Post – 2018-10-28

#भारतीय_मुसलमानः पुनश्च -2

1803 में दिल्ली के शाह वलीमुल्ला ने एक फतवा जारी कर ऐलान किया था कि अब हिन्दुस्तान दारुल इस्लाम नहीं रह गया। इसमें यह संदेश निहित था कि मुसलमानों को धर्मयुद्ध आरंभ करना चाहिए। इसे लेकर कंपनी के प्रशासकों में भारी बेचैनी थी और वे भारत से लेकर मक्का तक के मुल्लों मौलवियों से यह सनद लेने का प्रयत्न करते रहे कि अंग्रेजी राज्य में मुसलमानों को अपने धार्मिक कृत्यों को अपने ढंग से निभाने में किसी तरह की रुकावट नहीं है, इसलिए यह आज भी दारुल इस्लाम है।

इस सवाल पर काफी लंबी बहस हंटर की उस पुस्तक में भी है जिसके हवाले हमने पहले दिए है। उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से भारत में एक संगठित मुस्लिम विद्रोह सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में आरंभ हो गया था इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। यह इतना व्यापक था कि अंग्रेजों के मन में अपने शासन की स्थिरता के विषय में चिंता आरंभ हो गई थी।

उन्नीसवीं सदी में ही मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वाले दो मंच तैयार हो चुके थे। एक उलेमा का, जो अंग्रेजों के घोर विरोधी थे और जिन्होंने 1803 में इस आशय का फतवा जारी किया था की हिंदुस्तान अंग्रेजों के आने के कारण दारुल हर्ब बन गया है और जब तक इनको हटाया नहीं जाता, दारुल इस्लाम नहीं बन सकता।

दूसरा असुविधा और अपमान झेल कर भी, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादारी दिखा कर अपने लिए रियायतें हासिल करने वाला नवाबों और रईसों का तबका था जो अपेक्षित योग्यता पाने और अपनी जीवनशैली को आधुनिक बनाने को तत्पर था। इन दोनों के परस्पर विपरीत होते हुए भी दो भिन्न समाजद्रोही चरित्र हैं।

पहले के क्रान्तिदूत सैयद अहमद शाहिद थे, जो चले अंग्रेजों से धर्मयुद्ध लड़ने और जा कर टकरा गए सिक्खों से और 41 साल की कम उम्र में शहीद हो गए। अतिशय जज्बाती होने को कारण इनका दिमाग उल्टी दिशा में फेरा जा सकता है।

दूसरे का जन्म सर सैयद अहमद के साथ हुआ था और आरंभ में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को साथ लेकर चलने का दावा करता था। परंतु यह दावा अपनी शर्तों को मनवाने का एक पाखंड था, क्योंकि मुसलमानों की अतिरिक्त वफादारी का इस्तेमाल वह हिंदुओं से आगे बढ़ने के लिए कर रहे थे, युक्तप्रांत में हिंदुओं को मुसलमानों से जो बच जाए उससे संतोष करने और चूं चपड़ न करने की शर्त पर कर रहे थे। हिंदुओं का साथ उन्हें कांग्रेस से अलग रखने के लिए एक रणनीतिक दिखावा भी था। जिस धरती को हिंदू माता के रूप में आदर करते हैं, उसकी तुलना वह एक रूपवती दुल्हन से करते थे, जिसकी दो सुंदर आंखें हिंदू और मुसलमान थे, परंतु उनका पूरा प्रयत्न दोनों आंखों में एक को फोड़ देने का था जिससे केवल दूसरी बची रहे उसके अनुसार ही दुनिया को देखा जाए, उसी के अनुसार चला जाए। इसी दशा मे ही वे प्रेम से रह सकते थे। हम देख आए हैं कि नागरी की स्वीकृति के लिए चल रहे आंदोलन को हिंदुओं की सांप्रदायिकता मानते हुए उन्होंने यह दिखावा भी छोड़ दिया था कि अब दोनों समुदाय साथ मिल कर रह सकते हैं।

इनमें प्रगतिशील इतना ही था कि उन्होंने यह समझ लिया था कि आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी था आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी था और इसलिए वह मुसलमानों को मध्यकालीन घेराबंदी से बाहर ले आना चाहते थे। परन्तु आरंभ से आज तक इनका सारा प्रयत्न हिन्दुओं को नीचा दिखाने, उनका इतिहास और सामाजिक ढांचा नष्ट करने का रहा है।

उलेमा, चाहे देवबंद के रहे हों या बरेली के, वे किसी भी ऐसी चीज का विरोध करते थे जिसका किसी रूप में अंग्रेजों से संबंध हो। इसमें भाषा, पोशाक, पश्चिमी ज्ञान, आधुनिक विज्ञान, बौद्धिक चिंतन और तार्किकता सभी रूप आते थे। केवल आधुनिक आविष्कारों से मिलने वाली सुविधाओं को स्वीकार करने में उतना परहेज नहीं था। मानसिक रूप में ये अशोध्य पिछड़ेपन के शिकार थे। इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि इससे पहले जाहिलिया का दौर था और मुहम्मद साहब अपने समाज को उससे बाहर लाए। इसे समझने में यदि दिक्कत होती हो तो समझ लें कि इंसानी दिमाग की उपज, सारा ज्ञान-विज्ञान, खुराफात से भरा है। जाहिलिया का रूप है। इससे लौट कर बद्दू अवस्था में पहुंचना रौशनखयाली है। मदरसों से वे ऐसे ही रौशनखयाल बच्चे निकालते हैं जिनको आगे कुछ जानने, समझने यहां तक कि सोचने तक की जरूरत नहीं रह जाती। सोचना भी तो दिमाग का फितूर ही है, इंसान कोई सही चीज सोच ही नहीं सकता।

परंतु जहां तक हिंदुओं के साथ का प्रश्न था वे अपना प्रधान शत्रु अंग्रेजों को मानते थे। उन्होंने विरोध किया पर कुटिलता से काम न लिया। जब तक निशाने पर वे हैं, हिंदू पूरी तरह सुरक्षित ही नहीं हैं, अजीज भी हैं। इनमें हिंदुओं को साथ लेने और उनसे प्रेम भाव कायम करने की पहल खरी थी। एक नारा ही था कि हम हिंदू मुस्लिम दोनों भाई, यह कहां से आ गया ईसाई । इबारत में मामूली फर्क हो सकता है।

बंगाल में इसी का प्रभाव अधिक था। बंगाली मुसलमान को हिंदुओं से इस बात को लेकर कोई शिकायत नहीं थी कि उन्होंने कंपनी में सरकारी नौकरियों में जगह बना ली, क्योंकि वे उनके आगे झुकने और कोई रिआयत लेने को ही तैयार नहीं थे। वह भाषा सीखने को भी तैयार नहीं जिसको जानने के बाद ही ये नौकरियां मिल सकती थीं। वे जानते थे हिंदुओं ने उनसे कुछ नहीं छीना है। उनकी उदासीनता के कारण उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाया है। धार्मिक कट्टरता प्रबल होने पर लाभ हानि की चिंता नहीं की जाती, बल्कि हानि एक तरह की कुर्बानी जैसी प्रतीत हो होती है और इस पर गर्व तक किया जाता है। इससे दूसरों से पिछड़ जाने का भी अफसोस नहीं होता।

मदरसों की शिक्षा अल कुरान तक की शिक्षा, अंग्रेजी शिक्षा की खुराफात से बचे रहने की जिद, कम खतरनाक नहीं है, परंतु जिस सामाजिक समीकरण पर हम विचार कर रहे हैं उसमें बंगाल के मुसलमानों का हिंदुओं के प्रति कोई विरोध न रहने का सब से अधिक नुकसान अंग्रेजों को था, जिनकी फूट डालो और राज्य करो की नीति आसानी से सफल नहीं होने जा रही थी इसलिए यद्यपि बंगाल को धार्मिक आधार पर बांट कर दोनों समुदाय में कलह पैदा करने की योजना 1903 में ही सूझ गई थी परन्तु इसे अमल में लाने के तराके पर विचार करने मेे दो साल लग गएः
“सर्वप्रथम 1903 में बंगाल के विभाजन के बारे में सोचा गया। चिट्टागांग तथा ढाकाऔर मैमनसिंह के जिलों को बंगाल से अलग कर असम प्रान्त में मिलाने के अतिरिक्त प्रस्ताव भी रखे गए थे। इसी प्रकार छोटा नागपुर को भी केन्द्रीय प्रान्त से मिलाया जाना था। सन् 1903 में ही कांग्रेस का भी 19वाँ अधिवेशन मद्रास में हुआ था। उसी अवसर पर उसके सभापति श्री लालमोहन घोष ने अपने अभिभाषण में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति की आलोचना करते हुए एक अखिल भारतीय मंचपर आसन्न वंगभंग की सूचना दी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का एक षड्यंत्र चल रहा है।

सरकार ने आधिकारिक तौर पर 1904 की जनवरी में यह विचार प्रकाशित किया और फरवरी में लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल के पूर्वी जिलों में विभाजन पर जनता की राय का आकलन करने के लिए अाधिकारिक दौरे किये। उन्होंने प्रमुख हस्तियों के साथ परामर्श किया और ढाका, चटगांव तथा मैमनसिंह में भाषण देकर विभाजन पर सरकार के रुख को समझाने का प्रयास किया। हेनरी जॉन स्टेडमैन कॉटन, जो कि 1896 से 1902 के बीच आसाम के मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) थे, ने इस विचार का विरोध किया।”

जो भी हो अंग्रेजों के इतने खुले और जोरदार प्रयत्न के बाद हिन्दू और मुसलमान दोनों ने इसका विरोध किया और हिंसक प्रतिरोध तथा अंग्रेजी सामानों के बहिष्कार के बाद पांच साल के बाद ही इसे वापस लेना पड़ा। इसे कहते हैं मुंह की खाना।