#कबीर# की समझ (5)
न तो सिद्ध वेदविरोधी हैं, न नाथपंथी, न ही कबीर या दूसरा कोई संत। बुद्ध स्वयं भी वेदविरोधी नहीं थे। इस तरह का भेद मार्क्सवादियो ने पैदा किया जिन्हें न मार्क्सवाद की सही समझ थी, न ही भारतीय समाज की। वर्ग संघर्ष की जगह उन्होंने हिंदू समाज में धर्म संघर्ष शुरू कर दिया और इन सभी को वेदविरोधी सिद्ध करने का प्रयास करते रहे। इन सभी का सामाजिक भेदभाव, बाह्याचार और कर्मकांड से विरोध था । इसका एक जटिल आर्थिक इतिहास है, जिसकी कभी किसी ने -नृतत्वविज्ञानियों या समाज विज्ञानियों तक ने – व्याख्या नहीं की। वे जिस सँकरे दायरे और दबी हुई सोच से काम करते थे, उसमें यह संभव ही न था। दूसरा करे तो वे अपने अधिकार क्षेत्र में किसी बाहरी का हस्तक्षेप सहन भी नहीं करेंगे। पोंगापंथी जितनी अपने विषयों का अधिकारी समझने वालों के बीच होती है उतनी जाहिलों मैं भी नहीं।
समाज में वेदों और ऋषियों के प्रति अपार श्रद्धा रही है, जिसके कारण अलग राह पर चलने वाले भी अपनी लोकप्रियता के लिए उनका नाम लेते या अपनी उपलब्धियों को उनकी सापेक्षता में रख कर पेश करते और अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए अपने विचारों को उनसे भी ऊंचा ठहराते रहे हैं। बुद्ध वेदगू और वेदंतगू (वेद और वेदांत के ज्ञाता) कहे जाते हैं। वेदांत स्वयं वेद का अंत है। विचारों में यह मोड़ कब और कैसे आया, इसे जानना जरूरी तो है, परंतु अभी इतना ही कि यह उस महान, और शताब्दियों तक चलने वाले प्राकृतिक विपर्यय, का परिणाम था, जिसे न समझा गया, न सही सही रेखांकित किया गया ।
वेदांत में दुहरे प्रयत्न हैं। एक ओर वह वेद तक पहुंचने का प्रयत्न करता है दूसरी ओर वेद-शास्त्र के ज्ञान को, ज्ञान मात्र को, ब्रह्मज्ञान के सम्मुख तुच्छ मानता है:
नारद सनत कुमार के पास जाते हैं ब्रह्मज्ञान के लिए । सनत कुमार नारद से पूछते हैं, क्या जानते हो? वह बताते हैं, मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, कल्प, राशि-विद्या, उत्पात-विद्या, नीतिशास्त्र तर्कशास्त्र, देवविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या सभी को जानता हूं, तो सनत कुमार कहते हैं यह तो मात्र नाम है।
यहाँ केवल वेद का नहीं भौतिक ज्ञान मात्र का निषेध है। इसके होते हुए आत्मज्ञान संभव ही नहीं है।
उपनिषद की भाषा में कहें तो ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।’
गोरख पंथियों का यह दावा कि अवधूत वह है “ जिसके वाक्य वाक्य में वेद निवास करते हैं, पद पद में तीर्थ बसते हैं, प्रत्येक दृष्टि में मोक्ष विराजमान होता है, इसके एक हाथ में त्याग है और दूसरे में भोग, प्रकारांतर से वेद, तीर्थ, और त्याग आदि के प्राचीन मूल्यों समर्थन करता है।
कबीर वेद और किताब को इसी अर्थ में व्यर्थ मानते है:
गगन गरजै तहाँ सदा पावस झरै होत झनकार नित बजत तूरा।
वेद कत्तेब की गम्म नाहीं तहाँ कहैं कब्बीर कोई रमै सूरा।
परंतु सूक्षम वेद को जानने का दावा वह भी करते हैं।
क्या है यह सूक्ष्म वेद। यह चारों वेदोे के लिए अलग अलग है, पर है चारों के विषय में। ऋग्वेद के विषय में “ कूट वाणी ही सूक्ष्मवेद है।” 4/ 241
हमें आश्चर्य इस बात पर नहीं है कि कबीर जैसा अनपढ़ यह कैसे जान सका कि ऋग्वेद में गूढ़ोक्तियां हैं, आश्चर्य इस बात पर है कि कबीर की कविता में ठीक वही वाक्य वही भेद कैसे पहुंच गया। ऋग्वेद की ऋचा है, जो समुद्र यात्रा के समय में पेय जल संकट से संबंधित है: ‘अपां मध्ये तस्थिवांसं, तृष्णा अविदत् जरितारम्। मृळ सुक्षत्र, मृळय, 7.89.4।’ पानी के बीच रहते हुए भी हमें प्यास सता रही है, वरुण देवता अब तो कृपा करो (कि हम किनारे जा लगें)।
यह रूपक ऋग्वेद में दो बार आया है, एक में बहुत किफायत से गला तर करते हुए पीने की बात है,
पिबतं च तृष्णुतं चा च गच्छतं प्रजां च धत्तं द्रविणं च धत्तम् । सजोषसा उषसा सूर्येण च सोमं पिबतमश्विना ।। 8.35.10,
इस सूक्त में जल यात्रा के दौरान दस्युओं का सामना करने और उनसे निबटने का भी हवाला है।
दूसरा जिसका उल्लेख हम कर आए हैं। इसके भौतिक पक्ष से अपरिचित होने या सांसारिकता से संबंधित होने के कारण कबीर इसे स्थूल मानते हैं और आत्मा की ओर इसी रूपक को मोड़ कर उसे सूक्ष्म वेदज्ञान मान लेते हैं।
शुद्ध आत्मा सांसारिक भोग को दूषित मान कर अपने भोगफल से बचने के लिए प्यासा रहना पसंद करती है – जल बिच मरत पियासा, धोबिया।
और दूसरा तृष्णा के वश में आ गए तो तृप्ति नहीं होती, अधिक से अधिक की मांग बनी रहती है और इस अतृप्ति का अंत नहीं:
पानी बिच मीन पियासी, मोहिं सुनि आवै हांसी।।
इसी क्रम में एक दूसरे रूपक को भी रख सकते हैं जिसमें आत्मा और जीव को एक दूसरे से जुड़े दो पक्षियों के रूप में चित्रित किया जाता है- एक डाल दो पक्षी बैठे एक गुरू एक चेला के रूप में हुई है। यह ऋग्वेद की जिन ऋचाओं से प्रेरित है वे निम्न प्रकार है:
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोः अन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन् अन्यः अभि चाकशीति ।। 1.164.20 {17}
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागं अनिमेषं विदथं अभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ।। 1.164.21