हर आदमी को मयस्सर तो हो इंसां होना (3)
मानव यातना और उत्पीड़न के असंख्य रूप हैं. हमारा ध्यान केवल इनके उन रूपों की ओर जाता है जिनसे ग्रस्त लोगों की संख्या अधिक है. राजनीतिज्ञों के लिए यह सही हो सकता ह, क्योंकि इसका गणित उसके लिए लाभकर होता है. साहित्यकार और विचारक के लिए इसका सबसे यंत्रणादायक रूप – भले उससे एक, दो या कुछ ही लोगों को मिलने वाली अकल्पनीय यंत्रणा- सबसे अधिक उद्वेलनकारी प्रतीत हो. परन्तु राजनीतिज्ञों का पिछलग्गू होने के कारण नामी साहित्यकारों, पत्रकारों का ध्यान भी उधर नहीं जाता. उनका बाजारभाव इतना कम है कि कहीं दर्ज ही नहीं होता फिर साहित्य और कला में कैसे हो.
यातना का गणित नहीं होता, इसका शूलमाप होता है और कालवेध होता है. कितनी प्रखरता से और कितनी अवधि तक किसी को इससे गुजरना पड़ा? किन विवशताओं में, अन्य विकल्पों के अभाव में, इसे चुनना भी पड़ा। आप को अस्पृश्यता विकल कर देती है, क्योंकि यह हिन्दू समाज में लम्बे समय से चली आरही है और इसका राजनितिक सूचकांक काफी ऊपर है। इससे मुझे भी क्लेश होता है, परन्तु फँसी हुई मलप्रणाली को खोलने के लिए उसके मलकूप में बिना किसी सुरक्षा और मलरोधी पोशाक के और बिना मास्क और ऑक्सीजन व्यवस्था के उतरने वाले और कभी गैस से प्राण गवाने वाले, कभी उस गैस से नशा पाने के लिए सीवर होल में उतरने के लिए उत्साहित निष्प्राण पर साँस लेने वाले प्राणियों के अमानवीकरण, और अधोगति को देखा है?उनके अमानवीकरण ही नहीं कृमि-कीटीभवन की आप कल्पना नहीं कर सकते। परन्तु एक तो यह आधुनिक सीवर प्रणाली की दे है, जैसे सर पर टोकरा ढोते हुए मलनिस्तारण मध्यकालीन समाज की देन है, इसलिए न तो राजनीति में न ही साहित्य में इसे यातना और अमानवीकरण से जोड़ा गया न तो साहित्यकारों की नज़र इस, न दलित राजनीति करने वालों ने कभी इस पर ध्यान दिया, इसको लेकर मनु को भी कोसा नहीं जा सकता अत: हमारा प्रगतिशील लेखक पार्टी के निर्देश पर किसान मजदूर, धनी गरीब और अस्पृश्य के मुर्दे मुद्दों को साहित्य का मुद्दा बताता रहा और चमत्कारी पर मुर्दा साहित्य लिखता रहा, जिसके कलात्मक उत्कर्ष के अनुपात में ही भारतीय गाहक घटते गए और जनता से कटने के बाद राजाश्रय की तलाश के कारण साहित्यकार अपने को अपने ही समाज से निर्वासित और विश्वविजेता मान कर अपनी भूमिका को दूसरों के उपयोग की चीज मान कर तुष्ट रहने लगा.?
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मैं कुछ वर्षों तक अपनी कॉलोनी का अध्यक्ष भी रहा। काम इतना कि हेराफेरी पर नज़र रहेगी। इसे मैंने लोगों को जोड़ कर इसपर एकाधिकार रखने वालों से मुक्त कराया था इसलिए यह उत्तरदायित्व बनाता था। मुझे,मैं जो कुछ भी करता हूँ उसमें सर्जनात्मक आनंद मिलता है, इसलिए यह उत्तरदायित्व भी सर्जनात्मक तुष्टि देता था। मैंने एक चेतना जगाने का प्रयत्न किया कि जैसे तुम्हारा डाक्टर और सर्जन तुम्हे नीरोग करता है वैसे ही ये सफाई कर्मी भी हैं. इनको धन नहीं दे सकते तो सम्मान तो दे सकते हो। इसमें सफल नहीं हुआ या बहुत कम हुआ। परन्तु राम इक़बाल हो जिसने हमारी कॉलोनी की सीवर लाइन का ठेका ले रखा था, या रामचंद्र जिससे पॉलिश वाले इसलिए डरते थे कि एक चपत लगाते भी यदि यह स्वर्ग सिधार गया तो उनका जीवन नर्क हो जाएगा. नाली फसने पर इक़बाल रामचंद्र को बुलाता था. एक बार उसने बताया वह नशे के लिए सीवर में उतरने के बाद मलयुक्त पानी भी पी जाता है।
मुझे ज़िन्दगी में कोसने वाले तो मिले हैं पर गाली देनेवाले नहीं और ऐसे गाली देने वाले तो विरल जिनकी गाली सुनकर मन में आया हो कि मैं इसी लायक था। इनमें सबसे ऊपर नाम रामचंद्र का आता है। उसकी भाषा आप भी समझ कर अपनी भाषेतर व्यंजनाओं को अधिक प्रखर बना सकते हैं ।
सीवर फँस गया था. मलजल उफन कर सड़क के किनारों से बह रहा था। इक़बाल और रामचंद्र मेरे साथ चल रहे थ। बीच में खुली जगह थी, परन्तु रामचंद्र उस मल भरे सिरे पर चल रहा था गन्दे पानी में पांव रखता हुआ। मुझे व्यग्रता हो रही थी। मैंने कहा उधर क्यों चल रहे हो? इधर साफ सड़क है इस पर क्यों नहीं चलते? उसने मेरी बात सुनी और उसे अपने ढंग से समझी। अभी तक जो उस गंदे पानी में पांव रखता चल रहा था अब छपकोरियां मारते हुए चलने लगा. लंबा समय लगा यह समझने में कि वह छपकोरियां भरते हुए मुझे गाली दे रहा था कि अभागों मेरे पांव गंदे पानी में पड़ रहे हैं तो तुम्हे दर्द हो रहा है, जब मैं सीवर में उतरता हूँ तब कुछ नहीं होता. उन शब्दातीत गालियों को दर्ज नहीं किया जा सकता पर मुझे लगा मैं सचमुच इसका पात्र था. परन्तु क्या साहित्य में कहीं मजूर के आगे की यह यातना जगह पा सकी?