्यस्मे ।। 7.101.2

द्विवेदी जी का ध्यान इस ओर नहीं जा सकता था। बाधाएं कई तरह की थीं। मान्यताओं की, ऋग्वेद से उनके स्वल्प परिचय की, और साधनों की। यदि मैं कंप्यूटर पर काम न कर रहा होता, चुटकी बजाते जरूरी सूचना केवल ऋग्वेद से ही नहीं दूसरी वैदिक कृतियों से भी जुटाने की सुविधा न होती तो मैं भी इन प्रसंगों को लक्ष्य न कर सका होता।

एक और सच है जिसकी और हमें ध्यान अवश्य देना चाहिए। द्विवेदी जी का समग्र लेखन विद्वान के रूप में उनके परिपक्व हो जाने के बाद का नहीं है। आरंभ से ही उन्हें अपने आर्थिक अभावों की पूर्ति के लिए पत्रों पत्रिकाओं में है यथा आवश्यकता लेख लिखने पड़ते थे। अपने समय को देखते हुए यह बहुत महत्वपूर्ण लेख है। द्विवेदी जी किसी विषय को अपने कल्पना विलास के लिए प्रयोग में लाते हैं, और भारतीय संस्कृति से जुड़े गंभीर प्रश्नों की ओर मुड़ जाते हैं। जैसे ज्योति पर्व वाले अपने लेख में वह लक्ष्मी को देवी मानने के विवेचन में बहुदेववाद की समस्या की ओर बढ़ जाते हैं और सप्रमाण सिद्ध करते हैं कि “वेदों में पाया जाने वाला बहुदेववाद, बहुदेववाद है ही नहीं। और अपने साक्ष्य में मैक्स मूलर का भी प्रयोग कर लेते हैं। वह शोध निबंध नहीं लिखते हैं, ललित निबंध लिखते हैं और अपने समय को देखते हुए अपनी सीमाओं में बहुत आगे हैं और उस समय तक उनसे आगे कोई दूसरा नहीं था। इस दृष्टि से वासुदेव शरण अग्रवाल भी नहीं।