#कबीर# की समझ (2 )
मेरे मन में रामचंद्र शुक्ल, परशुराम चतुर्वेदी, गुलेरी जी, राहुल जी, द्विवेदी जी और रामविलास शर्मा के प्रति गहरा सम्मान उनके अधिक सही या गलत होने के कारण नहीं है अपितु इसलिए कि वे अध्यवसायी थे, समर्पित भाव से अपने समाज, भाषा और साहित्य की श्रीवृद्धि करना चाहते थे। कौन सही है? कितना सही है? यह निर्णय वहां भी मेरे लिए महत्व नहीं रखता जहां वे गलत सिद्ध होते हैं। मेरे विचारों को कोई गलत सिद्ध करे, इसी में उपलब्धि मानूँगा, क्योंकि उसके साथ हमारी जातीय है समझ में और स्पष्टता आएगी।
द्विवेदी जी ने कबीर को समझने के लिए सिद्धों और योगियों के साहित्य का असाधारण परिश्रम से अध्ययन किया। परंतु उस स्रोत ग्रंथ की ओर उनकी दृष्टि ही नहीं गई जो कबीर की कविता में रक्त-संचार करता है। यह है ऋग्वेद। ब्रह्म और माया, आत्मा और जीवात्मा खेल, अस्थि पंजर को एक पिंजड़े रूप में कल्पित करना, आत्मा को हंस के रूप में कल्पित करना, कभी कभी पंजर की जगह वृक्ष का आ जाना, जीव और आत्मा के दोनों पक्षियों का उस पर निवास करना, वैकल्पिक रूप में हिरण का रूप ले लेना और कबीर के प्रतीक विधान में इनका स्थान पाना मात्र संयोग नहीं है।
यदि विस्तार से विवेचन करना ही था तो इनका होना चाहिए था। परंतु द्विवेदी जी श्रुति के नाम पर उपनिषदों से पीछे की किसी रचना से अवगत दिखाई नहीं देते। उपनिषद के लिए वेदांत शब्द का प्रयोग किया जाता है। श्रुति का नहीं।
श्रुति को खींचतान कर चारों वेदों तक लाया जा सकता है । वेदांगों, ब्राह्मणों, आरण्यकों के लिए भी नहीं। श्रौत साहित्य में वेद की परंपरा में आने वाली बाद की कृतियों को भी स्थान अवश्य दिया जाता रहा है। द्विवेदी जी को पहली बार मैंने उपनिषदों के लिए श्रुति शब्द का प्रयोग करते देखा और यह प्रयोग बार बार किया गया है, इसलिए द्विवेदी जी की बुद्धि पर आशंका तो कर ही नहीं सकता, अपनी ही बुद्धि पर आशंका होती है। ब्रह्म पर विचार करते हुए वह लिखते हैं:
“श्रुतियों के परिशीलन से स्पष्ट जान पड़ता है कि ऋषियों के मस्तिष्क में ब्रह्म के दो स्वरूप थे: एक गुण, विशेषण, आकार और उपाधि से परे; और दूसरा इन सब तुमसे युक्त अर्थात सगुण, सविशेष, साकार और सोपाधि। पहला परब्रह्म और दूसरा अपरब्रह्म। …. उसे श्रुतियाँ बार-बार इस प्रकार प्रकट करती है: ‘वह मोटा भी नहीं, पतला भी नहीं, छोटा भी नहीं, बड़ा भी नहीं, लोहित भी नहीं, स्नेह भी नहीं, छायायुक्त भी नहीं, अंधकार भी नहीं, वायु भी नहीं, आकाश भी नहीं… इत्यादि’ ( बृहदारण्यक 3.8.8) 4/276.
सर्वाधिक प्रचलित शब्द है सत् और चित्। इन दो शब्दों से वेदांती बताना चाहते हैं की ब्रह्म है (सत्) और वह चैतन्य रूप है (चित्)।(4/276-77) ….इन दो के अतिरिक्त एक और भावरूप भी परवर्ती वेदांत ग्रंथों में महत्वपूर्ण स्थान अधिकार कर सका है। 4/277….
लेकिन श्रुति मी ब्रह्म को और भी दो प्रकार से कहा गया है: (1) वह सब कुछ करने वाला है सब कामनाओं से भरा पूरा है, सब रसों का आश्रय है, सर्वगंधमय है, इत्यादि (छांदोग्य 3.14)।
कभी कभी ब्रह्म मैं श्रुति में छोटे से छोटा अंगुष्ठमात्र पुरुष, हृदयकमलवासी, और वामन आदि भी कहा गया है। ऐसी स्थलों पर अभिप्राय जीवात्मा से होता है। वहीं।
इससे भी अधिक विचलित करने वाली बात यह है न उनकी ब्रह्म की अवधारणा के विकास को समझ पाता हूं न उनके द्वारा प्रस्तुत दूसरी अवधारणाओं को। यह तो समझ में आ ही नहीं सकता कि ब्रह्म पर विचार हो और उसमें नासदीय सूक्त और पुरुष सूक्त तक की चर्चा न हो। सत् की चर्चा हो और एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति की याद न आए। द्विवेदी जी के प्रगाढ़ अध्ययन को देखते हुए यह अवहेलना अविश्वसनीय लगती है इसलिए अपने को समझाने प्रयत्न करता हूं कि जब चर्चा कबीर की हो रही हो तो वेद की बात कैसे आ सकती है जिसका वह निषेध करते थे। परंतु कबीर में वेद और उपनिषद दोनों उसी तरह विद्यमान है जैसे तुलसी में। यह विद्वानों का काम है कि वे इस बात की व्याख्या करें कि निरक्षर या नाम मात्र को शिक्षित कबीर की पहुंच वेद तक कैसे हुई। वेद से अछूते सिद्ध भी नहीं हैं जो वेद के ज्ञान से अपनी साधना को ऊँचा सिद्ध करते हैं और यह भी नहीं जानते कि स्वयं वैदिक समाज भी असाधारण सिद्धियों का दावा करने वालों को उसी श्रद्धा-विस्मित भाव से देखता था :
केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी ।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥१॥
मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला ।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥२॥
उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम् ।
शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ॥३॥
अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत् ।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः ॥४॥
वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः ।
उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः ॥५॥
अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन् ।
केशी केतस्य विद्वान्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥६॥
वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्नमा ।
केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह ॥७॥
यदि दिवेदी जी का ऋग्वेद से परिचय होता तो वह भले उपेक्षा कर जाते, व्योमकेश शास्त्री “त्रयः केशिनः ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपते एकः एषाम् । विश्वम् एकः अभि चष्टे शचीभिः ध्राजिः एकस्य ददृशे न रूपम् ॥ की अनदेखी न करते।
लंबे बाल बढ़ाए, नशे में धुत, उन्मत्त से दीखने वाले चमत्कारी और समाज से कुछ कट कर रहते हुए भी समाज पर अपना रौब जमाने वाले ‘साधकों’ की वैदिक समय में भी कमी नहीं थी। लंबे केश रखने का अलग चमत्कार था, और यह अन्य रूपों में भी इसलिए लोक श्रद्धा का विषय बन गया कि अग्नि की ऊपर उठती ज्वालाओं को भी उसके केश के रूप में कल्पित किया गया, जिससे हिरण्यकेशी जैसे नाम रखे जाने लगे। सूर्य अपनी किरणों के कारण, वायु अपने प्रवाह के कारण छितराए हुए बालों वाले अघोरी की तरह चित्रित किए गए।
वैदिक प्रभावविस्तार के साथ केवल भाषा का ही नहीं, जीवन शैली और चमत्कार शैली का भी विस्तार हुआ था, जिसके विस्तार में जाने की छूट तो यहां नहीं है, परंतु संक्षेप में कहे तो अपना प्रभाव जमाने के लिए एक बार मोहम्मद साहब ने भी अपने बाल इसी तरह बढ़ाएं थे, और सुगंधि और आंजन का सहारा लिया था। सूफियों के प्रिय गेसूदराज (पुरुकेशिन जो पुलकेशिन के नाम से इतिहास में भी जगह बना चुका है) का संबंध है।
हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि वैदिक समाज की मुख्यधारा जादू टोने और चमत्कार का विरोध करती थी। चमत्कार के बल पर जीने वाले समाज-विमुख पलायनवादियों के प्रति उसके मन में ठीक वैसी ही जुगुप्सा थी, जैसी तुलसी के मन में सिद्धों, योगियों, नाथों, कबीरपंथियों के प्रति थी।
विडंबना यह है कि दिवेदी जी समाज विमुख और परजीवी तांत्रिक योगियों और सिद्धों के साथ खड़े दिखाई देते हैंं, जबकि तुलसी समाज की उस मुख्यधारा के साथ जो जादू (यातु), तंत्र-मंत्र (कृत्या) की घोर निंदा करती है, जो यातुधान शब्द में मूर्त है।
योग की जड़ें भी ऋग्वेद तक जाती हैं। परन्तु इनकी अर्थछटाएँ और भी रोचक हैं।
हम सामान्यतः यह मान लेते हैं कि रामचंद्र शुक्ल, पुरातन पंथी थे जबकि द्विवेदी जी प्रगतिशील। कबीर प्रगतिशील, तुलसी प्रतिक्रियावादी या कम से कम पुरातनपंथी। इन आरोपों में सचाई का आभास तो है ही। कोई यह दावा नहीं कर सकता की तुलसीदास परंपरावादी, यथास्थितिवादी, और वर्णवादी नहीं थे और रामचंद्र शुक्ल स्वयं भी इन सीमाओं से ऊपर थे, जबकि कबीर और द्विवेदी जी अपने सामाजिक दृष्टिकोण में क्रांतिकारी या कम-से-कम प्रगतिशील दिखाई देते हैं। परंतु एक सवाल हमारी इस समझ में सुधार की मांग करता है। अपनी प्रगतिशीलता के लिए दोनों किन हथियारों या औजारों का उपयोग करते हैं। तंत्र, मंत्र, योग जिसमें विचित्रता तो है, समाज व्यवस्था से विद्रोह भी है, उसकी जड़ता पर प्रहार भी है, परंतु जो भी फल सामने आते हैं वे हैं अधिक प्रतिक्रियावादी, पलायनवादी, अंतर्मुखी, समाज-विमुख और अराजक।
अधिकांश विद्रोह उसी की गोद में बैठकर हुए हैं जिससे विद्रोह किया जा रहा है और एक लंबे आभासिक अलगाव के बाद उसे विकृत करने के बाद उसी में वापस भी आते हैं।
अंग्रेजी के कवि पोप की याद आती है जिसे तुकबंदी करने पर बाप पिटाई करता है तो वह तुकबंदी न करने की कसम भी तुकबंदी करते हुए ही खाता है :
Papa papa pity take
I will no more verses make.
आपके नहीं करने या विद्रोह करने से कुछ नहीं होता। नारे से नहीं परिणाम से ही प्रगतिशीलता की पहचान की जा सकती है। जिसे हम प्रगतिशील आंदोलन के नाम से जानते हैं उसमें अपने सोचने और बोलने तक की स्वतंत्रता से हाथ धोना पड़ता है।