#कबीर# की समझ (6)
ऋग्वेद कूटगर्भित रचनाओं का ऐसा भंडार है जिसके अनेक संकेतों कों समझने में हजारों साल के प्रयत्न के बाद, मूर्धन्य विद्वान तक, असमर्थ रहे हैं। इसका लाभ उठा कर ऋग्वेद के साथ मनमानी छूट लेने वाले, जो निर्णायक कथन हैं उनको मानने की जगह मनमाना अर्थ उन पर लादते रहे हैं। इसलिए ऋग्वेद में समुद्र है, पर ऐसे व्याख्याकारों के अनुसार समुद्र नहीं है, क्योंकि चरवाहों का समुद्र से क्या लेना देना- समुद्र का अर्थ जलाशय है, वह एक जलपात्र से लेकर उस तक हो सकता है जिसे ocean कहते हैं।’
आप याद दिलाएं इसमें नाव भी चल रही है, तो तर्क देते हैं, ‘वे तो आकाश में भी समुद्र की कल्पना कर लेते थे और उसमें भी नाव चलवा सकते थे।’
अभी तक का कीर्तिमान यही रहा है कि इनका विरोध करने वाले लोग भी इकहरी व्याख्याओं के सम्मुख समर्पण कर देते रहे हैं। यह समर्पण ‘संस्कृत के विद्वानों द्वारा भी, जो ऋग्वेद के संबंध में अपने को सबसे अधिकारी व्यक्ति मानते हैं, भी होता रहा है या कहें कि उनके द्वारा ही होता रहा है, तो गलत न होगा।
वे मिशनरी व्याख्याओं के साथ भी सहमत हो जाते हैं, स्वामी दयानंद की व्याख्या से भी सहमत हो जाते हैं और अरविंदघोष की ब्रह्मवादी व्याख्या के सामने भी अवाक रह जाते है। इनमें से कोई यह मानने को तैयार नहीं होता कि, विश्वास पर पलने वाले लोग, वे किसी भी मजहब के हों, जिसे नहीं जानते हैं उसे अपनी अज्ञता छिपाने के लिए, पूरी दृढ़ता से मानते हैं।
इन सभी के साथ केवल एक कमी पाई जाती है। वह है भाषा पर अधिक भरोसा करना। भाषा में एक ही शब्द के अनेक वैकल्पिक आशयों और व्याख्या की संभावनाओंं के कारण वे, स्वयं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाते।
सही नतीजे पर पहुंचने के लिए शब्दों का अर्थ जानना नहीं उन्हें सही संदर्भ में जानना जरूरी होता है और इसी कारण जब अपने दिमाग से सबसे कम काम लेते हुए, भौतिक सभ्यता के संदर्भ में उनके योगदान का आकलन करते हुए संदर्भ के अनुरूप अर्थ ग्रहण करते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने ऋग्वेद का एक नया पाठ प्रस्तुत किया तो सभ्यता संदर्भ बदल गया। इंद्रियबोध के प्रतीक इंद्र के जन्म के विषय में एक ऋचा हैः
केतुं कृण्वन् अकेतवे पेशो र्मर्या अपेशसे । सं उषद्भिः अजायथ ।। 1.6.3
इंद्र का अर्थ, इंद्रियबोध है, एक दूसरा अर्थ सूर्य है जो भी उषा के साथ ही उदित होता है। वह जन्म के साथ ही पहले जो पहले अदृश्य था (रूपाकारहीन) था उसे स्वरूप प्रदान कर देता है, अचेत को सचेत बना देता है, सौंदर्यहीन को सजीला बना देता है। वह उषाओं (ऊष्मा प्रदान करने वाली किरणों के साथ पैदा होता है।
शब्दों का व्यावहारिक अर्थ समझने पर भी रचनाओं का मर्म ग्रहण नहीं हो पाता, परंतु शब्दों का व्यावहारिक अर्थ जाने बिना भी काम नहीं चलता। संस्कृत का ज्ञान होना जरूरी है, संस्कृत के ज्ञान के बाद भी रचनाएं समझ में नहीं आतीं। यही कारण है संस्कृत के विद्वान भी ऋग्वेद से घबराते हैं।
यहां हम ऋग्वेद की चर्चा नहीं कर रहे हैं, उसकी परंपरा की बात कर रहे हैं। यदि सिद्धों और संतों की रचनाओं का महत्व उनके कूट-विधान के कारण हैं, तब दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, अपने को ऋषियों की तरह ज्ञान और सिद्धि से ऊपर सिद्ध करने के लिए उनका प्रयत्न पूर्वक वेदों की कूटप्रणाली को अपनाना और दूसरा, इस दावे के बाद भी कि वे वैदिक कवियों से आगे बढ़ चुके हैं, उनसे बहुत पीछे रह जाना। अंतर्वस्तु के मामले में तो सिद्धों और संतों, दोनों का साहित्य बहुत सीमित रह जाता है।
द्विवेदी जा का यह कथन सही है कि “ नाथपंथ में स्मार्त आचारों को कोई महत्व नहीं दिया जाता।” परंतु यह निष्कर्ष कि “यह बात उसे हिंदूधर्म के एकदम विरुद्ध खड़ा कर देती है”(4/229), सही नहीं लगता, क्योंकि स्मृतियां उस अर्थ में धर्मग्रंथ नहीं है जिस अर्थ में किताबी मजहबों के ग्रंथ। धर्मशास्त्र का अर्थ Scripture/ religious text नहीं, अपितु legal code है जो प्रशासन के हाथ में होता है और यह किसी के मानने या न मानने का कायल नहीं, संपत्ति या आचार विषयक विवाद पैदा होने पर लागू होगा ही। इनका ईसवी सन् की तीसरी शताब्दी से पहले का विधान हमें मालूम नहीं। फिर स्मृतियाँ अनेक हैं और इनके विधान परस्पर भिन्न हैं। ऋग्वेद के समय में या उपनिषदों के समय में दंड विधान और संपत्ति के नियम ठीक क्या थे इसका हमें पूरा ज्ञान नहीं। आज स्मृतियों के स्थान पर संविधान आ जाने के बाद कोई इन्हें नहीं मानता नहीं फिर भी हिंदू हिंदू हैं।
स्मृतियों का एक ही पक्ष आपत्तिजनक है और वह है वर्ण व्यवस्था, परंतु उसमें भी सामाजिक अन्याय दूसरे प्राचीन समाजों की तुलना में इतना कम रहा है कि ईसाइयत के आगमन से पहले किसी ने इनकी आलोचना नहीं की और इसके आगमन के बाद भी, ईसाई प्रचारकों को छोड़कर, अधिकांश पश्चिमी भारतविदों ने अपने समाज की भीतरी व्यवस्था और उसमें स्वीकार्य गुलामी को देखते हुए इसकी सराहना ही की।
केवल आज जब सामाजिक समानता की अवधारणा समस्त सभ्य जगत की अनिवार्य शर्त बन गई है, और इसके आधार पर भारत में भी सामाजिक भेदभाव को दंडनीय अपराध बनाया जा चुका है, इसे आलोचना का विषय बनाया जाता है।
वर्ण व्यवस्था हिंदुत्व नहीं, वर्ण व्यवस्था की आलोचना करने वाले और आज तक इसके कुसंस्कारों से मुक्त न हो पाने वाले, सभी समान रूप से हिंदू हैं। वेदांती, बौद्ध, शैव, शाक्त, सिद्ध, नाथपंथी, तांत्रिक, और आज के सामाजिक न्याय के पक्षधर सभी हिंदू होते हुए भी वर्णवाद और बाह्याचार विरोधी रहे, विरोध की यह छूट ही उन्हें हिंदू बनाती है।
अब इस परिप्रेक्ष्य में हम ऋग्वेद की कूट रचनाओं पर बात कर सकते हैं। कूट-विधान के कुछ अनिवार्य लक्षण है जिनको एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो कहेंगे जो असंभव है उसका किसी तर्क से संभव होना।
यह संभावना भाषा के खेल से पैदा होती है और भाषा का खेल ऋग्वेद के समय में जितना खुल कर खेला जा सकता था उतना उसके बाद कभी संभव नहीं था। कल्पना करें, गो का अर्थ गमन करने वाला कोई भी वस्तु या जीवधारी जिनमें से किसी के लिए यह रूढ़ हो सकता है, परंतु जरूरत पड़ने पर, उस गुण या प्रकृति के किसी अन्य के लिए भी प्रयोग में आ सकता है। रूढ़ार्थ गाय, व्यावहारिक अर्थ गो प्रजाति, लाक्षणिक अर्थ – कोई गमनशील जीव या वस्तु (धरती, वाणी, आँख, पण्यद्रव्य, धन) और गो उत्पाद – गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, मक्खन, घी, सींग, चमड़ा। इस तरह किसी भी प्रयोग की इतनी अलग अर्थ दिशाएं पैदा होती हैं कि इनमें से किसी का प्रयोग करते हुए चमत्कार पैदा किया जा सकता है। कहें, कूट का प्रयोग हम आज तक देख सकते हैं, परंतु इसके पीछे काम करने वाले तर्क को ऋग्वेद के प्रयोगों से ही समझ सकते हैं। उदाहरण के साथ बात करना जरूरी है, परन्तु आज वह संभव नहीं लगता।
इतना अवश्य कह दें कि जो भारतीय वेद को नहीं जानता वह अपने को नहीं जानता; परंतु ऐसा व्यक्ति ढूंढे नहीं मिलेगा जो यह दावा करे कि वह वेद को जानता है। दावा करे तो हम मान भी लें। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि पिछले 4000 सालों के भीतर सही सरोकारों के साथ ऋग्वेद को समझने की तैयारी करने के बाद भी बहुत कुछ छूटा रह जाता है ।