#कबीर# की समझ (3)
वेद और लोक
वेद को समझे बिना न भारतीय संस्कृति को समझा जा सकता है, न इतिहास को, न उन भाषाओं को जिन्हें भारत में आर्यभाषा-परिवार में रखा जाता है, और भारत से बाहर भारोपीय परिवार की भाषाओं के रूप में। विश्व- सभ्यता के उदय और विकास को पूरी तरह समझने में ऋग्वेद की भूमिका कामचलाऊ ही है, परंतु इसके अभाव में उसे समझा ही नहीं जा सकता क्योंकि उसी में इस बात के संकेत भी हैं कि इसका इतिहास और पीछे जाता है। पीछे के वे चरण ब्राह्मणों और संहिताओं में अपेक्षाकृत अधिक विस्तार से अंकित मिलते हैं जो वेदों के भौतिक पक्ष को समझने के प्रयत्न में लिखे गए लगते हैं।
संस्कृत को वैदिक से अलग करने के लिए जाने किस ‘समझदार’ ने इसे लौकिक संस्कृत नाम दे दिया, जब कि यह सर्वविदित है कि संस्कृत लोकविमुख भाषा थी जब कि वैदिक सामाजिक व्यवहार की भाषा थी, यद्यपि इसकी स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी आज की हिंदी या व्यापक संपर्क के लिए काम में आने वाली दूसरी प्रादेशिक भाषाओं की है। इस बहुस्तरीय समाज के लोग अपने-अपने दायरे में अपनी बोलियों का व्यवहार करते थे, और उससे बाहर, दूसरों से संपर्क के लिए वैदिक का व्यवहार किया जाता था।
सधुक्कड़ी भाषा और वैदिक
पाणिनी ने वैदिक भाषा के लिए आर्ष-भाषा का प्रयोग किया था। यह आर्ष भाषा नहीं थी जैसा कि वह अपनी सीमाओं के कारण समझ बैठे और संभवतः ऐसी ही समझ से वैदिक को ऋषियों की भाषा मानकर संस्कृत को साधारण जनों की भाषा मानते हुए इसे लौकिक संस्कृत की संज्ञा दी गई। वेद आप्त हैं, ऋषियों के कथन आप्त हैं, उनकी भाषा भी आप्त होनी चाहिए। इसके होते हुए भी उसमें इतनी कमियां पाणिनि ने स्वयं क्यों गिना दीं कि इसमें अनियमितता, प्रयोगों की बहुलता है (छंदसि बहुलम्), बोलियों (विभाषा) के हस्तक्षेप देखने में आते हैं, नियम कुछ दूर चलते हैं, उनका निर्वाह नहीं हो पाता (क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः)। पाणिनि की ही बात मानें तो जिसमें बोलियों के दबाव से अनियमितता पैदा हुई है वह लौकिक भाषा है, या सभी प्रभाव को दूर करके, कठिन शिक्षा प्रणाली से गुजरने के बाद अल्प लोगों द्वारा अर्जित की जाने वाली कालातीत, देशातीत भाषा जो यंत्रमानव के सर्वथा उपयुक्त है और संस्कृत शिक्षा प्रणाली द्वारा विद्वानों को यंत्र मानव बना दिया जाता था। आश्चर्य नहीं कि हाल के दिनों में कुछ लोग बढ़-चढ़कर यह दावा करने लगे हैं संस्कृत कंप्यूटर के लिए दुनिया की सबसे उपयुक्त भाषा है। दावा गलत नहीं है। लेकिन भाषा उसी को कहते हैं जिसे आदमी अपनी जबान से बोलता है; उसे नहीं जिसे मशीन बोलती है और मशीन समझती है और जिसके प्रभावक्षेत्र में नियम कायदे इतने प्रधान हो जाते हैं, पूरी मशीन को तोड़ो अभी मशीन को नए सिरे से जोड़ा जा सकता है पूरे समाज को तो दो भी नया समाज बन सकता है बीच में पंचर की गुंजाइश तक नहीं।
इसलिए यदि दोनों में फर्क करना और कहना होगा लौकिक संस्कृत अर्थात् वैदिक भाषा थी, और शिष्ट (शिक्षा लभ्य) संस्कृत या पाणिनीय संस्कृत।
संभवतः रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा की संज्ञा दी थी। इसका आशय यह था कि इसे किसी भी बोली की कसौटी पर खरा नहीं पाया जा सकता। साधु संत अनेक क्षेत्रों में विचरण करते रहते थे और उनकी भाषा उन स्थानों की बोलियो से प्रभावित होती थी। यदि हम पाणिनी के शब्दों में इसी बात को रखना चाहें तो कहना होगा, यह प्रयोग बहुला भाषा है, विभाषाओं से प्रभावित भाषा है। इसके नियम कुछ दूर तक एक बोली के अनुसार चलते हैं और आगे उनका निर्वाह नहीं हो पाता और इस खास मानी में वैदिक भाषा के समकक्ष है ।
इस साम्य और अंतर को स्पष्ट करना इसलिए जरूरी था कि हम समझ सकें कि क्यों ऋग्वेद के मुहावरे, उसके छंद, प्रतीक सामाजिक आर्थिक ढांचे में अनेक परिवर्तनों के बाद भी बोलचाल की भाषा में बचे रह गए जबकि संस्कृत साहित्य का बहुत कम जनसाधारण तक पहुंच पाया। इन पहलुओं पर उच्च विचार मैंने हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य में भाषा समाज और धर्म के संदर्भ में दिए हैं। यहाँ केवल यह याद दिलाना चाहता हूं कि वेदिक समाज का दाय सिद्धों और संतों को लोक के माध्यम से प्राप्त था न कि रामानुज या लिखित ग्रंथों के माध्यम से। इसमें वेद और उपनिषद दोनों का ज्ञान शामिल है। यद्यपि निखार सत्संग के माध्यम से भी आया होगा।
संध्याभाषा
द्विवेदी जी ने संध्या भाषा का अर्थ लगाने के लिए काफी उधेड़बुन की है। इस भाषा से क्या तात्पर्य है, इसके विषय में जिन लोगों के मत का उल्लेख उन्होंने किया है, न तो उनमें से किसी का ध्यान इस ओर गया कि ऋग्वेद के समय से, और संभवत उससे भी पहले से इसका प्रयोग अशिक्षितों द्वारा भी होता आया था और उन्हें भी इसे वहीं से अपनाया था। अपने को ज्ञानी सिद्ध करने की भूख अधिक जानकारी रखने वालों की तुलना में कम जानकारी रखने वालों के भीतर कुछ अधिक ही होता है। इसके परिणाम स्वरूप साधारण बात को भी गूढ़ बनाकर कहने के प्रयत्न उनमें से ऐसे लोगों द्वारा जो अपने को दूसरों से अधिक मेधावी सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे होंगे, किया जाता रहा है । इसे भोजपुरी में बुझौवल कहते हैं और इसमे दक्ष लोगों के लिए बुझक्कड का ओर कयासबाजी में तुक्के भिड़ाने वालों के लिए (?) लालबुझक्कड़ का प्रयोग चलता है। इसको आधार बना कर खासा साहित्य रचा जा चुका है जिसे पहेली कहते हैं। बार-बार दोहराए जाने के बाद इनका उत्तर भी अधिकांश लोगों को पता होता है। संध्या भाषा के प्रतीकों की समझ के बाद इनका अर्थ जानना कठिन नहीं था परंतु इसे प्रतीक विधान से अपरिचित व्यक्ति के सामने इसको जानने वाला ज्ञान की दिनांक सकता। पंडितों के समक्ष अशिक्षित कबीर पंथी ‘हम भी कुछ जानते हैं जिसे तुम समझ नहीं सकते’ गर्व के साथ खड़ा हो सकता था।
यदि मैं कहूं कि इसे भी लोक के माध्यम से ऋग्वेद में भी स्थान मिला यह तो यह बात समझ में नहीं आएगी। समझाने के लिए इतने विस्तार में जाना पड़ेगा उसके लिए समय नहीं रह गया। परंतु दो बातें समझ में आ सकती हैं। पहली यह कि ऋग्वेद के समय में भी मुख्यधारा से कटे हुए, समाज-व्यवस्था के भेदभाव को चुनौती देने वाले मौजूद थे। अड़बंग भाषा में बात करने वाले वे लोग, वैदिक चिंतन और दर्शन का निषेध करने के लिए, भौतिक उपलब्धि के अभाव में असाधारण आत्मिक उपलब्धियों का दावा करते थे। वैचारिक उत्कर्ष के अभाव में इतनी मामूली बातों को भी दुर्बोध अटपटी भाषा में व्यक्त करके ऋषियों से भी ऊपर उठने का दावा करते फिरते थे।
तंत्र साधना की उत्पत्ति मध्यकाल में नहीं हुई, वैदिक काल में भी नहीं हुई। इसका इतिहास खेती-बारी आरंभ होने से पहले – इतना पहले कि इसका सही आकलन नहीं किया जा सकता – आरंभ होता है। परंतु सभ्यता के विकास में इनका योगदान नकारात्मक रहा है; एकमात्र लक्ष्य व्यवस्था विरोध रहा है। व्यवस्था का विश्लेषण नहीं, आलोचनात्मक विवेक से उसकी बुराइयों के निराकरण का प्रयत्न नहीं, अंध विरोध। यह आज तक जारी है।
दिवेदी जी स्वयं ऋग्वेद से अपरिचित होने के कारण इसे नहीं समझ सकते थे। उन्हें भ्रम रहा होगा कि वह यह पहली परंपरा से अलग, दूसरी परंपरा है। दूसरी परंपरा की खोज करने वाले यह नहीं समझ सकते थे कि पहली परंपरा यही है, जिसे वे दूसरी प इसकारंपरा समझ बैठे। एकहि साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। जो तू सींचै मूल को फूलै फलै अघाय। दुर्भाग्य से मूल का पता न द्विवेदी जी को था न ही कवच बनकर उनकी रक्षा करना चाहते थे।
अपनी गूढ़ोक्तियों को वैदिक कवि नीहारमंडित या कुहासे में लिपटी हुई उक्ति कहते थे- नीहारेण प्रावृता जल्प्या ,,,10.82.7. ऋग्वेद में इसका खुलकर प्रयोग किया गया है जिससे अर्थ करने वाले चक्कर में पड़ जाते हैं।