Post – 2017-06-24

यातना का कारोबार (3)

अब हम दो अन्तर्विरोधों के ऊपर ध्यान दें। आरक्षण की व्यवस्था क्या सोच कर पन्द्ह वर्ष के लिए की गई थी और फिर बाद में उसकी समीक्षा का विधान था?
मैं केवल अंधेरे में तीर मार सकता हूं क्योंकि इस पर जो साहित्य उपलब्ध है उसका भी मैंने अध्ययन नहीं किया। ऐसा लगता है कि यह सोचा गया था कि निःशुक्ल शिक्षा और छात्रवृत्ति आदि की सुविधाओं के चलते अनुसूचित जातियां शिक्षित हो जाएंगी और और इस ,सुविधा का लाभ उठा कर ऐसी स्थिति में आ जाएंगी जिसके बाद किसी विशेष रियायत की आवश्यकता नहीं रहेगी। कारण बाबासाहब के सामने यह बात स्पष्ट थी कि आर्थिक रियायतों से व्यक्ति की सामाजिक हैसियत नहीं सुधारी जा सकती। चेतना के स्तर पर यह सामाजिक दंश बना रहेगा और इससे सबसे अधिक मर्माहत वे प्रतिभाशाली अनुसूचित जन होंगे जो प्रतिभा में अपनी समकक्षता नहीं रखते। इसे हम बाबासाहब के अपने अनुभवोंच का विस्तार कर सकते हैं। यदि उन्होंने ब्रितानी कूटनीति का हिस्सा बन कर सुविधाएं प्राप्त करते हुए अपना स्थान न बनाया होता, अपनी तेजस्विता और दलितों को संगठित करने के बाद एक जननायक के रूप में उभरे होते तो शायद उनकी तेजस्विता के अनुरूप सामाजिक प्रतिष्ठा मिली होती।

यह एक कपोकल्पना मानी जा सकती है, परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि आज सत्तर साल के बाद भी अनुसूचित जनों के लिए आरक्षित कोटा पूरा नहीं हो पाता।

यदि आरक्षण की सुविधा के बल पर आर्थिक दृष्टि से अंगे बढ़े परिवारों को उसका लाभ उठाने से वंचित कर दें तो यह रिक्तता और भी बढ़ जाएगी। इसके विपरीत यदि पदोन्नति में आरक्षण का लाभ हटा दिया जाय तो अपनी वरिष्ठता के बल पर दूसरों की तरह अनुसूचित जनों को भी इसका लाभ मिलेगा जब कि इस सुविधा के कारण अपने सहयोगियों की तुलना में पर्याप्त योग्यता और समान अनुभव के बिना भी किसी के अपने से मेधावी सहकर्मियों का अधिकारी बन जाना, प्रशासनिक दृष्टि से कुफलदायी है। यह अनुसूचित जनों में अतिशय मुखर और राजनीतिक गणित को प्रभावित करने वालों के डर से जारी रखा जाने वाला, परन्तु प्रशासनिक दक्षता और सुचारुता के लिए घातक कदम है, यद्यपि हम प्रशासन तन्त्र में आई निरन्तर गिरावट के लिए इसे ही प्रमुख कारण नहीं मान सकते।

परन्तु मेरी चर्चा के केन्द्र में आरक्षण नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या आरक्षण सामाजिक अधोगति का उपचार है? क्या उसका कोई समाधान हमारे समाजशास्त्रियों या दलित चिन्तकों के पास है। उनकी सारी चिंता और सारा संघर्ष आरक्षण तक सीमित क्यों हो जाता है जब कि जमीनी हाल यह है कि आरक्षण के सत्तर सालों के बाद भी गन्दे परनाले में बिना किसी तैयारी के उतरने वाले की दशा में सुधार नहीं आया. यह सिलसिला हज़ार साल तक चलता रहे तो क्या आ सकता है? इससे भी बड़ा सवाल वह ठेकेदार जो निश्चय ही वाल्मीकि समुदाय का नहीं होगा, और यदि हो भी तो, सफाई करने वालों और प्रशासन के बीच कहा से उपस्थित हो गया? क्यों?

जो व्यक्ति सरकारी सेवा में रहते हुए बीस हजार मासिक कमा सकता था, उसे उसी काम के लिए पांच हजार में करने को बाध्य कैसे और किन परिस्थितियों में किया गया।

उसी दलित समाज की यातना का आर्तगान करते हुए उसकी पीढ़ा का निर्यात करने वाला और उसकी अधोगति का विपणन करने वाला यह सुशिक्षित बिचौलिया कहां से पैदा हो गया? मनुस्मृति से तो निश्चय ही नहीं. परिस्थितियां जो भी रही हो अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर दहाड़ने वाली भाषा पर उसने भी अधिकार पा लिया और जिनकी भाषा थी उनका काम करने लगा क्योंकि वह छलांग लगाकर उसी के पास पहुंचना चाहता है ।
जिस राम इक़बाल का हम जिक्र कर आये हैं उसने अपने दो पोतों को मेरे सटे मकान में अंग्रेजी माध्यम की दुकान चलाने वाले के यहां भर्ती करा रखा था. मैंने पूछा, ‘क्या यह तुमसे भी फ़ीस लेता है?”
बोला, “दो सौ रूपये महीना।”
मैंने इसपर खिन्नता प्रकट की तो हंसने लगा, “वह चार सौ लेता है तो मैं आठ सौ वसूल कर लेता हूँ.” मुझे हैरानी हुई तो बताया उसकी नाली में बोरी ठूंस देता हूँ सीवर लाइन चालू करने के लिए उसे एक के दो देने पड़ते हैं।”

मैं यह कहना चाहता था की दहाड़ने वाली भाषा की लालसा उनमें भी प्रबल है, ऊपर आने की छटपटाहट किसी से कम नहीं, कुछ अधिक ही है। यह भाषा महत्वाकांक्षाएं उत्तेजित करती है नैतिक विवेक नहीं पैदा करती. यह दलाल पैदा करनेवाली भाषा है और जब तक इसका वर्चस्व रहेगा दलालों की अनगिनत जमातें राज करेंगी और काम करने वालों को नाली में इसी तरह उतरना होगा.

हम जिस कटु सचाई पर आना चाहते थे और डर रहे थे की इसका गलत अर्थ लगाया जा सकता है वह यह की लम्बी दासता के बाद मनुष्य हो या जानवर, स्वतंत्रता की मनमानी छूट तो पाना चाहता है पर इसका दायित्व भूल जाता है. उसमे पहल का अभाव होता है. पहल के अभाव में जड़ता बढ़ती जाती है. दायित्व भूलने के साथ वह भार बन जाता है.
अनुसूचित वर्ग को और विशेषतः सफाई के काम से जुड़े कर्मचारियों में जो निकम्मापन बढ़ा वैसा ही निकम्मापन अमेरिका के दासता से मुक्त हुए लोगों में भी सुनने को मिलता है. अपने यहाँ तो मैंने यह देखा है की सफाई में ढील और यदि किसी ने इस पर सख्ती बरती तो उसे जातिसूचक अपमान के धौस में रखना आम बात है. म्युनिस्पैलिटी में नालों की सफाई आधी अधूरी और कचरा निकाल कर उसी के बाहर जो बरसात के साथ लौट कर फिर उसी नाले में. हर साल जलनिकास के मार्ग रुंधे रहने के कारण भारी बरसात के साथ सड़कें नदियों में बदल जाती हैं. ठेकेदारी प्रथा, सरकारी विभागों का निजीकरण या उनमे निजी कंनियों का प्रवेश. बिजली, टेलीफोन, यातायात आदि में निजीकरण का विस्तार, अभी हाल में कुछ स्टेशनो को निजी हाथों में सौपना, घाटे में चल रही एयर इंडिया का निजी कारण निकम्मापन और व्यापक भ्रष्टाचार की देन हैं. शिक्षा में निजी स्कूलों की बाढ़ अंग्रेजी के दहाड़नेवाली भाषा बन जाने का, सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के पतन की दें है. आश्चर्य यह कि समस्त सुरक्षाओं और दुविधाओं के होने के कारण जो लोग काम नहीं करते, वे ही उससे बहुत कम पाने के बाद भी अधिक मुस्तैदी से काम करने को तैयार हो जाते हैं, कार्यनिष्ठा व्यक्ति का सबसे बड़ा कवच है यह तो विश्विद्यालयों के अध्यापक तक भूल गए हैं.