Post – 2016-07-28

”क्‍या आप सोचते हैं, भारत में सांप्रदायिकता के जनक सैयद अहमद हैं?”

”इतिहास का बोझ ढोने के लिए एक आदमी का कंधा इतना कमजोर पड़ता है कि उस पर न तो श्रेय का बोझ लादा जा सकता है न अभियोग का। वह मात्र निमित्‍त होता है। शास्‍त्री जी आप ने क्‍या गीता को ध्‍यान से पढ़ा है ? खैर, पढ़ा तो होगा ही परन्‍तु उसमें जो इतिहास और महारथी से महारथी योद्धा या कर्ता के बीच के संबंध का चित्रण है उसे शायद उस तरह न समझा हो जैसे मैं समझता हूें। उसमें कृष्‍ण अर्जुन काे उपयुक्‍त पात्र मान कर जिस विराट रूप का दर्शन कराते हैं वह इतिहास का मूर्तन है। काल की महिमा का आख्‍यान है। सर्वत्र वही व्‍याप्‍त है, सब कुछ उसी में घटित हो रहा है। कोई किसी का नाश नहीं करता है। वह कहते हैं, मैं कालदेव हूं। जो है उसका विनाश करने वाला। मैं जो चाहूंगा वह करने के लिए तुम्‍हारा उपयोग कर लंगा, तुम्‍हें देखना है कि तुम किसी बाहरी दबाव से, कुछ पाने के लिए कुछ करते हो या या निष्‍काम भाव से, अपना कर्तव्‍य समझ कर। उससे बंधते हो या मुक्‍त रह जाते होा दोनां दशाओं में तुम मात्र मेरे निमित्‍त हो और वही बन कर जो मेरा निर्णय है उसका पालन समर्पित भाव से तो उसे करने से भारी से भारी अनिष्‍ट हो, उसके परिणाम से मैं तुम्‍हारी रक्षा कर लूंगा – कालोस्मि लोकान् क्षय कृत प्रबृद्ध- लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्‍त-। मया हतान् त्‍चं जहि मा व्‍यथिष्‍ठा, निमित्‍त मात्रों भव शव्‍यसाचिनद्य । और अहं त्‍वां सर्वपापेभ्‍यो मोक्षयिष्‍यामि मा शुच। अद्भुत इतिहासबोध। सोच कर हैरान रह जाता हूें। इसी का प्रतिपादन तोल्‍स्‍टोय ने वार एंड पीस के समाहार में किया। इसे ही मार्क्‍स ने कई बहानों से कहा था और यह विश्‍वास दिलाना चाहा कि समाज को रूपान्‍तरित करने का, क्रान्ति लाने का सही समय आ गश और इसे हमारे अपने लोगों ने रट लिया। समझा नहीं।”

”डाक्‍साब, सर जो शिकायत करते हैं वह तो सही है।”

मैं सचमुच समझ नहीं पाया कि उनका संकेत किधर है। उनकी ओर प्रश्‍न भरी आंखों से देखा तो बोले, ”आप सचमुच विषय कोई हो, उड़ान भरने के लिए एक आसमान उसी में तैयार कर लेते हैं। मैं पूछ रहा था…”

आगे उन्‍हें कुछ कहना पड़े इससे पहले ही बात समझ में आ गई, ”मैं उसी का जवाब दे रहा था परन्‍तु इस मुहावरे में जो अापको समझ में आ सके। मैं कह रहा था, सैयद साहब ही नहीं, उन्‍हीं योग्‍यताओं, भौतिक परिस्थितियों, दबावों और चिन्‍ताओं के बीच आप भी ठीक वही करते। कहें उसमें कोई भी दूसरा वही करता फिर करने वाला तो वह काल है, वे परिस्थितियां है, इतिहास का महारथ है। उसकी अभिव्‍यक्ति नाना रूपों में एक ही काल में होती है।

”आप देखें तो बंगाली शिक्षा में बढ़ ही नहीं गए थे, सभी पदों पर लगभग बंगालियों का कब्‍जा था और उनका व्‍यवहार गोरे साहबों से नकल किया गया था और शेष भारतीयों से वे काले साहबों की तरह ही पेश आते थे। गोरों का अपने प्रति गरूर भरा व्‍यवहार उन्‍हें भी खलता था, परन्‍तु दूसरे भारतीयों से वही व्‍यवहार करते हुए वे इसे भूल जाते थे। स्‍वयं ओडिशा, असम, पूर्वी बिहार, पंजाब के लोगों के लिए वे जिन संबोधनों का प्रयोग करते थे वे गाली हुआ करते थे। यह एक भौगा‍ेलिक प्रशासनिक सुविधा के कारण था क्‍योंकि राजधानी कलकत्‍ता थी और सरकार के सारे दफतर वहीं थे। शिक्षा के आधुनिकीकरण के प्रयोग वहीं हुए थे और इसके महत्‍व को समझते हुए कुछ दूर दर्शी लोगों ने गांव गांव तक शिक्षा के प्रसार का प्रयत्‍न किया था जिसका उन्‍हें लाभ मिला था परन्‍तु इस लाभ के साथ ही उन्‍हें बंगाली जाति की अपनी श्रेष्‍ठता से जोड़ कर देखना आरंभ कर दिया था।

”उनको इसका पता भी था कि वे दूसरों के साथ बिगब्रदरली व्‍यवहार कर रहे हैं और इसके लिए उनकी भाषा में बड़ो दा बोध शब्‍द भी प्रचलित था। बंगाल का भौगोलिक क्षेत्र तो मुगल काल से ही बंगाल की सूबेदारी से जुड़ा था परन्‍तु अब इन्‍होंने मैथिली, ओडि़या और असमिया भाषाओं की स्‍वतन्‍त्र स्थिति को भी नकारते हुए इन्‍हें बांग्‍ला की बोलियां मानना आरंभ कर दिया था और उन भाषाओं में शिक्षा के प्रचार में बाधा डालते हुए बंगला में ही उन्‍हें पढ़ाने की ठान रखी थी।

” इस नजाकत को प्रशासकों ने पहचाना, कुछ समय तक इसे पनपने दिया और फिर उन क्षेत्रों की भाषाओं को अलग पहचान देते और शिक्षा का माध्‍यम बनाते हुए उन प्रदेशों से भी एक तनाव पैदा किया था जिसमें भाषाशास्‍त्री प्रशासक जान बीम्‍स की बहुत सफल भूमिका थी।

”संयोग से ये सभी प्रदेश हिन्‍दू बहुल थे इसलिए इनका असंतोष और बोध उस रूप में उजागर नहीं हुआ उसे सांप्रदायिक जैसी संज्ञा मिल सके। इन प्रदेशों के अलग होने के बाद भी बंगाल का भौगोलिक आकार बहुत बड़ा था और सच कहें तो पूर्वी बंगाल या आज के बांग्‍ला देश की बोलचाल की भाषा इतनी अलग है कि उसे पश्चिमी बंगाल के व्‍यक्ति को समझने में दिक्‍कत होती है। ओडिशा, बिहार और असम में अंग्रेजी शिक्षा के प्रति विरोध नहीं था परन्‍तु सुविधाओं का अभाव था इसलिए इनमें भी शिक्षित मध्‍यवर्ग का उदय बहुत मन्‍द गति से हुआ।

” मुस्लिम समुदाय चाहे वह पश्चिम बंगाल का हो या पूर्वी बंगाल का या बिहार, अवध या आगरा का, यह मजहबी कारणों अंग्रेजी शिक्षा और जीवनशैली का विरोधी था इसलिए इसमें अंग्रेजी शिक्षा सैयद अहमद के अध्‍यवसाय के कारण ही आई ।

”थाने और निचली अदालतों तक के कामकाज की भाषा और लिपि उर्दू ही थी, इसलिए इनमें उनको निचले स्‍तर से ले कर अमीन और मुख्‍तारगिरी तक की नौकरियों मे वरीयता हासिल थी। पहली बार जब वह प्रस्‍ताव आया कि नागरी लिपि को भी जगह दी जाय तो इस पर सैयद अहमद बौखला उठे थे, क्‍योंकि इसमें बंटी रोटी में भी बांटने वाले तैयार हो जाते और मुसलमानों को राजगार के अवसर और घट जाते। जहां तक मेरी मोटी जानकारी है हिन्‍दू नेत़त्‍व अरबी लिपि को हटा कर नागरी लिपि मात्र की स्‍वीकृति नहीं चाहता था, पर इतना तो जाहिर ही है कि अवध और बिहार में हिन्‍दू भी मुसलमानों की तरह शिक्षा और नौकरियों में पिछड़े हुए थे और इस अर्थ में मुसलमानों से भी पिछड़े थे कि उन्‍हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं था इनको फारसी बोझिल उर्दू भाषा और शिकस्‍ता उर्दू सीखने समझने में कठिनाई होती थी। यह मांग उनकी ओर से ही आई थी इसलिए सैयद अहमद ने इसे हिन्‍दुओं की सांप्रदायिक मांग मान ली और उनका उनसे मोहभंग हो गया। कल तक जिनको भारत मां की दो सुंदर आंखे मानते थे और एक के फूटने से भी उसके कुरूप होने का डर हुआ करता था वहीं उसकी दूसरी आंख खुलने ही नहीं दे रहे थे और अपराधी उन्‍हें ठहरा रहे थे जो इसे खोलना चाहते थे।

सैयद अहमद मुस्लिम समाज के उस वर्ग को ले कर चिन्तित थे जिनकी दशा में निरन्‍तर गिरावट आ रही थी या आनी थी। हिन्‍दुओं को वे हर मानी में आगे पा रहे थे आैर यह चिन्‍ता कांग्रेस के जन्‍म के साथ, प्रशासन में प्रतिनिधित्‍व की मांग के कारण इसलिए उग्र हो गई थी । आम मताधिकार के परिणाम की बात हम कर आए हैं, अब यदि यह मांग भी हो कि एक खास आर्थिक हैसियत के लोगों को ही मताधिकार मिले तो:
Some method of qualification must be made; for example, that people with a certain income shall be electors. Now, I ask you, O Mahomedans! Weep at your condition! Have you such wealth that you can compete with the Hindus? Most certainly not. Suppose, for example, that an income of Rs. 5,000 a year be fixed on, how many Mahomedans will there be? Which party will have the larger number of votes?

अब यदि सरकार यह भी मानने को तैयार हो जाय कि आधे हिन्‍दू और आधे मसलमान चुने जाएंगे तो भी हिन्‍दू अधिक काबिल सिद्ध होंगे:

let us suppose that a rule is laid down that half the members are to be Mahomedan and half Hindus, and that the Mahomedans and Hindus are each to elect their own men. Now, I ask you to pardon me for saying something which I say with a sore heart. In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. ,

यदि आप उनके इन उद्गारों के भीतर झांक सकते हों तो पाएंगे ये उनके अपने विचार नहीं बल्कि उनके दिमाग में भरे हुए विचार थे कि मुसलमान हिन्‍दुओं का प्रभाव बढ़ने के साथ हर तरह से अरक्षित हैं, और उनकी सुरक्षा का एक ही उपाय है अंग्रेजी राज का बना रहना और इस तरह बना रहना कि इसकी कोई चूल तक ढीली न हो।

इस पराजय बोध को कम करने और उन्‍हें जुझारू अल्‍पमत बना कर अपने साथ रखने के लिए उनके इतिहास को भी उभारा और श्रेष्‍ठता बोध को भी खूराक की जाती थी। इसलिए सैयद अहमद के निम्‍न कथन को भी आधा सिखावन और आधा पस्‍तहिम्‍मती को इतिहास की यादों से दूर करने का उपाय ही मानना चाहिए:
We are those who ruled India for six or seven hundred years. (Cheers.) From our hands the country was taken by Govemment into its own. Is it not natural then for Government to entertain such thoughts? Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire? Although, should Government entertain such notions, she is certainly wrong; yet we must remember she has ample excuse. We do not live on fish, nor are we afraid of using a knife and fork lest we should cut our fingers. (Cheers.) Our nation is of the blood of those who made not only Arabia, but Asia and Europe, to tremble. It is our nation which conquered with its sword the whole of India, although its peoples were all of one religion.

परन्‍तु इसी से जुड़ा तो वह डर भी था कि यदि शासन में हिन्‍दुओं का प्रभाव बढ़ा तो वे बदले की कार्रवाई करेंगे जो उस समय इतना प्रखर नहीं था क्‍योंकि तब स्‍वतंत्रता की बात नहीं उठी थी, केवल वाइसराय की कौंसिल की सदस्‍यता और प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्‍यम से प्रशासनिक पदों पर भर्ती का ही सवाल था। बाद में स्‍वतंत्रता की संभावना बढ़ने के साथ इसने जमींदारों रियासतदारों के भीतर तीखी बेचैनी पैदा कर दी जब कि शेष मुसलमान इस निर्मूलता से ग्रस्‍त न थे वे अन्तिम दौर को छोड़ कर इससे निप्‍प्रभावित रहे। सैयद अहमद की समझ से, और यह भी भरा हुआ विचार था, मुसलमानों के बचाव का एक ही उपाय था, सरकार का विश्‍वास जीतना, उसके सन्‍देह को दूर करना और उसके हाथ की कठपुतली बन जाना:
Our course of action should be such as to convince Government of the wrongness of her suspicions regarding us, if she entertain any.

बंगाली हिन्‍दुओं का शासन आने से रोका नहीं जा सकता, परन्‍तु एक क्षेत्र है जिसमें बंगाली की जगह मुस‍लमानों को अवसर मिल सकता है। फौजी नौकरियां। आखिर मुगल काल में अमीर और रईस अपने फौजी पदों के बल पर ही पैदा हुए थे:
. A second error of Government of the greatest magnitude is this: that it does not give appointments in the army to those brave people whose ancestors did not use the pen to write with; no, but a different kind of pen — (cheers) — nor did they use black ink, but the ink they dipped their pens in was red, red ink which flows from the bodies of men. (Cheers.) O brothers! I have fought Government in the harshest language about these points. The time is, however, coming when my brothers, Pathans, Syeds, Hashimi, and Koreishi, whose blood smells of the blood of Abraham, will appear in glittering uniform as Colonels and Majors in the army. But we must wait for that time. Government will most certainly attend to it; provided you do not give rise to suspicions of disloyalty.

जब हम सांप्रदायिकता की जड़ों को समझने का प्रयत्‍न करते हैं तो हमारा ध्‍यान इस
व्‍यग्रता पर भी जाना चाहिए और उन परिस्थितियों पर भी जो उन्‍हें उसी सरकार के हाथ में खेलने के लिए तैयार कर रही थी जो सांप्रदायिक तनाव के बल पर सीधे बल प्रयोग के बिना अपने भविष्‍य को निरापद बनाने के लिए प्रयत्‍नशील थी। अभी तक के विकास को हम केवल उस जमीन की तैयारी के रूप में ही देख सकते हैं जिसमें सांप्रदायिकता की खेती होनी थी। यह बीसवीं शताब्‍दी की चीज

हारता हुआ इंसान अपने बचे हुए का कुछ देना नहीं चाहता, और जो पहले से वंचित रहे हैं, वे जिन चीजों से वंचित रखे गए थे उसे पाना चाहते हैं यह थी कशमकश और इसमें उनकी परेशानी को तो समझा जा सकता है किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। इस तथ्‍य के बाद भी कि इसका परिणाम दुखद रहा।

तात्‍कालिक रूप में देखें तो इसका नुकसान सैयद अहमद को अधिक हुआ। पहले बंगाली वर्चस्‍व के विरुद्ध वह हिन्‍दुओं, मुसलमानों सभी (के खानदानी) लोगों को लेकर चिन्तित दीखते थे और देशी भाषा में शिक्षा के लिए एक विश्‍वविद्यालय भी स्‍थापित करना चाहते हैं यह कहीं पढ़ा है जिसे इसलिए स्‍थापित करने में असफल रहे क्‍योंकि वहां भी भाषा और लिपि में मान्‍य रूप पर सहमति न बनी। यह प्रसास फिल्‍मों के माध्‍यम से उर्दू को सर्वमान्‍य बनाने की बाद की चिन्‍ता का पूर्वरूप थी परन्‍तु जनता तो जो भाषा बोलती है उसे आकांक्षा से नहीं बदला जा सकता । यह उनकी विफलता नहीं थी, इस्‍लामी संस्‍कृति के वर्चस्‍व की अन्तिम कोशिश थी जिसे विफल होना ही था।

पर प्रभावशाली और मुखर मध्‍यवर्ग का उदय न हो सका। उच्‍चशिक्षा मुख्‍यत: सामन्‍ती परिवारों तक सीमित रह गई जब कि हिन्‍दू समाज में उच्‍चशिक्षा में मुख्‍य भूमिका ब्राह्मणों और कायस्‍थों की रही जो गैर सामंन्‍ती थे, इनमें अपवाद स्‍वरूप ही किसी के पास जमींदारी तक रही हो सकती है। यही वर्ग पुरानी मूल्‍यप्रणाली के प्रति आलोचनात्‍मक

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