Post – 2019-08-10

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
संतुलित दृष्टि

“संतुलित दृष्टि वह नहीं है जो अतिवादिताओं के बीच एक मध्यम मार्ग खोजती है, बल्कि वह है जो अतिवादिताओं की आवेग-तरल विचारधारा का शिकार नहीं हो जाती, और किसी पक्ष के उस मूल सत्य को पकड़ सकती है जिस पर बहुत बल देने और अन्य पक्षों की उपेक्षा करने के कारण उक्त अतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। संतुलित दृष्टि सत्यान्वेषी की दृष्टि है।”
(हजारी प्रसाद द्विवेदी, विचार और वितर्क)

अतिवादिता या एकांगिता केवल आवेग की तरलता से ही नहीं पैदा होती। इसके पीछे एक मनोरचना, एक विचार दृष्टि भी काम करती है जो आवेग और आवेश को तार्किक आवरण देते हुए, जिसे मानती है उसे सही सिद्ध करने के लिए कटिबद्ध रहती है। इस समझ के पीछे यह हीनता-बोध काम करता है, जब तक दूसरों को मिटा न दिया जाय, तब तक जिसे हम महत्त्व देते हैं, उसकी महिमा स्थापित नहीं हो सकती। यह कबीलाई एकेश्वरवादी मानसिकता है, अवैज्ञानिक है, परंतु इसने विज्ञान के भीतर भी अपना घर बना लिया है। सर्वोत्तम की तलाश, सबसे अच्छी उपज देने वाले बीजों और नस्लों की तलाश, जिसे नाजी महामानव की तलाश जैसा खतरनाक पाया तो जा सकता है, परंतु कृषि, वानिकी और पशुपालन में हम इसी के पीछे चलते रहे हैं।

अपराध विज्ञान का नहीं था, वैज्ञानिक भी जिन दबावों में काम करते हैं, उसमें विज्ञान वैज्ञानिक नहीं रह जाता, मानववादी नहीं रह जाता, विज्ञानवादी और मानवताद्रोही हो जाता है। उसे साधन और सुविधाएं उपलब्ध कराने वाला उसे अपना सेवक बनाकर रख देता है। जब तक होश आए, हम असंख्य मूर्खताएं करने के बाद, उस पिछली मंजिल पर लौटना चाहते हैं जहां से रास्ता भूले थे तब तक वह बर्बाद हो चुका होता है।

बीजों के, वनस्पतियों के और प्राणियों के, वैविध्य को मिटाने के बाद हम विविधता की ओर लौटते हैं जहां नकली उत्पादन के परिणाम स्वरूप नकली जनसंख्या वृद्धि के पालन की क्षमता ही नहीं रहती।

किसान जिन बीजों का इस्तेमाल अधिक उत्पादन के लिए करता है, उसके लिए जितने कीटनाशकों, जितने पानी, जितने आधुनिक यंत्रों और उनको चलाने के लिए जितनी देखभाल, मरम्मत और जितने डीजल की जरूरत होती है उसमें किसान के बढ़े हुए उत्पादन का सारा का सारा, और पहले की कमाई का बहुत कुछ चला जाता है। गौर कीजिए खेती की ये मशीनें खाती तो इतना हैं, परंतु दूध देना तो दूर रहा, गोबर तक नहीं देती है, जिसके अभाव में धरती ऊसर क्षेत्र में बदलती जा रही है।

अनाज अधिक पैदा करने के बाद भी किसान अपनी जमीन से पहले जितना पाता था, उसे उससे भी कम मिलने लगा है। पुरानी खेती के दिनों में किसान बहुत सुखी नहीं था, परंतु इतना दुखी नहीं था कि पूंजीवाद जनित अपराधतंत्र का हिस्सा बनकर, अपनी पुरानी गरिमा को खोकर, आत्महत्या करने को बाध्य हो जाए। कोई इस बात का आंकड़ा पेश करें कि जब से तथाकथित वैज्ञानिक खेती आई है उससे पहले क्या कभी किसान आत्महत्या करते थे और उसके बाद कितने किसान आत्महत्या करने लगे और यह भी समझाए कि आत्महत्या करने वालों में केवल वे ही क्यों होते हैं, जिन्होंने सूदखोरी करने वाले महाजन से नहीं, बैंकों से कर्ज लिया था।

मैं दुबारा इस विषय पर सोचना चाहूंगा, परंतु इस समय ऐसा लगता है कि अपनी संपन्नता के बावजूद, जैसा कि रामविलास जी ने सोच लिया था, भारत पूंजीवादी देश बन सकता था, वह सही नहीं है। उसका पूंजीवादी बनना संभव नहीं था। बहुदेववादी सोच में अपने उत्थान के लिए दूसरों को मिटाना गर्हित है। अपनी सर्वोपरिता की भूख में जितनी भी क्रूरता, जितना भी विध्वंस करना पड़े, सब को सही मानना उसी एकेश्वरवादी सोच का परिणाम है जो यथार्थ से कट कर इससे उन्मत्त लोगों को कुछ देर के लिए इस फीटिश (प्रतीक पूजा) से ग्रस्त रख कर अपराधी या कंगाल बना कर छोड़ देता है। एकेश्वरवाद, महामानववाद, पूंजीवाद, साम्यवाद एक ही सोच की अलग अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।

हम तो साहित्य पर बात कर रहे थे। इस महाजाल में क्यों फँस गए ? इसे समझाने का समय नहीं है। कल बात करेंगे।