#कबीर#की_समझ (4)
कबीर के बारे में हमारी समझ यह होनी चाहिए कि कबीर अराजकतावादी नहीं हैं। द्विवेदी जी का यह विचार बहुत सही है कि “अक्खड़ता कबीर दास का सर्वप्रधान गुण नहीं है।” वह पुरानी व्यवस्था में व्याप्त अराजक , अमानवीय रीतियों-व्यवहारों के निराकरण और एक तर्कसंगत माननीय समाज व्यवस्था के पक्षधर हैं। हमारे देश में, जिस समय वह हुए थे, उस समय, हम ही नहीं दुनिया का कोई व्यक्ति बुद्धिवाद, rationalism, शब्द से परिचित नहीं था। वह बुद्धिवादी थे, अपने समय से कई सौ साल आगे थे।
कबीर को जब हम अपनी जरूरत से प्रगतिशील सिद्ध करना चाहते हैं तो एक संकट पैदा होता है। भौतिकता से विमुख, आत्मवादी, अंतर्मुखी, आध्यात्मिक सिद्धि की ओर उन्मुख व्यक्ति को क्या प्रगतिवादी कहा जा सकता है?
इसकी दूसरी परिणति यह होती है कि हम उनकी सापेक्षता में तुलसीदास को प्रतिगामी, प्रगति विरोधी मान लेते हैं। एक ऐसा विचारक जो अंतर्मुखता, अपने कल्याण, और अपने लिए किसी परम सुख और परम गति के लिए समाज की उपेक्षा करने वाले, आर्थिक और भौतिक सरोकारों की उपेक्षा करने वाले की आलोचना करते हुए उन्हें बहिर्मुख होने की चुनौती देता है, क्या उसे प्रतिगामी कहेंगे, प्रगति विरोधी कहेंगे ?
सोच के इस दायरे में प्रगतिशील तुलसीदास सिद्ध होंगे न कि कबीर दास। कबीर दास के साथ यहाँ अन्याय होगा।
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बौद्धिक विमर्श में शब्दों के इस्तेमाल में तनिक भी लापरवाही से भारी अनर्थ हो सकता है और होता रहा है, जिसके एक प्रमाण कबीर दास स्वयं हैं।
वह बुद्धिवादी थे, रैश्नलिस्ट थे, और बुद्धिवाद की अपनी सीमाएं भी हैं। बुद्धि एक छोटे दायरे में काम करती है, और उससे आगे बढ़ते ही वह दुर्बुद्धि का पर्याय बन जाती है। बुद्धिवाद सराहनीय है, पूज्य नहीं। इसका विरोध उसकी संज्ञा ही करती है। बुद्धि वाद की सीमाओं की उपज है व्यवहारवाद या pragmatism. इसकी परिभाषा निम्न प्रकार दी गई है:
Pragmatism is a philosophical movement that includes those who claim that an ideology or proposition is true if it works satisfactorily, that the meaning of a proposition is to be found in the practical consequences of accepting it, and that unpractical ideas are to be rejected.
इसको न समझ पाने के कारण बारी बारी से कबीर दास और तुलसीदास के साथ आलोचकों ने लगातार अन्याय किए हैं। यदि कबीर अपने समय से सदियों आगे थे तो वही बात तुलसी पर भी लागू होती है।
ये दोनों भारतीय सामाजिक चेतना के ऐसे दो शिखर पुरुष हैं, जिनमें पारस्परिक विरोध होते हुए भी वैचारिक आधार पर सही गलत का निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता।
कबीर आज भी जरूरी हैं, तुलसीदास उससे अधिक जरूरी हैं, परंतु दोनों में से कोई भी न हमारे समय का है, न ही हमारे समय की समस्याओं से अवगत है, इसलिए अपने-अपने ढंग से ये हमारे प्रेरक हो सकते है, अधिनायक नहीं। अनुकरणीय कोई भी नहीं। अपने समय में एक को मानने वाला दूसरे का निषेध करता रहा हो, हमारे समय में दोनों की प्रेरणाओं की जरूरत है।
मुझे खेद है कि इस, सबसे जरूरी पक्ष पर, न तो द्विवेदी जी की नजर गई, न मेरी जानकारी के किसी दूसरे आलोचक की , और मैं, जिसने अपने को आलोचना की अपेक्षाओं के अनुरूप कभी तैयार ही नहीं किया, अपने विचारों को संगत पाते हुए भी यकीन नहीं कर पाता कि ये सही भी हैं।