पुनर्विचार
मैं आजकल काम के अतिरिक्त दबाव में हूं, इसलिए उन कामों को निपटाने के लिए दूसरे विषयों पर, छोटी टिप्पणियों से काम चलाना चाहता था। शेर की सवारी भी उसी के चलते करने की सोची, भले उर्दू के सौन्दर्यशास्त्र पर अधिकार न रखने के कारण इबारती शेर असली रूप धारण कर अपने सिरजनहार को ही खा जाए।
फिर तकनीकी विकास और उनके अनुरूप विचार और दर्शन की प्रगति को अधिक से अधिक उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करते हुए देववाणी के आसुरी वाक् से उत्थान करके देववाणी बनते हुए मानुषी वाक् बनने की प्रक्रिया को अपनी अल्पमति के अनुसार प्रस्तुत करने का मोह भी छोड़ना नहीं चाहता, इसलिए आज उसी के लिए कुछ लिख रहा था।
परन्तु कल मुझे कुछ समसामयिक घटनाओं ने इस तरह आहत किया कि उन पर संक्षेप में ही, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने को रोक न सका। सबसे ताजा था वेंकैया नायडू का उस परिवार के पास पहुंचना, और पचास हजार के चेक को देने का विज्ञापन करते हुए उसको दिखाना। नैपाल अंग्रेजों के वैसे ही चापलूस होने के कारण जैसे नीरद चन्द्र चैधरी रहे हैं, भारतीय संन्दर्भ में किसी त्रासदी के बाद की अनुग्रहराशि को डालर में बदल कर पेश करते थे। कहते कुछ नहीं, पर इशारा यह होता कि भारत में आदमी की जान की कीमत यह है। इसकी ध्वनि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भारतीय की गरिमा, अस्मिता, और उसके प्रति दूसरों के व्यवहार को प्रभावित करता था, इसका ध्यान उन्हें भी न रहा होगा, क्योंकि वह भारत से और हिन्दुत्व से प्रेम करते थे और अपने ढंग से इसकी अधोगति को मुखर करना चाहते थे। इस अपमानजनक मुद्राविनिमय को या ऐसे दूसरे प्रसंगों को जो किसी भारतीय की अस्मिता से जुड़ी हैं, वह दरकिनार भी कर सकते थे, परन्तु तब उनको नोबेल नहीं मिलता। इसके बावजूद ऐसे अवसरो पर नैपाल मुझे सबसे सार्थक लेखक लगते हैं, जब हम अनुग्रह राशि का प्रदर्शन करते हैं और वह भी तब जब वह विगत वर्षों में किसी मृतक को दी गई अनुग्रह राशियों में अल्पतम रही हो। इस पर आगे मुझे कुछ नहीं कहना।
मैं नरेन्द्र मोदी का सबसे बड़ा प्रशंसक हूं और क्यों हूं, इसके कारण मैंने गिनाए हैं। अन्य कारणों में एक यह रहा है कि पहली बार देश और विदेश में बसे भारतीयों को यह बोध हुआ कि हम उतने ही सम्मानित है जितना किसी देश का कोई नागरिक। कोई कहीं संकट में हो, उसे धर्म, जाति, समुदाय निरपेक्ष हो कर बचाने, घर लाने, जहां वे रह गए हैं वहां उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का पहली बार गोचर और प्रभावकारी प्रयास मोदी सरकार ने अटल सरकार के टलने के बाद किया जिसका सन्देश अचूक था। परन्तु इस एक घटना ने धोबीपाट दे दिया। प्रधानमंत्री की जानकारी के बाद भी मात्र एक लाख, जो भी तुच्छतम राशि ही ठहरती है। इससे आगे सब कुछ आपके कल्पनाधीन है।
मोदी पर मेरा विश्वास अब भी चुका नहीं है। हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि सरकार चलाने वाला मेरी अपेक्षा के अनुरूप निर्णय ले, परन्तु हमें जहां लगे कि सरकार का निर्णय गलत है वहां खतरे उठा कर भी अपनी बात कहनी होगी।
खतरे उठाने का जिक्र आते ही मुक्तिबोध के ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे’, शब्द याद आते हैं। जिन दिनों मुक्तिबोध ने ये पंक्तियां लिखी थी, उन दिनों अभिव्यक्ति पर रोक लगाने वाला एक ही संगठन या आन्दोलन था। सारे वाचाल उसकी सेवा में ही लगे थे इसलिए अपनी व्याख्या में उन दिनों भी दक्षिणपन्थी रुझान का आविष्कार करके मुक्तिबोध की आड़ में उसे कोसते रहे जब उसकी ओर से कोई खतरा था ही नहीं. वह होकर भी न होने जैसा था.पर चुपके चोरी मुक्तिबोध पर यह आरोप भी लगाते रहे कि वह तिलक के लिए गहरा सम्मान रखते थे। अन्तर्मन से वह हिन्दुत्वप्रेमी थे। उनकी ओर ध्यान भी पहली बार चांद का मुंह टेढ़ा है का चयन, संपादन और प्रकाशन व्यवस्था करने वालों ने दिया जिनमें श्रीकान्त वर्मा और अशोक वाजपेयी थे, जिनको और कई गालियां दी जा सकती है परन्तु मार्क्सवादी नहीं कहा जा सकता। इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने मुक्तिबोध को उपयोगी पा कर उनका उस समय उपयोग किया जब मार्क्सवादी उनकी नाना बहानों से उपेक्षा करते रहे।
मैं किसी कवि को उसके विचारों के कारण आदर नहीं देता। विचारों को, वे जो भी हों, खरा मान कर, उन्हें संवेद्य बना कर सर्वगम्य बनाने के लिए अवश्य सम्मान देता हूं जब कि वैचारिक स्तर पर वे अक्सर गुमराह और खतरनाक तक सिद्ध होते हैं।
विषयान्तर हो गया।
कहना यह कि परंपरा, जातीय मूल्य, मुक्तिबोध के लिए शिरोधार्य थे और वामपंथी जबानबन्दी उनको असह्य लगती थी और अभिव्यक्ति का खतरा उन्होंने इसी के विरुद्ध उठाया था और इसके कारण जरठ मार्क्सवादियों के द्वारा उनकी उपेक्षा भी हुई थी जिससे खिन्न होकर उन्होंने ब्रह्मराक्षस जैसी साहसिक कविता लिखी थी जिसका अनर्थ किया गया. वामपंथियों को जब लगा कि दक्षिणपंथी उनको अपनी विरासत से जोड़ रहे हैं तब मुक्तिबोध का अनर्थ करते हुए उनकी क्रांति चेतना का नया व्याख्यान आरम्भ किया परन्तु जब मैंने उनका मूल्यांकन (मुक्तिबोध को समझने की दिशा में एक प्रयत्न, सर्वनाम,१९७४) किया तब तक रामविलास जी से लेकर नामवर जी तक उन्हें हाशिये से बाहर या अस्तित्ववादी कह कर हाशिये पर अर्थात परिशिष्ट में ही स्थान देना चाहते थे.
अतः केवल इस कारण मेरी नज़र में कोई त्याज्य या ग्राह्य नहीं हो जाता कि वह दक्षिणपन्थी है या वामपन्थी . यही कारण है नरेंद्र मोदी से मुझे वह एलर्जी न हुई जिससे मेरे मित्र ग्रस्त थे और आंख मूँद कर ईंट पत्थर जो हाथ आया फ़ेंक रहे थे.
अपने तीन सालों के साहसिकं प्रयोगों में मुझे मोदी ने निराश नहीं किया, परन्तु विदेश प्रस्थान से ठीक पहले गोरक्षा पर उनके निर्णय ने पुनर्विचार के लिए अवश्य विवश किया है. वह आज तो संभव नहीं, कल करेंगे.