Post – 2019-08-09

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
जाना ताहि विसारि दे, जो दरसन की चाह

द्विवेदी जी को पढ़ते समय ऐसे लोग जिन्होंने उन विषयों या क्षेत्रों का गहराई से अध्ययन नहीं किया है, उनके ज्ञान से अभिभूत हो जाते हैं। जिज्ञासा तक में वृद्धि नहीं होती; उल्टे यह मान लेते हैं इन क्षेत्रों में इससे अधिक कुछ किया ही नहीं जा सकता, इसलिए अपने लिए कोई दूसरा क्षेत्र चुनना होगा। यदि अनुसंधान और ज्ञानसाधना के किसी क्षेत्र का चुनाव उन्होंने किया होता, तो यह उनकी सच्ची गुरु दक्षिणा होती। किसी ने ऐसा नहीं किया, जिसको उन्होंने प्रशिक्षित किया था, जो आजीवन उनकी प्रदक्षिणा करता रहा, उसने भी नहीं।

द्विवेदी जी ज्ञानी थे ही नहीं, ज्ञानी सूचनाओं का गोदाम होता है। अल्पज्ञ उसका जरूरत का माल लेकर अपना कारोबार करना चाहता है। ऐसा उनके सभी शिष्यों ने किया, यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। परंतु अवश्य कह सकता हूँ कि लगभग सभी को उनसे जितना मिला था, उससे निर्मित परिसर के भीतर ही कवायद करते रहे। जब वेद वाक्यं प्रमाणं का उपहास किया जा रहा था, तब गुरु वाक्यं प्रमाणं का दौर आरंभ हो गया। यह ऐसे लोगों के वर्चस्व का युद्ध था, जो गुरु को समझते भी नहीं थे, और गुरु की ज्ञान सीमा से आगे बढ़ना भी नहीं चाहते थे। मार्क्सवाद का मोह गुरु भक्ति के योग से ऐसे ग्रहण में बदल गया जहां दोनों में से किसी के लिए जगह नहीं थी। न राहु, न केतु, न रात-दिवा, न मही न महा, नहिं सूर न चंदा।

दिवेदी जी को किसी ने ज्ञान के पीछे भागते नहीं देखा। उसकी कठोरता-जड़ता का उपहास उनका लेखन है।

वह ज्ञान को पीसकर उसे गारे में बदल देते हैं और ऐसे तिलिस्म का निर्माण करते हैं जो ज्ञान का आभास देता है और ज्ञान का उपहास करता है। मैं स्वयं भी जब ज्ञान का उपहास करता हूं तो इसलिए कि ज्ञानी अपनी अपनी आंख, अपने दिमाग के होते हुए भी उससे काम नहीं लेता, दूसरों के देखे, सुने, गुने और बताए हुए को अपना सत्य मानकर अपने अनुभूत सत्य को देखने से इंकार कर देता है और इसलिए उसकी दशा अनपढ़ लोगों से भी बुरी होती है, जिसके पास सब कुछ अपना होता है दूसरों का जो कुछ होता है वह अपना बन चुका होता है। विचारों का यह साम्य सचेत रूप में पैदा नहीं हुआ, इसकी कुंडली मुझे मालूम भी नहीं, परंतु यदि मेरे मन में द्विवेदी जी के प्रति आदर है, मैं अपने को उनकी परंपरा का वाहक मानता हूं, और अपने समय में वह अपने को जितना अकेला पाते थे, उससे भी अकेला पाता हूं तो इसका रहस्य अपनी आंख को बचाए रखने और पराई आंख को बृहद्दर्शी लेंस की तरह इस्तेमाल करने की जिद के कारण ही है। दुर्भाग्य कि शिष्यों ने इसके महत्व को नहीं समझा और बृहद्दर्शी की जगह अन्यदर्शी लेंस उत्तराधिकार में पाया।

दिवेदी जी बहुत बड़े विद्वान रहे होंगे, पर मेरे गुरु आनंद प्रकाश दीक्षित से बड़े अध्यापक नहीं, जिन्होंने अपने शिष्यों को अपने से छोटा नहीं, बड़ा बनाया। मेरी सीमा यह कि मैं स्वप्नचारी की तरह एक छाया मूर्ति का अनुसरण करता हुआ लंबे समय तक चलता रहा और जब होश आया कि मैं हूं कहाँ तो पाया कि मैं स्वप्न मोहित सा जिस व्यक्ति के पीछे चलता रहा वह तो हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। मैं स्वयं भी चकित था कि मैं किसके पीछे चलता रहा हूं परंतु यह जानकर और भी चकित हुआ कि जो लोग द्विवेदी जी को अपना गुरु मानते थे वे मेरी सबसे अधिक उपेक्षा या विरोध करते रहे और यह जाने बिना कि वे क्या कर रहे हैं, किसका विरोध कर रहे हैं, अपने को जिंदा रखने के लिए किसकी हत्या करना चाहते हैं।

पढ़ने वालों में से किसी को तो यह सवाल पूछना ही चाहिए कि जनाब, आप अपने ऊपर लिख रहे हैं या दिवेदी जी पर ? उनका दुर्भाग्य, क्योंकि समानता यहां भी मिल जाएगी।

कबीर को वह भाषा का तानाशाह कहते हैं, परंतु ज्ञान और भाषा दोनों के तानाशाह वह स्वयं हैं। उनके उपन्यासों के नायकों में आधा वह नायक रहता है, आधा हजारी प्रसाद द्विवेदी। इतिहास के घटनाक्रम को वह अधिक महत्व नहीं देते उनके पीछे के जीवन सत्य को सामने लाना उन्हें अधिक जरूरी लगता है। वह विचारधाराओं और आंदोलनों (जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन की सक्रिय भागीदारी भी आती है), के दबाव में नहीं आते, जो देखते और समझते हैं उसे दो टूक कहने में विश्वास रखते हैं और यहीं उनकी प्रखरता और विश्वसनीयता दोनों के प्रमाण मिलते हैं।

इस बात का अवकाश नहीं है कि हम उनके विचारों को पूरे विस्तार से प्रस्तुत कर सकें। चुने हुए अंशों को भी एकत्र करें तो विदग्ध वाक्यों का का एक पुस्तकाकार संग्रह तैयार हो जाएगा। इसलिए अपने निष्कर्ष के प्रमाण स्वरूप हिंदी भाषा के विषय में उनके तीन लेखों के स्मरणीय वाक्यों को रखना ही पर्याप्त होगा, क्योंकि आज भाषा को लेकर नए सिरे के पुराने प्रश्नों को उठाया जाने लगा है:

आज संसार में जिन भाषाओं ने अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठा पाई है उनके पीछे शोषण और परपीड़न का इतिहास है। दूसरे देशों की समृद्धि का दोहन करके ये जातियां समृद्ध हुईं और अपनी भाषा को केवल भिन्न भिन्न देशों में प्रचारित करने का ही सुयोग नहीं पाया, बल्कि शोषण और दोहन से अर्जित संपत्ति से अपने अपने देश में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के लिए धन भी प्राप्त किए।
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शोषण और दोहन की नीति से समृद्ध बनी हुई भाषाओं में एक प्रकार की चिंतन प्रणाली किसी-न-किसी रूप में अवश्य मिलती है, जो शोषितों को हीन सिद्ध करती है। उन भाषाओं में जो समृद्ध ज्ञान है वह अभिनंदनीय है। लेकिन उनका वह स्वर किसी प्रकार से सहन करने योग्य नहीं है
जिसमें हजारों वर्ष की समृद्ध सभ्यताओं को छोटा करने का स्वर है, और जो दबे हुए लोग थे उन्हें हमेशा दबाए रखने का जहरीला डंक है।
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विकासशील देशों में उनकी भाषाओं का बड़ा प्रभुत्व है। इसलिए उन भाषाओं के माध्यम से वह विकासशील देशों के शिक्षकों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। उनके स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता को कुंठित करना उनका एक शक्तिशाली घातक हथियार है।
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जो भाषा स्वयं अपने देश में समादृत नहीं हो सकी, विश्व भाषा कैसे बन सकती है?
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भारतवर्ष की शक्ति उपरले स्तर के धानिक वर्ग, सामंत वर्ग और प्रशासक वर्ग में नहीं है; वह शक्ति जनता की शक्ति है, साधारण लोगों की शक्ति है, किसान और मजदूरों की शक्ति है।”
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भाषा पहले से बनी हुई है। इसे बनाने का दावा करना दंभ मात्र है।
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कभी कभी मुख-सुख के लिए भाषा में शब्द चल पड़ते हैं जिनका ठीक है परिनिष्ठित संस्कृत रूप कष्टोच्चार्य होता है । … संस्कृत का ज्ञान कम किंतु अभिमान अधिक रखने वाले इन शब्दों से घबराया करते हैं परंतु जिन्हें संस्कृत की परंपरा का ज्ञान है वे इस बात से बिल्कुल चिंतित नहीं होते। संस्कृत के पुराने आचार्यों ने हिरण्मय, पद्मावती आदि रूप तत्काल… भाषा में प्रचलित देखकर मान लिए थे।
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हिंदी के साथ शुरू शुरू में ही संस्कृत को अनिवार्य विषय बनाकर समूचे देश को हिंदी सिखाने का संकल्प बहुत लाभप्रद नहीं होगा। संस्कृत उन लोगों को जानना चाहिए जिन्हें हिंदी में पुस्तक लिखने का कार्य करना है।
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जो लोग हिंदी की उच्चतर उपाधियां लेना चाहें उनके लिए संस्कृत की पढ़ाई अवश्य अनिवार्य होनी चाहिए, नहीं तो उनकी लेखनी ऐसे ऐसे शब्दों को उत्पन्न करेगी जो केवल समस्या की ही सृष्टि करते रहेंगे।
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विदेशी शब्दों को हमारी उच्चारण परंपरा और ध्वनि परिवर्तन के सिद्धांत के अनुकूल हो कर ही आना चाहिए। किसी शब्द का परिनिष्ठित रूप वह है जो हमारे ध्वनि परिवर्तन के सिद्धांतों के अनुकूल है।
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हिंदी की उच्चतर कक्षाओं में संस्कृत की पढ़ाई अनिवार्य होनी चाहिए।
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जो लोग हिंदी भाषा को अपने साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों का माध्यम बना चुके हैं, उन सब की मातृभाषा यही भाषा नहीं है।
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अंग्रेजों को हटाने के लिए बड़ा कष्ट उठाना पड़ा. अंग्रेजी को हटाने के लिए उठना पड़ेगा।
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यद्यपि मैं संस्कृत का प्रेमी हूँ और मानता हूं की अहिंदी भाषियों के द्वारा जो भाषा बोली और लिखी जाएगी वह संस्कृत शब्दों से भरी होगी, वह उसे अधिक समझ भी सकेंगे, पर मेरा यह भी कहना है की राष्ट्रभाषा के साथ हिंदी प्रादेशिक भाषा भी है। इसमें यथार्थ शक्ति तो तभी आ सकती है जब वह जनपदीय बोलियों की प्राणप्रदा शक्ति से तेजस्वी बने।
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शक्तिशाली साहित्यकार शब्दों की नाड़ी पहचानते हैं। …अद्भुत प्रयोगों और गलत सही अर्थों वाले नाना जाति के शब्दों की पलटन खड़ी करके जीवित भाषा के साथ खिलवाड़ न करें।
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हिंदी की वास्तविक शक्ति जनता है। हमें राज सिंहासनों से शक्ति कभी भी नहीं प्राप्त हुई है।
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खड़ी बोली को सार्वदेशिक महत्त्व प्राप्त कराने में मुसलमान शासकों की सेवा अविस्मरणीय है। ऐसा कह कर मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। आज से तीस-बत्तीस वर्ष पहले पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने कहा था कि जिस हिंदी को आजकल हम साहित्यिक हिंदी कहते हैं वह उर्दू से बनाई गई है।
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हिंदू अपने अपने प्रांतों की भाषा को न छोड़ सके। अब तक यही बात है। हिंदू घरों की बोली प्रादेशिक है, लिखा पढ़ी और साहित्य की भाषा हिंदी हो। मुसलमानों में बहुतों के घर की बोली खड़ी बोली है।
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यदि उर्दू हिंदी की एक विशिष्ट शैली है तो हिंदी साहित्य के इतिहास में तथा पाठ्मयक्रम मे उसे पूर्ण रूप से स्थान मिलना चाहिए।

ये प्रश्न आज नए सिरे से विचारणीय हो गए हैं।