सच का सामना
हमने कल की पोस्ट अधूरी छोड़ दी। उसी क्रम में उस सच को बयान नहीं किया जा सकता था जिसके बिना यह चर्चा व्यर्थ है। सच का सामना करना सामान्य स्थितियों में भी आसान नहीं होता। जो बहुत सुलझे और बेदाग किस्म के लोग हैं वे भी ऐसा नहीं कर पाते अप्रिय कथन से बचने के लिए वे चुप लगा जाते है या पीछे हट जाते हैं। उन्हें सच से अधिक इस बात की चिंता होती है उस व्यक्ति पर क्या बीतेगी जो झूठ या पाखंड या बड़बोलेपन का सहारा लेता आया है और यह विश्वास पाले हुआ है की दूसरों को उसके छद्म का पता न चलेगा। ऐसी स्थितियां भी होती हैं जिसमे दूसरा व्यक्ति पाखंडी नहीं होता असावधान होता है. उसे स्मरण दिलाया जाय तो उपकृत अनुभव करे, अति सज्जन लोग इसमें भी साफगोई से काम नहीं ले पाते. मैं प्रयत्न करता हूं कि इसे हास्य में बदल कर स्मरण दिला दूँ जिससे वह अपनी भूल सुधार ले, या उसकी असलियत उजागर हो जाय. परन्तु अनेक स्थितियों में मुझसे भी यह संभव नहीं हो पाता . यदि हो पाता तो वहीं, उसी हॉल में, भाषणबाजी और फोटोग्राफी के आयोजन को दिखाते हुए यह भी पूछता की इन दुखियारों को यहां तक क्यों बुलाया था. इनको राहत दिलाने के लिए या अपराधियों को दण्डित करने या बाध्य करने के लिए आपके पास कोई योजना है? नहीं तो इस पर आपने उपस्थित लोगों से पूछा की अब हमें क्या करना चाहिए? यह आशंका भी जताता कि मुझे इससे अमुक की गंध आती है. नहीं कर सका। ये सवाल तक इतने साफ़ साफ इस मौके पर नही सूझे. हम इच्छाशक्ति रहते हुए भी आवेग, अपनापन या लिहाज के कारण न सचाई को उसकी समग्रता में देख पाते हैं न ही पूरी दृढ़ता और सहस से उसका सामना कर पाते हैं. कुछ स्थितियां तो ऐसी होती है जिनमें सचाई को केन्द्र में लाना अत्याचारियों का पक्ष लेने जैसा लगता है।
हम जिन सचाइयों की ओर ध्यान दिलाना चाहतें हैं उनमें पहला यह कि पिछड़े हुए समाजों, देशों या तबकों में पिछड़ेपन के अनुपात में ही उसके प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी लोग अपने को आगे बढ़ाने के लिए अपनो से ही विश्वासघात करते हैं और इस मानी में वे नैतिक दृष्टि से अपने ही समुदाय के पिछड़े लोगों से भी अधिक चरित्रहीन होते हैं. वे उनका अपने हित के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं और इसलिए मात्र उस देश, समाज या तबके हा होना इस बात की पूरी गारंटी नहीं देता कि वह उसका सही प्रतिनिधित्व कर सकता है या कर रहा है ! इसे राम इक़बाल से आरम्भ कर के उसी समज के प्रतिभाशाली सुशिक्षितों तक तो दुरवस्था से बाहर आने के बाद भी पीढ़ी दर पीढ़ी उन सुविधाओं को छोड़ना नहीं चाहते और आरक्षण आदि के लाभ को नवोदित वर्णेतर ब्राह्मणों के भीतर रखना चाहते हैं. यह विकृति राजनेताओं में, वे दलित हों या पिछड़े, पारदर्शी और सर्वव्यापी हो जाती है. वे अपने समुदाय के प्रति उतनी ही चिंता प्रकट करते हैं जितनी उनको अपने इस्तेमाल के लिए ज़रूरी मानते हैं.
परन्तु समस्या इससे अधिक जटिल है. उससे भिन्न देश, समाज या तबके का कोई व्यक्ति उसका सही प्रतिनिधित्व कर ही नहीं सकता। वह उसे समझने का दावा करते हुए भी उसकी यातना को समझ ही नहीं सकता. उसमें निस्पृह, त्यागी और निडर नेतृत्व का उभरना एक मात्र विकल्प रह जाता है। परन्तु वह अंग्रेजी के वर्चस्व की स्थिति में संभव नहीं है. यह तभी संभव है जब भाषा की अलंघ्य दीवार बाधक न बने और अधिक से अधिक प्रतिभाशाली युवक बड़ी संख्या में आएं और चेतना का सामान्य स्तर ऊपर उठे. परन्तु इस विषय में शिक्षित दलित समाज की जागरूकता का स्तर बहुत पिछड़ा हुआ है. कही बाबा साहब ने लिख दिया कि अंग्रेजी शेरनी का दूध है उसे पीकर आदमी दहाड़ता है. और मैंने ऐसे बुद्धिजीवियों के लेख पढ़े हैं जो अपने समाज में दहाड़ने वाली भाषा में आरम्भ से शिक्षा के पक्षपाती हैं जब कि उन्हें बोलने और सोचने वाली भाषा के लिए संघर्ष करने की तैयारी करनी चाहिए और दहाड़ने वाली पशु भाषा के बहिष्कार का आंदोलन चलाना चाहिए. समाजिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प समुदायों को ब्राह्मणों को और मनु को कोसने की जगह उनसे सीखना चाहिए जैसे पिछड़े देशों को उन्नत देशों की नकल यही करना चाहिए, उनसे सीखना चाहिए. ब्राह्मणों ने अपनी सामाजिक श्रेष्ठता, धन, बाहुबल से प्राप्त नहीं की थी कुछ दूर तक इसका सम्बन्ध संस्कृत को सैद्धन्तिक ज्ञान की भाषा बनाने और इस पर एकाधिकार कायम करने, दूसरों को इससे दूर रखने की योजना से है और इसका उपचार है जिस भाषा तक कम लोगों की पहुँच हो सकती है , उसके वर्चस्व को समाप्त करना. कल तक यह भाषा संस्कृत थी, मध्य काल में फ़ारसी बन गई. आज अंग्रजी है जो बौद्धिक से लेकर सामाजिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है. यह ज्ञान की शक्ति थी पर शूद्रों के पास कौशल था.
ब्राह्मण के वर्चस्व का स्रोत था उसका नैतिक प्राधिकार जिसे उसने अपने को दूसरों से अधिक निस्पृह, अधिक न्यायपरायण, अधिक निडर सिद्ध करके या प्रचारित करके हासिल किया था, इसकी दिशा में मैंने दलितों को ध्यान देते नहीं देखा. जहां तक मनुवाद का प्रश्न है, वह भारतीय संविधान द्वारा व्यर्थ किया जा चुका है और चेतना के स्तर पर यह दलितों में अधिक प्रबल है, सुविधाओं का लाभ उठाकर आगे बढे दलित और पिछड़े अपनी मानसिकता में ब्राह्मणों से भी अधिक वर्चस्ववादी है. वे बोलना सीखने से पहले दहाड़ना सीखना चाहते हैं.
अपूर्ण