#भारतीय_मुसलमानःविभेदचक्र
सर सैयद के जीवन काल में जो काम पर्दे की ओट से हो रहा था, वह उनके अभाव में इतना खुल कर होने लगा कि स्वयं वाइसराय को मैदान में उतरना पड़ा और वह भी नंगा हो कर – बंगाली मुसलमानों को अलग राज्य पर खुशियां मनाने और इस बात का कायल करने के लिए कि अलग रहने में ही तुम्हारा भला है। कर्जन के उत्तराधिकारी मंटो को भी उसी तरह आगे बढ़कर रईसों को उत्साहित करना पड़ा कि कांग्रेस से अपना विरोध कांग्रेस की तरह ही कोई संगठन बना कर करो। उन्हें वह करना ही था क्योंकि रईसों, नवाबों और अंग्रेजों के शत्रु एक ही थे – जो पराधीनता और दमन के विविध रूपों से मुक्ति चाहते थे । अतः वे केवल अंग्रेजों से ही नहीं, देसी राजाओं, जमीदारों और नवाबों से भी मुक्ति चाहते थे इसलिए उनका हित स्वतंत्रता आन्दोलन को विफल करना या यदि ऐसा न भी हो सके तो इसके मार्ग में अड़ंगे लगाकर इसे जितना टाला जा सकता था उतना टालना चाहते थे। इस मामले में हिन्दू मुसलमान में फर्क न था, फिर भी यह फर्क था कि हिंदुंओं में शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हो चुका था। मुसलमानों में रईसों से हो कर शिक्षा नीचे को उतरी थी और वहां मदरसों की शिक्षा प्रचलित थी जिसमें आधुनिक संस्थाओं तक की समझ का अभाव था इसलिए देवबंद की ललकार के बाद भी कि मुसलमानों को कंग्रेस का साथ देना चाहिए, कांग्रेस में मुसलमानों की भागीदारी अपेक्षाकृत कम थी, यद्यपि अनुपात बढ़ रहा था।
यहां प्रसंगवश यह कहना जरूरी है कि पहले भले मुसलमानों में सभी की शिक्षा अरबी से आरंभ हो कर प्राय: अरबी पर ही समाप्त हो जाती थी, फारसी की भी जरूरत नहीं पड़ती थी, उर्दू सीखने का सवाल ही नहीं था इसलिए साहित्य या शेरो-शायरी तक में मजहबी मुसलमानों की खास दिलचस्पी नहीं होती थी, राजनीतिक जागरूकता जिहादी हंगामेबाजी की शक्ल लेकर ही आती या बहुत जल्द उसी में बदल जाती, जैसा कि सैयद अहमद शाहिद के आन्दोलन के मामले में या खिलाफत के बाद अंग्रेजों के प्रति सशस्त्र विद्रोह ने ले लिया था, जिन्होंने यह प्रचारित कर दिया था कि खिलाफत कायम हो चुकी है। अब उन्हें मुल्क को काफिर हिन्दुओं से आजाद करने के लिए जिहाद करना चाहिए। उनकी यह उल्टी शिक्षा अंग्रेजों को रास आती थी, जिसका वे बहुत चतुराई से इस्तेमाल करते रहे।
यह संयोग भी हो सकता है कि १९०६ में ही कांग्रेस ने अपनी मांगों में स्वायत्त शासन की मांग की उसी साल लखनऊ, शिमला के जोड़तोड़ से आगे बढ़ते हुए ढाका में ३००० रईसों की जुटान हुई और आल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जिसकी सदारत के लिए ढाका के नवाब को चुना गया। “इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य था- ‘भारतीय मुस्लिमों में ब्रिटिश सरकार के प्रति भक्ति उत्पत्र करना व भारतीय मुस्लिमों के राजनीतिक व अन्य अधिकारो की रक्षा करना।’ ‘मुस्लिम लीग’ ने अपने अमृतसर के अधिवेशन में मुस्लिमों के पृथक् निर्वाचक मण्डल की मांग की, जो 1909 ई. में मार्ले-मिण्टो सुधारों के द्वारा प्रदान कर दिया गया।”*
{nb. *Pursuant upon the decisions taken earlier in Lucknow meeting and later in Simla; the annual meeting of the All-India Muhammadan Educational Conference was held at Dhaka that continued from 27 December, until 30 December 1906. Three thousand delegates attended, headed by both Nawab Waqar-ul-Mulk and Nawab Muhasan-ul-Mulk (the Secretary of the Muhammaden Educational Conference); in which he explained its objectives and stressed the unity of the Muslims under the banner of an association.Wikipedia}
इन्हें राजनीतिक मांग के रूप में अंग्रेजों से कुछ नहीं मांगना था, केवल यह दावा करना था कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है, मुसलमानों के हितों की रक्षा वह नहीं कर सकती। स्वतंत्र होने का अर्थ सत्ता उनके हाथ में आनी है, जिसमें उनकी असुरक्षा बढ़ जाएगी, इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए अंग्रेजी राज को स्थाई रूप से यहां रहना चाहिए या उनका प्रतिनिधित्व अनुपातत: जनसंख्या की तुलना में बहुत अधिक होना चाहिए। मुसलमानों में बात बात पर असुरक्षित अनुभव करने का जो दौरा पड़ता है और उसके साथ ही ‘यह दिल मांगे मोर’ की डकार आती रहती है, उसकी टेस्ट रिपोर्ट यही है। इसका गणित है ‘असुरक्षित’=’यह दिल मांगे मोर।’और सन्देश है, ‘यदि हमारी असुरक्षा दूर नहीं हुई तो नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहो।’
इसमें जो ऐतिहासिक परिवर्तन हुआ है वह यह कि वही कांग्रेस जो तब हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती थी आज मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि हिंदुओं की सचमुच एक पार्टी सत्ता तक पहुंच गई है, और कभी के लीगी कांग्रेस में घुस गए हैं इसलिए कांग्रेस स्वयं भी इसके कारण असुरक्षित अनुभव करने, जप, तप, पूजा, पाठ करने लगी है पर इसके बाद भी अन्त:करण की मलिनता को छिपा नहीं पाती है और शिवलिंग पर बिच्छू रख कर उसे चप्पल से पीटने लगती है।
पर जो भी हो जिस समय की बात हम कर रहे हैं, रईसों की इस पार्टी को आम मुसलमानों ने समर्थन नहीं दिया दिया था। अंग्रेजों ने मुस्लिम रईसों की पार्टी के प्रयोग से उत्साहित हो कर लगभग उसी तरीके से हिन्दू जमीदारों और राजाओं के सहयोग से हिन्दू महासभा का गठन कराया जिससे यह दावा भी किया जा सके कि कांग्रेस सभी हिन्दुओं तक का प्रतिनिधित्व नहीं करती, परन्तु इसमें शिक्षित मध्यवर्ग के कुछ प्रभावशाली ब्राहमण भी थे और वे कांग्रेस के साथ भी जुड़े थे इसलिए इसने मुस्लिम लीग के विरोध में तेवर अपनाया, पर कांग्रेस विरोधी कोई माग नहीं रखा।
परन्तु शिक्षित मध्यवर्ग के इन ब्राह्मणों की संख्या कांग्रेस में अधिक ही नहीं, प्रभावशाली भी थी। इसका लाभ उठाकर लीगियों की ओर से हिन्दुओं की पार्टी करार दी गई कांग्रेस को हिन्दुओं के बीच ब्राह्मणों की पार्टी बताते हुए यह संदेश दिया गया कि दलितों के हित ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता आने पर शूद्रों दमितों के हित सुरक्षित नहीं हैं इसलिए जिन्हें खोने को कुछ न था पाने को बहुत कुछ था, वे भी अपने हितों की सुरक्षा के लिए मत जा ‘मत जा रे गोरे, पांव पड़ूं मैं तोरे’ का कीर्तन करने लगे। और जहां तक सिखों का सवाल है, मुसलमानों की तरह उनका तो मजहब ही अलग था। उनको तो मुसलमानों की तरह जब तक खालिस्तान न मिला तब तक आजादी मिल भी गई तो उसे मास्टर तारा सिंह कहां रखेंगे, यही तय नहीं हो पा रहा था।
ज्यों ज्यों स्वतंत्रता का आंदोलन तेज हो रहा था, स्वतंत्रताजन्य असुरक्षा का दायरा बढ़ता जा रहा था और असुरक्षित जनों को सुरक्षा केवल अंग्रेजों के रहने से ही मिल सकती थी। किसी को इस बात की चिंता नहीं की स्वतंत्रता आंदोलन के शक्तिशाली होने के साथ ही ये सभी तरह के असंतोष, ब्रिटिश संरक्षण में, क्यों पैदा किए जा रहे हैं ? वे जानते सब कुछ थे पर अपने छोटे स्वार्थ के लिए वे पूरे देश की स्वतंत्रता को दांव पर लगाने को तैयार थे और इस माने में वे उन रईसों, रजवाड़ों, जमींदारो, कंपनी के अमलों से किसी माने में भिन्न न थे। अपने वर्ग का हित नहीं अपने धर्म समुदाय की चिंता नहीं बल्कि अपने लिए कुछ पाने की चिंता उन लोगों में भी पैदा हो गई थी जिनके त्याग और तपस्या की कहानियां गढ़ पूरा इतिहास भर दिया गया । जिन्ना, अंबेडकर, मास्टर तारा सिंह सभी देश को तोड़कर भी उसके किसी टुकड़े का प्रधान होने की लालसा से ग्रस्त थे, परंतु इस नंगे सच को स्वीकार नहीं कर सकते थे। नेहरू स्वयं भी इसके अपवाद न थे। लंबी दासता के कारण हमने स्वतंत्रता की पहचान तक खो दी थी।#भारतीय_मुसलमानः