Post – 2019-08-11

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
संतुलित दृष्टि -2

हम जितने अदृश्य बंधनों में सोचते और काम करते हैं, यदि उनके विषय में पूरी तरह सावधान होना चाहें, तो न तो सोच सकते हैं, न कुछ कर सकते हैं। कभी कभी जब उनमें से किसी का ध्यान आता है तो ही हमें आश्चर्य होता है कि क्या हमारे विचारों और कार्यों में इसकी भी सशक्त भूमिका है। केवल अनुभव है जो सत्य होता है।

न तो हम अपने विचारों में संतुलित रह सकते हैं, न निष्पक्ष। प्रामाणिक और विश्वसनीय होने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं। दिवेदी जी भी अपने लेखन में यही करते हैं नहीं तो वह जिस पर मुग्ध हो जाते हैं, उसमें अपने कौशल से इतना सौंदर्य पैदा कर देते हैं कि उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। ऐसा करना स्वाभाविक है। कार्लाइल ( के शब्दों में अपनी बात कई टुकड़ों में कहें तो:
He who can not exaggerate is not qualified to utter truth. No truth we ever think of was ever expressed but with this sort of emphasis, so that for the time being there seemed to be no other.

कबीर नहीं थे तो नहीं थे, अब हैं तो दूसरा कोई नहीं। कबीर के मामले में तो यह जरूरी भी था: you must speak loud to those who are hard of hearing. उनकी जैसी उपेक्षा हुई थी, उसमें उनको उचित स्थान देने के लिए इससे अच्छा कोई तरीका नहीं हो सकता था। हु

कार्लाइल के इसी क्रम में व्यक्त किए गए एक दूसरे विचार को भी हम आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते :
There is no danger in sort of saying too much in praise of one man, provided you can say more in praise of a better man.
द्विवेदी जी से, तुलसीदास के संदर्भ में ऐसा ही हुआ।

आगे की एक पंक्ति पर ध्यान a true history properly begins when some genius arises who can turn the dry and musty records into poetry. और भारतीय परंपरा में यह रोचक इतिहास पाँच बार आरंभ हुआ। पाँच हम इसलिए कह रहे हैं, कि प्रथम के पीछे का और उसके बाद के अंतरालों का हमें सही ज्ञान नहीं है। पहला ऋग्वेद के समय में आरंभ हुआ था। दूसरा ऋग्वेद के भीतर मधुविद्या के विकास के साथ और वैदिक कर्मकांड तथा वर्ण विभाजन के विरुद्ध उपनिषद काल में; तीसरा सिद्धों -नाथों और संतों, विशेषतः कबीर के ओजस्वी स्वर में; चौथा तुलसीदास और केवल तुलसीदास में। पांचवा आज चल रहा है। इसे परिभाषित करना बाकी है।

द्विवेदी जी अपने समय तक के आंदोलनों में से कितनों को समझते हैं, यह मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। कुछ को न वे समझ पाए, जिनकी वह प्रशंसा करते थे, न द्विवेदी जी, दोनों अपने विश्वास को शक्ति देने के लिए जरूरत पड़ने पर इन सब का नाम लेते हैं, यह भरोसा नहीं पैदा कर पाते इनमें से किसी को ठीक से समझते भी हैं या नहीं।

द्विवेदी जी निंदा किसी की नहीं करते। उनकी भी नहीं जिनकी आलोचना करते हुए उन को तार-तार कर देते हैं। रामचंद्र शुक्ल इसी श्रेणी में आते हैं। वह शुक्ल जी को बड़े आदर से याद करते हैं:

हिंदी साहित्य का सचमुच इतिहास पंडित रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में सन 1929 ई. में प्रस्तुत किया था।… शुक्ल जी ने प्रथम बार हिंदी साहित्य के इतिहास को कविवृत्त-संग्रह की पिटारी से बाहर निकाला। पहली बार उसमें श्वासोच्छ्वास का स्पंदन सुनाई पड़ा। त्रुटियाँ इसमें भी है। वृत्त-संग्रह परंपरा समाप्त नहीं हुई है और साहित्य को मानव समाज के सामूहिक चित्र की अभिव्यक्ति के रूप में ना देख कर केवल शिक्षित समझी जाने वाली परिवर्तन विवर्तन के निर्देशक के रूप में देखा गया है। शुक्ल जी की यह विशेष दृष्टि थी और इस दृष्टि-भंगिमा के कारण उनके इतिहास में भी विशिष्टता आ गई है। (हिंदी साहित्य का आदिकाल, ग्रंथावली, 3 .546)।

“इस प्रकार सन् 1929 ई. में पहली बार शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों के अनुसार होने वाले परिवर्तन आधार पर काल विभाजन का प्रयास किया गया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने अपने इतिहास के पुस्तक रूप में प्रकाशित प्रथम संस्करण में आदिकाल के भीतर अपभ्रंश की रचनाओं को भी ग्रहण किया था। इसके पूर्व ही प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘नागरी-प्रचारिणी पत्रिका’ के नवीन संस्करण भाग 2 में बहुत जोर दे कर बताना चाहा था की अपभ्रंश को पुरानी हिंदी ही कहना चाहिए। वही, 546-47

द्विवेदी की इसके आगे शुक्ल जी की आदिकाल संबंधी जानकारियों और सीमाओं को पूरे अधिकार और जरूरी रियायत के साथ उजागर करते हैं:
“इस प्रकार सन् 1929 ई. में पहली बार शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों के अनुसार होने वाले परिवर्तन आधार पर काल विभाजन का प्रयास किया गया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने अपने इतिहास के पुस्तक रूप में प्रकाशित प्रथम संस्करण में आदिकाल के भीतर अपभ्रंश की रचनाओं को भी ग्रहण किया था। इसके पूर्व ही प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘नागरी-प्रचारिणी पत्रिका’ के नवीन संस्करण भाग 2 में बहुत जोर दे कर बताना चाहा था की अपभ्रंश को पुरानी हिंदी ही कहना चाहिए। वही, 546-47

और फिर, “ शुक्ल जी ने गुलेरी जी के अध्ययनों का उपयोग किया परंतु व्यापक दृष्टि रखते हुए भी उन्हें उन रचनाओं को देखने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ जो गुलेरी जी से छूट गई थी।”
“ शुक्ल जी के मत से 1050 ( सन् 993) संवत 1375 (1318) तक के काल को हिंदी साहित्य का आदिकाल कहना चाहिए। जीने इस काल के देश भाषा आपके की 12 पुस्तकें साहित्य के इतिहास में विवेचन योग्य समझी थी। उनके नाम है (1) विजयपाल रासो; (2) हम्मीर रासो; (3) कीर्तिलता; (4) कीर्तिपताका; (5) खुमान रासो; (6) बीसलदेव रासो; (7) पृथ्वीराज रासो; (8) जयचंद्र प्रकाश; (9) जयमयंक जस चंद्रिका; (10) परमाल रासो; आल्हा का मूल रूप; (11) खुसरो की पहेलियां और (12) विद्यापति पदावली। “इन्हीं 12 पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक आदिकाल का नाम वीरगाथा काली रखा जा सकता है।”
….
इधर हाल की खोजों से पता चला है कि जिन 12 पुस्तकों के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल की प्रवृत्तियों का विवेचन किया था, उनमें से कई पीछे की रचनाएं हैं, और कई नोटिस मात्र हैं, और कई के संबंध में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनका मूल रूप क्या था। वही, 555-56

….स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदंत, और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य-क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते।

ये केवल आरोप नहीं है। द्विवेदी जी प्रत्येक पुस्तक की बारीकी से जांच करते हैं, पिशेल, ब्यूलर, मुनि जिनविजय, नाहटा, मेनारिया, गुलेरी जी, मोतीचंद, राहुल सांकृत्यायन आदि की खोजों, मान्यताओं, और निर्णायक प्रमाणों के आधार पर एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, जिसे उनके नहीं, मेनारिया जी के शब्दों में ही रखें तो, “इसके अतिरिक्त ये रासो ग्रंथ जिनको वीर गाथाएं नाम दिया गया है और जिनके आधार पर वीरगाथा काल की कल्पना की गई है राजस्थान के किसी समय विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते।… यदि इनकी रचनाओं के आधार पर कोई निर्णय किया गया है तब तो वीरगाथा काल राजस्थान में आज भी ज्यों का त्यों बना है।”

यहां केवल नाम ही नहीं बदलता है, साहित्य को देखने-समझने का नजरिया भी बदलता है। क्षणमात्र को लगता है, कभी रामचंद्र शुक्ल नाम के हिंदी साहित्य के एक इतिहासकार हुआ करते थे, अब नहीं रहे। अब केवल द्विवेदी जी हैं।

हमारी समस्या यहीं से आरंभ होती है कि क्या द्विवेदी जी ने जिन लोगों के विषय में लिखा है वे अपने को, अपने समय को जानते थे या नहीं? द्विवेदी जी स्वयं उनको और उनके कृतित्व को सही परिप्रेक्ष्य में रख पाए या नहीं। सांप और सीढ़ी का खेल ज्ञान जगत का सबसे रोचक खेल है।