Post – 2017-06-29

देवलोक का भूगोल

‘‘यार तुम खुद बाजी मारने वाले अन्दाज में बात करते हो और दोष मुझे देते हो। यह तो चकल्लस हुआ, चर्चा तो हुई नहीं।’’

जी में आया कहूं शुरुआत ही तुम ऐसी करते हो, फिर सोचा बात तो सचमुच चकल्लस की दिशा में बढ़़ चलेगी। यदि किसी विषय की जिज्ञासा उसके मन में है तो अच्छा है हम उस पर गंभीरता से विचार करें, इसलिए कहा, इसका सीधा उपाय है, तुम जुमले मत उछालो, विषय चुनो और उस पर गंभीरता से चर्चा हो।’’

‘‘विषय एक नहीं तीन तीन हैं जिन पर अपनी समझ और तुम्हारी सोच के बीच की दूरी मुझे परेशान करती है।’’

‘‘तीनों को एक साथ मत उठाओ। एक एक करके बात करें।’’

देवभूमि
‘‘पहला तो तुम्हारी देवभूमि वाले चक्कर से जुड़ा है। तुमने एक बार कहा था, एक छोटे से इलाके में जो पहाडी था और कुरु पांचाल से कहीं पूर्व और उत्तर में था, उसमें जा कर खेती का आरंभ करने वालों ने स्थाई खेती शुरू की। तुमने उसे गंडक से सटे पहाड़ी क्षेत्र से जोड़ा था। फिर कहा, ये लोग जब वहां जम गए और संख्या बढ़ गई तो नीचे उतरे और नदियों के कछारों में खेती आरंभ की। और फिर फैलते हुए कुरुक्षेत्र तक पहुंचे जहा सरस्वती, दृषद्वती और आपया का विस्तृत कछार क्षेत्र था और फिर आगे का विकास हुआ जिसका पहला नागर चरण हड़प्पा सभ्यता है। यह क्या कमाल हुआ कि पूरा पहाड़ी क्षेत्र ही देवभूमि हो गया। कहीं तो कुछ गडबड़ है?’’

‘‘यह उलझन स्वयं मुझे भी थी। खास करके इसलिए कि हम जिस देववाणी की बात करते हैं, वह भी पूरे पहाड़ी क्षेत्र में नहीं बोली जाती थी। वहां उतने प्राचीन काल में दूसरे जन बसे हुए थे जिनकी भाषा बहुत भिन्न थी। इससे पहले एक दो पहाड़ी पर्यटन स्थल देखे थे ’ मसूरी, शिमला, नैनीताल वगैरह उनको देख कर इस ओर ध्यान नहीं गया था परन्तु कौसानी में यह पहेली गणित के सवाल की तरह सिद्ध हो गई।

“देव संज्ञा, मैंने पहले भी कहा है, किसी एक रक्त या भाषाभाषी समुदाय की नहीं थी। यह आग का प्रयोग भूमि की सफाई करने से जुड़़ी संज्ञा थी। वे स्वयं गुहार लगा रहे थे कि यह तरीका तुम भी अपनाओ और इसमें आरंभ से ही दूसरे जन मिलने लगे थे। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि उनकी कृषिविद्या को अपनाने वाले सभी जन उनके तरीके से जहां भी खेती करने लगे उसे देवभूमि मान लिया गया।‘‘

‘‘वह तरीका क्या पहाड़ों पर ही अपनाया गया। उन्होंने मैदान में उतरने के बाद उसे छोड़ दिया ?’’

‘‘वह तरीका पहाड़ों के लिए ही उपयोगी था। उसी पद्धति से पूरे पहाड़ी क्षेत्र में आज तक खेती की जाती है। इसमें ढाल के कारण पहली जरूरत थी कास कंजास जला कर जमीन को समतल करना। यह समतल भूमि सीढीनुमा पट्टियों में ही हो सकती थी। इन पट्टियों को केदार कहते थे। इनमें धान की खेती करते थे। इसलिए बाद में चल कर केदार का अर्थ धान का खेत हो गया। इसकी छोटी छोटी चट्टियों को केदारी कहते रहे होंगे जिससे हमे कियारी शब्द मिला है।

“कियारियों या केदारों की मुख्य समस्या थी पानी के बहाव के समय मिट्टी को बहने से बचाना। इसके लिए मेड़ की जरूरत थी पर मेड़ को भी तोड़ कर पानी निकल सकता था इसलिए उसके उूपर खर या कुश की बाड़ लगाते थे। इससे पानी बहने के बाद भी मिट्टी का बहाव रुक जाता था। पहाड़ी ढलान को साफ करके उसको समतल केदारों की सीढ़ियां बना कर खेती के लिए तैयार करना एक बहुत श्रमसाध्य काम था। इसलिए जिस व्यक्ति ने यह काम किया उसे उस भूमि का सदा के लिए मालिक मान लिया जाता था।

“मैंने पहले कहा है, देवन या बारना का अर्थ जलाना होता है और जमीन की सफाई से लेकर इसे बाद में भी तिनके, कास, घास से मुक्त रखने में आग का ही सहारा था। इसलिए इस विधि से खेती करने वालों को बरम या देउ/देउआ कहा जाता था। देव शब्द अपार्थिव सत्ताओं के लिए प्रयोग में आने लगा। अर्थ का उत्कर्ष तो बरम का भी हुआ जो ब्रह्म तक पहुंचा फिर भी ब्राह्मण मानवीय प्राणियों के लिए अधिक चलन में रहा, देव चलन से हटता गया। देव और ब्राह्मण एक दूसरे के पर्याय थे, इसलिए बाद में जब व्यवस्था बदल गई और ब्राह्मण या देव समाज का तीन वर्णो में विभाजन हो गया और दूसरों के लिए कर्म के अनुसार क्षत्रिय और वैश्य का प्रयोग होने लगा तब भी ब्राह्मण की जातीय स्मृति में यह बात कौंधती रही कि पूरी धरती का स्वामी वह है। उसे यह भी याद था कि वही देव है, या भूदेव है ।

“धरती का अर्थ ही था उर्वरा या कृषि भूमि, या जिससे जीवन का निर्वाह होता है। ये बातें अन्य प्रसंगों में मैं कह आया हूं, पर तुम्हारी खोपड़ी में उतरती ही नहीं। कोसानी की यात्रा में यह पूरा तन्त्र जिस तरह उजागर हुआ वैसा पहले कभी हुआ ही न था। उतरते समय कुश= कांटे जलाने के अभियान में पूरी घाटी धुंए से भरी हुई, देख कर घबराटह हो रही है। जानकारी का कुछ मोल तो चुकाना ही पड़ता है।’’

‘और दूसरी बात यह कि…’’

दूसरी बात आज नहीं, नहीं तो फिर भूल जाओगे। दिमाग में जितना अंट सके उतना ही समेटो। उस पर कल चर्चा करेंगे। हां चलते चलते यह बता दूं कि उस आदिम कृषि के चरण में आदमी ही देवता बन कर पूज्य नहीं रहा, उसके औजार और हथियार तक पूजा पाते रहे और इस तरह हमारी सांस्कृतिक परंपरा मे दस बारह हजार साल की दूरी तय करके भी हमारी अतीतगाथा को जीवन्त बनाए रहे।

“और एक बात और। जिस तरह देवभूमि उस छोटे से क्षेत्र से फैल कर समूचे पहाड़ी क्षेत्र के लिए प्रयोग में आने लगा जिस में उत्तरोत्तर सीढ़ियां बना कर खेती की जाने लगी, उसी तरह लम्बे समय बाद खेती का पहलू ओझल हो जाने के कारण समग्र पर्वतीय क्षेत्र को देवभूमि माना जाने लगा। उसी की देन है कालिदास का ‘अस्त्युत्तरस्यां दिवि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः’ और हिमालय के पार का स्वर्गलोक जिससे मेघदूत का यात्रापथ इंगित किया गया है।

“इसलिए जो आधुनिक बनने के फैशन में ऐसी रीतियों और प्रचलनों को जो आप की प्रगति और विकास में बाधक नहीं बनते हैं उनको त्यागने की बात करते हैं वे अपने इतिहास का नष्ट करने की बात करते हैं और इसे जानते भी नहीं। परन्तु इसी के साथ निजी संपत्ति की जो कल्पना साकार हुई उसके चलते सामाजिक और आर्थिक परपीड़क व्यवस्थाएं आई। उनकी रक्षा अतीत की रक्षा के नाम पर करने के लिए जो आकुल रहते हैं वे नहीं जानते कि इनके कारण हमारे देश का कितना पतन हुआ और हमारा समाज कितना निःसत्व हुआ है। हमें आगे बढ़ने के लिए इनसे मुक्ति की जरूरत है न कि प्राचीनता के नाम पर इनकी रक्षा की।