Post – 2017-07-28

अहा! जिंदगी

मैं इस पत्रिका पर काफी पहले ही बात करना चाहता था । जो चाहता हूँ वह अक्सर नहीं हो पाता, जो कहना चाहता हूँ अक्सर उससे अलग और कभी तो उससे उलट कह जाता हूँ। इसपर लज्जित नहीं अनुभव करता। जिन लोगों को अपनी वाणी पर इतना अधिकार होता है कि वे जो कहना या लिखना जानते हैं उसे कह और लिख लेते हैं, और जो कहा उससे संतुष्ट हो लेते हैं, उनके पास अपना कोई विचार होता ही नहीं। वे किसी सिस्टम के डिलीवरी बॉय होते हैं। उत्पादक नहीं वितरक।

विचारक वह लाचार प्राणी होता है जो अपनी विवशता के बाद भी स्वयं अपने चिन्तन या सृजन के क्रम में अपने को जानता, अपनी महिमा के सामने एक तुच्छ प्राणी की तरह करबद्ध हो जाता है, और प्रश्न करता है यह जो हुआ वह मेरे किए हुआ या तुमने किया ओ विराट! इसी विस्मय का उत्तर ढूढ़ते सर्जना की देवी सरस्वती की उद्भावना की गई थी और अन्यथा भी रचनाकार अपने को माध्यम और किसी अदृश्य सत्ता को सर्जक मानते रहे है : कविता करने और कविता के अपने माध्यम से सृजित होने या कविता के कारण कवि बनने – लोग हैं लागि काबित्त बनावत मोहें तो मेरे काबित्त बनावत!

परन्तु मुझे अपनी अकिंचनता पर अवश्य लज्जित अनुभव करना पड़ता है ! कुछ मित्रों को यह भ्रम है कि कुछ विषयों की मेरी जानकारी खासी अच्छी है। वे यदा कदा अनुरोध करते हैं कि मुझे अमुक विषय पर लिखना चाहिए। कई बार प्रकाशकों को भी यह भ्रम हुआ। उन्होंने मुझे अपनी ओर से तय किए गए विषय पर लिखने को इस तरह घेरा कि अपनी असमर्थता का रोना रोने के बाद भी बच कर निकल न सका। महाभिषग, उपनिषदों की कहानियां, पंचतंत्र की कहानियां इसी का परिणाम हैं।

परन्तु यदि कोई समझे, या मैं यह दावा करूं या मेरे किसी कथन से यह भ्रम पैदा हो कि मेरा उपनिषदों का, पंचतन्त्र का, वेदों, वेदांगों का ज्ञान आधिकारिक है तो यह एक छलावा होगा। मैं यह स्पष्टीकरण इसलिए कर रहा हूँ कि मेरे किसी कथन या निष्कर्ष को जांचते हुए पढ़ा जाय. जांचने के बाद मानने पर वह मेरा विचार न रहकर आपका विचार हो जाता है और खोटा पाए जाने पर वह धुल कर मिट जाता है.

अतः किसी भी पाठक के देा काम होते हैं एक तो सूचना या ज्ञान के स्रोत से अपने ज्ञान का विस्तार और दूसरा अपने पहले के ज्ञान से उसका मिलान करते हुए यह देखना कि पहले का ज्ञान कितना सही या गलत था और इस नए स्रोत से उपलब्ध ज्ञान कितना प्रामाणिक है। यह निश्चय करने का एक ही तरीका है कि हम यह जांचते चलें कि किसी भी स्रोत में कितनी अविकलता या अन्तःसंगति या अन्तर्विरोध है और उसी सूचना का उपयोग करने वाले दूसरे क्षेत्रों से उसकी संगति है या विसगति। उन विविध क्षेत्रों में किसी स्थापना के लिए कोई निर्णायक प्रमाण है या नही.

इन बातों की और ध्यान दिलाना आज इसलिए जरूरी हो गया है कि आज, विशेषतः इस संचार माध्यम से अन्यथा सुधी और सतर्क माने जाने वाले भी ऎसी जुमलेबाजी करने लगे हैं जिससे उनकी अधोगति पर खेद होता है. हम गहरे सांस्कृतिक संकट से गुजर रहे हैं! इसमें सभी तरह के स्खलनों से भाषा, विचार, संचार और संस्कृति को बचाना अपने मोर्चे पर खड़े होकर युद्ध करने का पर्याय बन गया है. विचार करना होगा कि क्या सूचना, ज्ञान और चिंतन को एक परिवर्तनकारी अभियान में बदला जा सकता है.

मैं लम्बे समय से अपने लेखन के माध्यम से और अन्यथा भी इस बात को दुहराता रहा हूँ कि बुद्धिजीवी का काम शिक्षक का है, चिकित्सक का है. इसे मेरी निजी सूझ भी नहीं माना जा सकता. समाचार, विचार, और मनोरंजन से जुड़े माध्यम अपराधीकरण और बाजारीकरण से पहले यह काम करते रहे है. हम उस अतीत को जानते हैं और जानते हुए भूल गए हैं. सचेत रूप में उस भूमिका की अवज्ञा करते हैं और यह मानसिकता अधिक डराने वाली है.

मैंने अपनी अल्पज्ञता और अग्यता का स्मरण इसलिए दिलाया कि मुझे ‘अहा! जिन्दगी’ के बारे में पता ही न था. हो सकता है आप में से भी बहुतों को पता न हो जब कि यह पत्रिका दो प्रारूपों में दस साल से निकल रही है और यह अपने वैभव काल के धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, कादंबरी आदि पत्रिकाओं से आगे ही नहीं है मेरी उस कल्पना को काफी पहले से, कम से कम, आलोक श्रीवास्तव के सम्पादन के बाद से तो निश्चय ही निभाती आ रही है. हाल के दिनों में अनेक संपादकों ने इस गंभीर दायित्व को समझा है. परन्तु उन सभी में यह सबसे पठनीय ही नहीं सबसे सर्जनात्मक पत्रिका है और मै कौसानी न जाता तो आज भी मुझे इसका पता न चलता. मैं इसकी विस्तार से समीक्षा करना चाहता था यह बताते हुए कि इसकी विशेषता क्या है परन्तु जिस आदमी ने कोई काम पूरा किया ही नहीं उसका रिकार्ड ख़राब होने से बच जाय यह भी क्या कम है. आप पढ़ते हैं तो जानते होंगे, नही पढ़ा तो पढ़ कर बताएं कि मैंने कही अतिरंजना से तो काम नही लिया?

इसकी अनेक विशेषताओं मे से एक है मुझे अज्ञात नए लेखकों द्वारा खासा प्रभावकारी लेखन जो यह आशा जगाता है कि आप में से बहुत से लोग यदि संयत भाषा में निषपक्ष , निडर और समर्पित भाव से अपनी जानकारी के विषय पर टिप्पणियां करें तो अच्छा लिख सकतें हैं और संवाद का स्तर और इस मंच की सार्थकता को चार नहीं तो भी एक दो चांद तो लग ही सकते हैं।