Post – 2017-06-22

यातना का कारोबार

बात बीसेक साल पुरानी है। जहां तक याद है लालबहादुर वर्मा ने इतिहासबोध प्रकाशन का आरंभ किया था उसी समय उन्होंने एक मासिक पत्रिका किसी दूसरे नाम से आरंभ की थी और इससे विकासनारायण राय और जेएनयू के के एक अध्यापक भी बहुत उत्साह से जुड़े थे। मैं इसका ग्राहक भी बना था। लालबहादुर वर्मा कुछ भी करें, सोते जागते, उसमें सामाजिक सरोकार न हो तो मान लीजिए यह वर्मा जी का मुखौटा लगाए कोई दूसरा आदमी है। मुझे उनकी राजनीति गलत लगती रही है, उनका यह सरोकार चुंबकीय लगता रहा है खास कर इसलिए कि वह इससे कव्य के रूप में नहीं हब्य के रूप में जुड़ते हैं, जिस पर मैं अपने को उनसे बहुत पीछे पाता हूं। जेएनयू के वह तरुण अध्यापक इसलिए भी बहुत ओजस्वी लगते थे कि वह वाल्मीकि उपाधि लगाने वाले समुदाय से आते थे और उनकी टिप्पणियां सामान्य व्यवहार में इन सेवाओं में लगे लोगों के साथ किस तरह की संवेदनशून्यता से लोग पेश आते हैं, उसको उदाहृत करते हुए समानुभूति और छटपटाहट से भरी लगती थी।

वह उन दिनों बहुत उत्साह से लिख रहे थे और पत्रों पत्रिकाओं में भी उपस्थित रहते थे। उनके लेख तथ्य और प्रमाण और आंकड़ों से पुष्ट होते थे इसलिए उनके लेखों का मैं बहुत प्रशंसक था और कहीं भी दिख जाते तो पढ़ता अवश्य था।

जिस घटना या दुर्घटना का यहां जिक्र कर रहा हूं वह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना से आहत हो कर संभवतः कंस्टीच्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हाल में आयोजित की गई थी। गाजियाबाद में एक मैनहाल में उतरने के बाद एक सफाई कर्मी की मौत हो गई थी। वहां सफाई का काम ठेके पर दिया गया था और ठेकेदार म्युनिस्पैलिटी से तो पूरा पैसा लेता थ, परन्तु अपनी ओर से सफाई कर्मियों को लगा कर उनको मात्र पांच हजार देता था। उस नौजवान की मृत्यु को उसके परिवार की यातना के सिरे से देखें जिसका नौजवान बेटा व्यवस्था की चूक के कारण मारा गया है, जिसे एक तरह से दिहाड़ी या मासिक वेतन पर ठेकेदार ने रखा था, जिसने उसकी मौत के बाद किसी तरह की क्षतिपूर्ति करने का प्रयास नहीं किया, जिसे काम के दौरान मारे जाने के एवज में आजीवन वेतन और ओर उसके बाद उस पर निर्भर जनों में से किसी को नौकरी देने आदि का कोई प्रबन्ध नहीं था। इतना संवेदनशील मुद्दा जिसमें उसके परिजनों को जिनमें उसकी मां भी थी, पत्नी भी रही होगी, उसका ध्यान नहीं, बड़े आदर से बुलाया गया था। मैं यह सोच कर गया था इस पर कोई आन्दोलन खड़ा किया जाएगा, कोई कार्ययोजना बनेगी। यही सोचकर उसके परिजन भी आए होंगे। पर हुआ क्या?

हुआ यह कि मंच से एक प्रभावशाली भाषण दिया गया विदेशों में किस तरह की व्यवस्था है, हमारे यहां यह नहीं है। ऐसा होता तो यह मौत न होती। म्युनिस्पैलिटी सीधे सफाई कर्मियों को नियुक्त करने की जगह यह काम ठेके पर दे रही है, इसमें किस तरह का भ्रष्टाचार है, सफाई कर्मचारी अपने वेतन से कुछ दे नहीं सकता पर ठेकेदार से कमाई हो सकती, इसलिए यह ठेकेदारी प्रथा आरंभ की गई है। देश विदेश के आकड़ों, मानकों और अपने देश में इस बदहाली के ओजस्वी भाषण के बाद फोटों सेशन चला और कार्यक्रम समाप्त। भाषण को भी रेकार्ड किया गया था।

उस अभागे के परिजनों की मुखमुद्रा देख कर ही समझा जा सकता था कि उनके बेटे की मौत पहले एक ठेकेदार के कारण हुई थी और यह दूसरी मौत है जो एक दूसरे ठेकेदार के हाथों हो रही है। मेरे मन में इतनी जुगुप्सा हुई कि उस व्यक्ति को पढ़ना भूल गया, उस पत्रिका को पढ़ना छोड़ दिया। पत्रिका का नाम तक याद न रहा। उसका अपना नाम तक भूल सा गया था इसलिए उसे जेएनयू का अध्यापक कह रहा था, परन्तु इस बीच ही याद आ गया, नाम सुभाष गाताड़े था। था, है नही, वह मेरे लिए उसी दिन हो कर भी न रहा। वे आंकड़े कहां से जुटाए गए थे, यह कार्यक्रम किसलिए आयोजित किया गया था, यह फोटोग्राफी किसे पहुंचाने के लिए की जा रही थी? क्या वह अपनी बिरादरी की यातना को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से मोल वसूलने के लिए एकत्र कर रहा था? कुछ दिनों के बाद अज्ञात कारणों से वर्मा जी का भी मोहभंग हो गया और पत्रिका बंद हो गई!
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