Post – 2017-06-26

बात बेबात

“तुम्हें पढ़ना एक यातना है और सुनना एक सजा!“ मेरा मित्र लंबे समय बाद मिल रहा था।
“आज तक कभी लिखने से कुछ हुआ है! सोचने से अनाज पैदा हो जाता तो हाथ हिलाने की जरूरत नहीं होती। सपने बेचने वाले सुई तक नहीं बेच पाते और सुई बेचने वाले तोपखाना तक बेच लेते हैं। इन सबके लिए काम करना पड़ता है। संगठन बनाना और आंदोलन खड़ा करना होता है। संगठन और आंदोलन शीशमहल में बैठ कर नहीं चलाए जाते।’’

“काफी तैयारी करके आए हो। सूक्तियां भी हाथ चलाने से तो पैदा होतीं नहीं, किसी सोचने वाले से ही उड़ाए होंगे, या मेरी संगत के असर में सोचने भी लगे होगे। बिना सोचे समझे जो काम किए जाते हैं उन्हें यांत्रिक तक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यंत्र भी एक सोच की उपज होता है और उसके पीछे एक व्यवस्था होती है। इसे विस्फोट कहते हैं, उूर्जा का अनियंत्रित उन्मोचन जिसमें ध्वंस अधिक और निर्माण कम होता है और निर्माण भी अपने जोड़ों पर इतना कमजोर होता है कि इसे चलाने के लिए बहुत अधिक ताकत लगानी होती है और इसके बाद भी वह इतना कमजोर होता है कि एक छड़ी की चोट से धराशायी हो जाय । जानते हो लौहदुर्ग प्रतीत होने वाले सोवियत ढांचे का शीराजा जीन्स के धक्के से भहरा गया था और वह भी तब जब साम्यवादी आकर्षण में अमेरिका की एक पीढ़ी ने अभिजात जीवनशैली को छोड़ कर फटे, पुराने, घिसे, पुराने, पैबंद लगे कपड़ों को, अपनी जीवनशैली में उतार लिया था।

“यार मेरी जानकारी कामचलाउू है, हो सकता है मेरा अनुमान सही न हो, पर यदि हो तो साम्यवाद की नासमझी ने साम्यवाद के नाम चर चल रहे एक यातनादायक व्यवस्था के अमानवीय पक्षों को आंखों से ओझल करके उसे इतना आकर्षक बना दिया कि पूंजीवादी व्यवस्था में पैदा हुए तरुणों ने अपनी व्यवस्था के सारे सुखों को भोगते हुए सर्वहारा जीवनशैली अपना कर प्रतीकात्मक विद्रोह किया और पूंजीवाद ने उसी को अपना हथियार बना कर उन पहनावों का विपणन आरंभ कर दिया और उस विपणन ने कम्युनिज्म की चूलेंं हिला दीं।”

चकित मैं भी था और चकित वह भी. न मैंने सोच की इस दिशा में पहला वाक्य, मात्र चमत्कार के लिए, गढ़ते हुए यह सोचा था कि यह इतने गहन विवेचन तक पहुँच जाएगा, न उसने कभी इस नज़रिये से इस समस्या पर विचार किया था.

उसे परेशान देखकर मैंने वातावरण को हल्का बनाने के लिए कहा, ‘यार, तुम कहते थे विचार बंदूक की नली से पैदा होता है, और यह छिपा जाते थे कि बंदूक की नली या तलवार से विचार नहीं गुलामी पैदा होती है. तुमसे अच्छे तो पूँजीवादी हैं जिन्होंने जींस को विचार में बदल कर बंदूक की नली के बल पर स्थापित महाशक्तियों को अपना पालतू बना लिया और फिर भी तुम कहते हो पूँजीवाद संकट के दौर से गुजर रहा है. संकट के दौर से अपनी बारी की प्रतीक्षा किये बिना आ धमकने वाला कम्युनिज्म गुजरा जो गांधीवाद को समझ न सका और उसे कोसता रहा. गांधीवाद क्या है, अपनी जरूरते कम करो, अपनी जरूरत की चीज़ें स्वयं पैदा करो, बाजार बनना और बाजार तलाशना बंद कर दो, पूंजीवाद का संकट वहीं से आरम्भ हो जायेगा. किसी ने समझा इस क्रांतिकारी विचार को?