Post – 2017-07-27

भारतीय मार्क्सवादी

बात आज से तीस एक साल पहले की है। वी.एस. पाठक उन दिनों गोरखपुर विश्वविद्यलय में प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष थे। हड़प्पा सभ्यता और ऋग्वेद के लेखन से पहले इस विषय में मेरी जो समझ थी उससे उनको अवगत कराते हुए यह चाहता था कि किसी शोधार्थी से अनुसंधान करायें। मैं अपनी पूरी सामग्री और सहयोग उसे दे ने को तैयार था। उन दिनों मेरी नजर में वहां रीडर के पद पर कार्यरत सच्चिदानन्द श्रीवास्तव थे जो श्रमण संस्कृति पर पाठक जी के निर्देशन में काम कर रहे थे, पर विषय संभल न रहा था। मेरी आरंभ से यह इच्छा थी कि जिन विषयों पर मेरी भिन्न राय है उसके अनुसार उस क्षेत्र में काम करने वाले शोध करें तो वह आधिकारिक भी माना जाएगा और वह लक्ष्य भी पूरा होगा। मुझे हर बार यह लगता रहा कि कम जिस स्तर का और जिस प्रविधिगत अखोटता से होना चाहिए, मुझसे हो न पायेगा । मुझे समझने में लोग अक्सर कई तरह की गलतियां करते हैं, परन्तु मैं अन्य किसी प्रलोभन की बात तो दूर यशलिप्सा से भी, जो महान पुरुषों की भी दुर्बलता मानी जाती रही है, झेंपता रहा हूँ । परन्तु एक बार यह समझ लेने के बाद कि हमारे समाज और इसके इतिहास को जानबूझ कर विकृत किया गया है, मैंने जो संकल्प लिया कि इसको उजागर करके ही रहूँगा, मै इसके लिए अप्रमाद कार्यरत रहा हूं। मार्क्सवाद भी मुझे इसीलिए आकर्षक लगता रहा कि यह, मेरी अपनी समझ से, अन्याय, झूठ और पाखंड को निर्मूल करने का दर्शन है।

पाठक जी का वैदिक साहित्य में दखल है, यह जानने के बाद ही मैं उनसे मिला था, परन्तु इस चर्चा में न वह पूरी तरह मेरी बात समझ पा रहे थे न मैं उनके श्रमण संस्कृति के माध्यम से पश्चिम से सम्पर्क को परन्तु भाषा और साहित्य सम्बन्धी मेरी जानकारी से वह बहुत प्रभावित थे। उन्क्की समझ में यह नहीं आरहा था कि जब विश्वविद्यालयों तक में गहन अध्ययन और शोध की प्रवृत्ति बहुत घाट गई है तो मैं जिसको अपने शोध और काम का कोई लाभ नहीं मिलना वह इतने कठिन साहित्य और विषय पर शोध क्यों करता रहा? यदि किया भी तो वह अपनी सारी जमा पूंजी दूसरों को सौंपने को क्यों उतारू है? आश्चर्य उन्हें मेरी स्थापना से तो होनी ही थी कि ऋग्वेद हड़प्पा सभ्यता का साहित्य है और हड़प्पा सभ्यता के उपादान वैदिक जनो के भौतिक जीवन के अवशेष हैं। उसी चर्चा में अध्यन विधि का हवाला आया तो मैंने जब बताया कि मैं मार्क्सवादी हूँ तो उन्हें दुहरा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा मार्क्सवादी इतिहासकार तो ऐसा मानते हैं, फिर आप मार्क्सवादी कैसे हो सकते हैं? तो उत्तर मैंने दिया उसका भाव यह था कि जो वैसा मानता है वह मार्क्सवादी हो ही नहीं सकता। वह भाववादी है, वह नस्लवादी है, उसकी सोच उपनिवेशवादी है।

यह अगला आश्चर्य है कि मेरे मार्क्सवादी कहे और माने जाने वाले मित्र अपने तई मुझे कच्चा मार्क्सवादी और कुछ दूर तक दक्षिणपंथी रुझान का मानते रहे और इसे लेकर मेरे मन में उनसे कोई मलाल न था, जब कि मैं उनकी मार्क्सवाद की समझ को गलत मानता रहा । उनकी एक कसौटी तो यही थी कि यदि मैं मार्क्सवादी हूँ तो मेरी मित्रता ऐसे लोगों से कैसे हो सकती है जो घोषित रूप से दक्षिणपंथी हैं और एक दो तो संघ से भी जुड़े हैं जिसके प्रति उपहास और तिरस्कार के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव उनके मन में है ही नहीं.\

यह हमारी सांस्कृतिक परंपरा के कारण हो या हमारी उपनिवेशवादी जहनियत के कारण हो अथवा भारतीय सामाजिक यथार्थ के कारण होए या इन सभी के मिलेजुले प्रभाव के कारण होए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की समझ मार्क्सवाद से और दूसरे देशां की कम्युनिस्ट पार्टियों से बहुत हट कर ही नहींए अपितु उनसे उलट रही है। हमने मार्क्स के विचारों और कथनों को भी विकृत करके अपने अनुरूप ढाल लिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है और उस दुर्भाग्य को कम्युनिस्ट पार्टियां और संगठन ही नहीं भोग रहेए पूरा देश भुगत रहा है। इसे लक्ष्य दूसरे भी करते होंगेए परन्तु इसके प्रति विद्रोह करने वालों में मैं अपने को अकेला पाता हूं और इस कसौटी पर परखें तो या तो दूसरे सभी धड़ों और दलों के मार्क्सवादी मार्क्सवादी हैं ही नहीं या जिस सीमा तक अपने को उनके अनुसार ढाला है केव्ल उस सीमा तक मार्क्सवादी हैं अन्यथा वे स्वयं मार्क्सवाद के नाम पर कंटक हैं और मैं अकेला मार्क्सवादी और उन सभी का विरोधी हूं और इसलिए यदि मार्क्सवादी होने का दावा करता हूं तो उनकी दृष्टि में कंटक हूं और मुझे मिटानेए बदनाम करने या मेरी उपेक्षा करके मुझे परिदृश्य से ओझल करने का उनका प्रयास गलत नहीं माना जा सकता। यह भेद वैचारिक स्तर का है इसलिए जब तक वे तर्क से मुझे निरुत्तर नहीं करते तब तक मैं उनको गलत मानने और अपने लेखन के माध्यम से गलत सिद्ध करने को एक जरूरी काम मानता हूं।

मेरी समझ में मार्क्सवाद की अधिक सही समझ उन लोगों को थी जिन्हें समाजवादी कहा गया और उनके विरुद्ध मार्क्सवादियों द्वारा ही कलुषीकरण अभियान चलाया गया। परन्तु मैं उन समाजवादियों के प्रभाव में मार्क्सवाद की ओर नहीं बढ़ा। मेरी वैचारिक यात्रा कांट मार्क्स और गांधी की दिशा में रही है और सामाजिक संपर्क में मैं समाजवादियों की जगह उन मार्क्सवादियों के ही निकट पहुंचा जिन्हें सबसे गलत मानता हूं। जब निकटता अनुभव की थी तो अनेक मामलों में गलत मानते हुए भी दूसरों की तुलना में उस दल को अधिक अनुकूल पाता था जिसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट कहा जाता है।

भारतीय कम्यूनिस्ट गांधीवाद के घोर विरोधी रहे हैं और कम्युनिस्टो के प्रति गाँधी जी के मन में उतना ही संदेह हैए फिर भी घोषित लक्ष्यों में समानता होने के कारण गाँधी मानते थे कि यदि साधनों में भी वैसी ही पवित्रता हो तो उन्हें इससे विरोध नहींण् वास्तव में कम्युनिज्म गांधीवाद और तकनीकी कौशल का समन्वय हैए हिंसा का विरोधी हैए सभी प्रकार की हिंसा की समाप्ति के लिए कृतसंकल्प है और राज्य सत्ता का इसलिए विरोधी है कि जब तक राज्य संस्था रहेगी तब तक हिंसा जारी रहेगीण् यह पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का भी विरोधी है जिसका चुनाव पूँजीवादी दबाव में समाजवादी देशों को करना पड़ाण्

गांधीवादी तरीके की शक्ति पश्चिम की समझ में उस समय नहीं आ सकती थीए अब कुछ कुछ आती है और यह समझा जाने लगा है कि गांधीवादी तरीके वहां भी कारगर हो सकते हैं। मार्क्सवाद में अल्पकालिक हिंसा एक विवशता है चुनाव नहीं और यह विवशता पश्चिम की हिंसक प्रवृत्ति के कारण है जिसमें गाँधी के प्रयोगों के बाद कुछ बदलाव आया हैण् भारतीय सन्दर्भ में मेरे विचार भारतीय समाजवादियों से मेल खाते हैंए परन्तु ठीक उन जैसे नहीं हैं। मेरी अपनी राजनीतिक दृष्टि समस्याओं से टकराते हुए बनी है और इसलिए दूसरों से अलग भी बनी है जिस पर मुझे विश्वास है फिर भी यदि विश्व के दूसरे कम्युनिस्ट या साम्यवादी देशों के उदाहरण न होते तो मैं अपने को खासा कमजोर या अरक्षणीय अनुभव करता।
अब मैं उन कारणों को गिना सकता हूँ जिनके आधार पर मैं भारतीय कम्युनिस्टों को मार्क्सवाद से भटका हुआ पाता हूँण्

शमशेर जब पार्टी से जुड़े थे तो उन्होंने लिखा था वाम वाम वाम दिशा। दूयाी सारी दिशाएं उनके लिए लुप्त हो गई थीं। बंगला का एक शब्द कहीं उनको सुनाई पड़ा ष्दिशाहाराष् तब शायद उन्हें अपनी गलती महसूस हुई और लिखी वे पंक्तियां जिनके कारण शमशेर मुझे अक्सर याद आते हैंः
हम अपने खयाल को सनम समझे थे
अपने को खयाल से भी कम समझे थे
होना ही था समझना था कहां शमशेर
होना भी वह कहां था जो हम समझे थे।
उसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली और समझा कि रचनाकार की राजनीतिक सक्रियता व्यावहारिक राजनीति से अलग होती है। यह मोहभंग केवल उनका ही न था त्रिलोचनए नागार्जुनए रामविलास शर्माए केदारनाथ सभी के साथ यह बोध अपने अपने ढंग से पैदा हुआ। मुक्तिबोध जिन्हें आजकल बहुत बढ़ चढ़ कर उद्धृत किया जाता है उनको तो प्रगतिशील लोग प्रगतिशील मानने तक से इन्कार करते रहे और श्रीकान्त वर्मा और अशोक वाजपेयी ने चांद का मुंह टेढ़ा है के प्रकाशन की व्यवस्था न की होती तो उनकी कविता भी संभवतः अन्धकार में रह गई होती