निदान 6
सांप्रदायिकता का बीजारोपण
”आप कहते हैं सांप्रदायिकता बीसवीं शताब्दी की चीज है, फसाद तो उन्नीसवीं शताब्दी में भी होते रहे होंगे।”
”झगड़े फसाद तो किसी न किसी बात को ले कर हमेशा चलते रहे हैं। अपनों से भी और दूसरों से भी। उन्नीसवीं शताब्दी में इनको धार्मिक अवसरों पर गोकुशी आदि खुले आम करने के लिए उकसा कर कई बार होली या मुहर्रम के मौकों पर कराने में सफलता मिल चुकी थी परन्तु इनकी प्रकृति भिन्न थी। वास्तव में गाेमांस का सबसे अधिक खपत व्रिटिश सैनिकों और अफसरों के बीच था जिसे संवेदनशील मुद्दा मान कर अपनी ओर से ध्यान हटाने के लिए वे उकसावा देकर कुछ मुस्लिम तत्वों को खुले आम गोवध कराने के लिए तैयार करके स्वत: उपद्रव की भूमिका तैयार करते थे । सैयद अहमद ने स्वयं अपनी एक तकरीर में इनके घटित होने की पुष्टि की है और उसमें एक दबी धमकी भी है:
But I frankly advise my Hindu friends that if they wish to cherish their religious rites, they can never be successful in this way. If they are to be successful, it can only be by friendship and agreement. The business cannot be done by force; and the greater the enmity and animosity, the greater will be their loss. I will take Aligarh as an example. There Mahomedans and Hindus are in agreement. The Dasehra and Moharrum fell together for three years, and no one knows what took place [that is, things remained quiet]. It is worth notice how, when an agitation was started against cow-killing, the sacrifice of cows increased enormously, and religious animosity grew on both sides, as all who live in India well know. They should understand that those things that can be done by friendship and affection, cannot be done by any pressure or force.
”परन्तु इसके पीछे एक दहशत भी काम कर रही थी जो इस अंश के पहले वाक्य में ही है। उनके दिमाग में यह बैठाया जा चुका था कि यदि कांग्रेस की ताकत बढ़ती गई तो एक न एक दिन प्रशासन बंगालियों के हाथ में आ जाएगा और वे मुसलमनानों को हिन्दू रीति नीति अपनाने को विवश करेंगे। वे जिन चीजों से परहेज करते हैं उनको पूरे समाज पर लादेंगे। गोमांस निषेध इनमें से एक था।
”हम यह कह सकते हैं कि वे सारी बातें जिनका विस्फोट बीसवीं शताब्दी की मुस्लिम राजनीति में हुआ उसकाे सर सैयद की चेतना में उतारा जा चुका था और मुस्लिम बुद्धिजीवी उन्हें आधुनिकता का नायक मानते थे इसलिए आधुनिक सोच वाले मुसलमानों की चेतना में ये विचार मार्गदर्शक सिद्धान्तों के रूप में अंकित रहे। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी राजनीति क्या थी।
”बंगाल का विभाजन जिसने पहली बार सांप्रदायिकता की इमारत की नींव रखी उसके बीज भी सर सैयद की चेतना में उतारे जा चुके थे और द्विराष्ट्र की धारणा भी:
As regards Bengal, there is, as far as I am aware, in Lower Bengal a much larger proportion of Mahomedans than Bengalis. And if you take the population of the whole of Bengal, nearly half are Mahomedans and something over half are Bengalis. Those Mahomedans are quite unaware of what sort of thing the National Congress is. No Mahomedan Raïs of Bengal took part in it, and the ordinary Bengalis who live in the districts are also as ignorant of it as the Mahomedans. In Bengal the Mahomedan population is so great that if the aspirations of those Bengalis who are making so loud an agitation be fulfilled, it will be extremely difficult for the Bengalis to remain in peace even in Bengal. These proposals of the Congress are extremely inexpedient for the country, which is inhabited by two different nations — who drink from the same well, breathe the air of the same city, and depend on each other for its life. To create animosity between them is good neither for peace, nor for the country, nor for the town.
”जो बात सर सैयद अहमद के दिमाग में भरी गई थी उसके जाल हंटर की पुस्तक से ही बुने जाने लगे थे। हैरानी की बात यह कि जो शरारत दूसरों को नजर आ रही थी वह उन्हें नहीं आई। अविश्वसनीय बातों पर भी असहमति प्रकट करके वह इसका सबूत नहीं देना चाहते थे कि अपने हुक्मरानों पर उन्हें रंचमात्र संदेह है और इस कमजोरी ने ही उनको ब्रितानी साजिश का मुखौटा बना दिया था। केवल मुसलमान होने के कारण वे हिन्दुओं से विरोध रखें यह पूर्वी बंगाल के लोगों के लिए संभव नहीं था। पूर्वी बंगाल अपने उद्योग धन्धों के लिए जाना जाता था। अपने काम में लगे किसानों, छोटे कामगारो, दूकानदारों यहां तक कि व्यापारियों की सीधी साझेदारी राजनीति में न थी, पर यह तो था ही शिक्षा के मामले में आगे बढ़े होने के कारण प्रभावशाली पदों पर पश्चिम बंगाल के हिन्दुओ की उपस्थिति थी और इसको भौगोलिक विभाजन से उभारा जा सकता था।
”यह काम कर्जन ने कर दिखाया जिसका कड़ा विराेध हिन्दुओं ने किया और किया इस आधार पर ही कि यह हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की राजनीति है, पर जैसा हम एक बार और कह आए हैं, बिना किसी अपवाद के सभी मुसलमान इसका समर्थन कर रहे थे । इनमें कांग्रेस में सम्मिलित मुस्लिम नेता भीे थे। दोनों की प्रतिक्रियाएं इतनी उग्र थीं कि पहली बार दोनों संप्रदायों का एक दूसरे पर से विश्वास ही नहीं उठ गया अपितु यह भी सिद्ध हो गया कि हिन्दू कांग्रेस में हो या बाहर पहले हिन्दू है और मुसलिम कांग्रेस में हो या बाहर पहले मुसलिम है।
पहली बार ब्रितानी कूटनीति ने समाज को आरपार बांटने में भारी सफलता प्राप्त की और इसके बाद मेल जोल की सारी कवायदें अभिनय प्रतीत होने लगीं।
”बंगाल का विभाजन कथित रूप में एक प्रशासनिक फैसला था। यदि कूटनीतिक परिपक्वता होती तो इस बंटवारे की उपेक्षा की गई होती और तब ब्रितानी कूटनीति को बहुत करारा जवाब मिला होता। इसका विरोध हिन्दुओं द्वारा आतंकवादी या विप्लवी रास्ता अपना कर किया गया और बाद के सशस्त्र प्रतिरोध का यह आधार बना । सरकार को अपना फैसला कुछ वर्षों बाद वापस लेना पड़ा। पर यह सरकार की हार नहीं थी। उसे विजय मिल चुकी थी। प्रशासनिक सुविधा मात्र बहाना था पर अब पूर्वी बंगाल में भाषा और संस्कृति से गहन जुड़ाव के बावजूद सांप्रदायिक सोच का अखाड़ा तो बन ही गया था।
सर सैयद ने इंग्लैड के विश्वविद्यालयों जैसी उच्च शिक्षा के लक्ष्य से अलीगढ़ कालेज का प्रिंसिपल अंग्रेजों को ही रखना उचित समझा। बेक, मोरिसन और आर्किबाल्ड ऐसे ही प्रिंसिपल थे जो मुस्लिम राजनीति को अलीगढ़ कालेज के माध्यम से मनचाही योजना के अनुसार चलाते रहे और इसलिए यह कालेज शुरू से ही अलगाववादी राजनीति का अखाड़ा बना रहा।
”मुस्लिम लीग की स्थापना भी ब्रिटेन की कूटनीतिक पहल का परिणाम था। पहले आगा खां के नेतृत्व में शिमला में उनका एक प्रतिनिधिमडल लार्ड मिंटो से अक्तूबर में अलीगढ कालेज के सेक्रेटरी मोहसिन उल मुल्क की पहल से मिला था और पृथक प्रतिनिधित्व की अपनी मांगे रखी थी जिन्हें वाइसराय का आशीवार्द प्राप्त हुआ था और उन्होंने जल्द ही एक संगठन बनाने का निश्चय किया था। इसके कुछ माह बाद ही 30 दिसंबर 1906 को ढाका में जो मुस्लिम ताल्लुकेदारों और अमीरों का जलसा हुआ था उसे भी वाइसराय मिंटो का वरदहस्त प्राप्त था! हुए उसमें पूरे देश के ताल्लुकेदारों और रईसों की शिरकत थी। इसमें 300 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इनमें पूर्वी बंगाल के ढाका के नवाब को छोड़ कर कितने रईस थे इस पर शोध होना चाहिए, परन्तु इस पर शोध की जरूरत नहीं कि मुस्लिम लीग केवल मुस्लिम अमीरों और ताल्लुकेदारों द्वारा और उनकी उन्हीं चिन्ताओं से प्रेरित संस्था थी जिसका मुख्य लक्ष्य स्वतंत्रता आंदोलन में व्यवधान डालते हुए ब्रिटिश सत्ता को स्थिरता प्रदान करना था। इसमे मुस्लिम अवाब के प्रति न तो सहानुभूति थी न उनके लिए कोई जगह।
”इसके विपरीत हिन्दू असंतोष सही अर्थों में बंगाली वर्चस्व को पहुंचे आघात की अभिव्यक्ति था परन्तु इसे भी महाराष्ट्र से तिलक का और पंजाब से लाजपत राय का समर्थन प्राप्त था और इसे उभारने के लिए महाराष्ट्र में गणपति और शिवा जी का और बंगाल में दुर्गापूजा के आयोजनों के माध्यम से जनता को कांग्रेस से जोड़ने का भी प्रयत्न किया गया और अनुमानत: हिन्दी भाषी क्षेत्र में रामलीला को भी भव्य और व्यापक आयोजन इसके बाद ही आरंभ हुआ। कुल मिला कर इससे कांग्रेस का हिन्दू चेहरा अधिक उभर कर आया और इसने आम मुसलिमों में भी खिसकाव की प्रक्रिया आरंभ हुई हो सकती है जिसका कोई आकलन हमारे पास नहीं है।”
शास्त्री जी ने लंबी जंभाई ली तब पता चला कि वह थक रहे हैं। थक तो शायद आप भी रहे हो।