#कबीर# की समझ (1 )
‘क्या आप रामचंद्र शुक्ल को पढ़कर कबीर को समझ सकते हैं?’
उत्तर मिलेगा, ‘नहीं।’
‘क्यो?’
उत्तर मिलेगा, ‘क्योंकि उन्होंने कबीर ही नहीं, सभी संत कवियों को ज्ञानमार्गी खाते में डाल कर उनके कवि पक्ष की उपेक्षा कर दी।’
‘यदि उपेक्षा कर दी होती तो साहित्य के इतिहास में उनको स्थान क्यों दिया होता? यदि ज्ञान मार्गी नहीं होते तो द्विवेदी जी को इतना सारा अध्ययन संप्रदायों और पंथों की मान्यताओं पर क्यों करना पड़ा, जिन को समझने चलें तो काव्य का लालित्य धरा का धरा रह जाएगा। बचा रह जाएगा वह नीरस सांप्रदायिक ज्ञान जिसका किसी संप्रदाय के भीतर जो भी महत्त्व हो, सामान्य जीवन जीने वालों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है। सांप्रदायिक ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए कोई व्यक्ति साहित्य नहीं पढ़ता। यदि किसी साहित्य को समझने के लिए, इतने अधिक ज्ञान की जरूरत हो, तो क्या उसे ज्ञान साहित्य नहीं कहा जा सकता? विचारधारा को इतना अधिक महत्व देना कि साहित्य विचारधारा का दृष्टांत पेश करने वाला ‘आका, हाजिर है’ कहने वाला जिन बन जाए, जो मार्क्सवाद के दौर में भी हुआ, क्या इसे ज्ञान साहित्य नहीं कहा जा सकता अर्थात वह साहित्य जिसमें विचार प्रधान है सौंदर्य – यह तो विलासिता या ऐयाशी का ही एक रूप है- गौण?’
आप इस तर्क पर विस्मित होकर ऐसी बात करने वालों वाले को सिरफिरा मान सकते हैं। अपने को कभी गलत न मानने वाले, अपने को सही बनाए रखने के लिए, दूसरों को सिरफिरा सिद्ध करने को बाध्य होते हैं। कारण सौंदर्य की ऐसी कठोर परिभाषा करने वाले, सौंदर्य को उत्पादक श्रम से हेय बताते हुए सभी कलाओं, क्रीड़ाओं, यहां तक कि उच्च शिक्षा और चिंतन को भी विलासिता करार देते हुए मनुष्य को यंत्रमानव बनाकर उस समय से रखने का प्रयत्न करते आए हैं जब यंत्र मानव की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
संभव है कि इस चक्रव्यूह में घिर जाने के बाद, सही उत्तर तलाशने में समस्या आए और आप करवट बदल कर, रटा हुआ जुमला पेश कर दें कि ‘क्या कोई ऐसा साहित्य भी हो सकता है जिसमें विचार ही न हो?’
प्रश्न करने की उसकी बारी थी। जवाब आपको देना होगा। आप का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं कहना चाहता हूं कि सूखे अनाज में भी नमी है, तेल है, पर हम इसे सूखा कहते हैं, भीगे हुए अनाज में भी नमी है और कुछ और सोखने की ताकत भी है, इसलिए इसे कहते हैं कि यह पूरी तरह सराबोर नहीं है। प्रश्न होने या न होने का नहीं है। प्रश्न अनुपात का है। यदि कबीर ज्ञान मार्गी नहीं है तो द्विवेदी जी को उनको समझने के लिए इतनी नीरस, सांप्रदायिक ज्ञान से भरी हुई भूमिका प्रस्तुत करने की क्या जरूरत थी?
एक दूसरी कसौटी रचना की विरासत से संबंध रखती है। जिनके बीच कोई साहित्य प्रचलित है वे उसके किस पक्ष को महत्त्व देते हैं ? ज्ञान या सौंदर्य? इसका उत्तर मैं नहीं दूंगा। दूँ तो भी व्यर्थ जाएगा। आप उसे नहीं मान सकते जो तर्कसम्मत है, क्योंकि आप सही गलत का अपना चुनाव पहले कर चुके हैं और बाकी सूचनाएं आपकी अपनी मान्यताओं के अनुसार मामूली फेरबदल तक सीमित रह जाती हैं।
इस तर्क को आप मुझ पर भी लागू कर सकते हैं। कह सकते हैं कि मैं रामचंद्र शुक्ल के प्रति इतनी अधिक सहानुभूति रखता हूं कि उनके बचाव के लिए मैंने यह नायाब तरीका तलाश लिया।
आरोप गलत हो तो भी मैं इसे सच मानना चाहता हूं। यह एक जरूरी काम है। जब से रामचंद्र शुक्ल पर बेभाव की पड़ने लगी तब से लोगों ने दुबारा यह सोचने का भी कष्ट नहीं किया कि वह किस अनुपात में सही और किस अनुपात में गलत थे। मेरी आपत्ति अनुपात को लेकर है, निर्णय को लेकर नहीं।
मेरा भी अंतिम निर्णय यही है कि रामचंद्र शुक्ल के माध्यम से कबीर को नहीं समझा जा सकता। एक बार फिर लंगड़ाते हुए रामचंद्र शुक्ल के पास खड़ा होने का मन करता है। क्या उनका इतिहास आलोचना ग्रंथ था। कहते हैं कि वह पूरी तैयारी से कबीर पर लिखने का मन बना रहे थे और उनका इरादा पूरा होता इससे पहले ही वह चल बसे।
जो लिखने से रह गया उसका लाभ किसी को नहीं दिया जा सकता। ऐसा करने चले तो आवेदकों की भीड़ लग जाएगी। इसलिए यह मान सकते हैं आचार्य शुक्ल के मूल्यांकन के सहारे कबीर के साहित्यिक, वैचारिक और आंदोलनकारी व्यक्तित्व को नहीं समझा जा सकता।
परंतु क्या दिवेदी जी के माध्यम से कबीर को समझा जा सकता है? इसका उत्तर होगा, ‘हां, क्योंकि दिवेदी जी के बाद जो कबीर का नाम जानते थे, वे कबीर के नाम से जाने लगे। दिवेदी जी के बाद तुलसीदास हाशिए पर चले गए, कबीर को पहली बार केंद्रीयता मिली।’
आपत्ति मेरी यही से आरंभ होती है, क्या, यदि मैं हूं तो तू नहीं, यदि तू है मैं नाहिं’, कबीर को समझने के लिए जरूरी है? यह सवाल पैदा होता है कि क्या कबीर यह समझते थे कि समाज को कैसे बदला जा सकता है?
मैं और स्पष्ट करते हुए कहना चाहता हूं कि जिसे बदलना चाहते थे, जिस सांस्कृतिक पर्यावरण में परिवर्तन लाना चाहते थे, उसे समझने समर्थ थे या नहीं?
मेरा उत्तर है, ‘ नहीं, क्योंकि आंदोलनकारियों की इस प्रवृत्ति से हम अवगत हैं कि वे अपने लक्ष्य से इतने अभिभूत होते हैं कि न तो यह समझना चाहते हैं कि जिस समाज को वे बदलना चाहते हैं वह क्या है? न ही जैसे बदलना चाहते हैं उसका सही तरीका अपना पाते हैं। उस अभियान में साहित्य और कला की भूमिका कितनी है और उस भूमिका को निभाने के बाद वह अपनी स्वायत्तता को बचाए रखने में वे समर्थ होता है या नहीं, इस पर कभी विचार नहीं किया गया।
रामचंद्र शुक्ल के इतिहास के विषय में, जहां तक मेरी जानकारी है, शुक्ल जी ने अपना इतिहास लिखने से पहले न तो अपने कार्य क्षेत्र की उपेक्षा की, न उसमें शिथिलता दिखाई, न ही वह अपनी बात को सही ढंग से रख पाए। रामचंद्र शुक्ल का इतिहास नामवृत्त की परंपरा से आगे बढ़ने के क्रम में नहीं लिखा गया था। जैसे द्विवेदी जी विंटरनिट्ज के भारतीय साहित्य के इतिहास के पैटर्न पर हिंदी में एक इतिहास लिखना चाहते थे, उसी तरह शुक्ल जी का इतिहास अंग्रेजी में लेगी और कजामियाँ द्वारा लिखे गए इतिहास के पैटर्न पर लिखा गया, हिंदी का इतिहास था, जिसमें कवियों का उल्लेख है, उन पर आलोचना है, प्रवृत्तियों का निरूपण है। रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि की कुछ सीमाएं हैं, वे सीमाएं द्विवेदी जी सहित बाद के सभी इतिहासकारों की हैं और आगे भी रहेंगी। इन कमियों को समझने और दूर करने के क्रम में नई कमियाँ पैदा होंगी, पर इसके साथ हमारी समझ में भी निखार आएगा। ज्ञान की उपलब्धि उसकी अपूर्णता है।