#भारतीय_मुसलमानः मानसिकता में बदलाव (1)
हमारी समस्या मुस्लिम लीग का बनना या हिन्दू महासभा का बनना या उनके कारनामे नहीं हैं, भले उनके माध्यम से कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न किया गया हो। ये दोनों ब्रिटिश कूटविदों की कृतियां थीं। उसमें अपने स्वार्थ के कारण इनकी भूमिका मात्र निमित्त की थी, या वास्तु कृति से उपमा दी जाए तो यह मात्र ईटऔर गारे थे जिनका उपयोग करते हुए अंग्रेज नफरत का पर्यावरण तैयार करना चाहते थे।
हिंदू महासभा के बारे में यह बात पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि उसमें कुछ का कांग्रे से जुड़ाव था, परंतु मुस्लिम लीग के बारे में यह बात काफी दूर तक सही है। वे नहीं जानते थे, वे क्या कर रहे हैं, या जानते थे तो यह कि गुलाम बने रहने के सुख आजादी के बाद छिन जाएंगे।
हमारे लिए महत्त्व की बात यह है कि न तो आम मुसलमानों ने, न ही आम हिंदुओं ने पहले मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा का साथ दिया। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, परंतु हिन्दुओं ने उनका भी कभी साथ नहीं दिया। वे बहुत प्रयत्न से अपने सदस्य तैयार करते रहे और गर्व करते रहे कि उनका प्रसार इतने लाख या करोड़ लोगों में हो चुका है। यह हिन्दू आबादी का बहुत क्षुद्र अंश था। शेष भारत के हिंदू उनके प्रभाव से बाहर थे।
हम देख आए हैं कि मुसलमानों के दो वर्ग थे। एक भारतीय, दूसरे विदेशी। पहला यहीं के निवासी और धर्मान्तरित जो सारा कामकाज संभालता था। दूसरा विदेशी जो अपने विदेशी मूल पर गर्व करता था और जिसे जागीरें मिली थी जिनकी वसूली से वह दिन काटने के लिए मौजमस्ती के तरीके अपनाता था। काम के नाम पर उसके पास यही था। इसी वर्ग ने आत्मरक्षा की चिंता में पहले अंग्रेजों की सलाह से स्वतंत्रता आंदोलन में व्यवधान डालने के लिए मुस्लिम लीग कायम की थी और कुछ बाद में कम्युनिस्ट होने लगा। कहें, कम्युनिस्ट मुसलमान क्राति करने की चिन्ता से नहीं, अपनी हैसियत बचाए रहखने की चिंता से कम्यु्निस्ट बने थे। वे ही थे जो इस देश मे रहते हुए इसे अपना नहीो मानते थे, उस देश को मानते थे जहां से आए थे।
साधारण मुसलमानों के साथ ऐसा क्या हुआ कि वे उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से हिंदी प्रदेश में और किसी न किसी पैमाने पर पूरे भारत में लीग के समर्थन में चले गए और तब से लगातार उनका सांप्रदायीकरण बढ़ता चला गया।
यह आरोप बहुतों को गलत लग सकता है, क्योंकि मुसलमानों को सेकुलर और दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों को सांप्रदायिक सिद्ध करने वालों की कमी नहीं है, यद्यपि उनके निष्कर्षों के आगे पीछे कुछ पीले धब्बे भी दिखाई देते हैं। सच यह है कि वे सेकुलर ही नहीं भारतीय सेकुलरिज्म के कस्टोडियन हैं। सेकुलर होने का दावा करने वाले मुसलमानों से प्रमाण पत्र पाकर सेकुलर सिद्ध हो चुके हिंदुओं का भी मानना है कि यदि सांप्रदायिकता दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों में ही है। मैं अधिक से अधिक उनको गलत कह सकता हूँ। वे इससे खिन्न हो कर मुझे भी दक्षिणपंथी बताकर अपने दावे पर टिके रह सकते हैं। इसलिए, एक निर्णायक साक्ष्य या प्रमाण से अपनी बात को पुष्ट करना जरूरी है।
लीग का नेतृत्व जिन्ना के हाथ में आने के बाद भी मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम लीग के उम्मीदवार हारे थे और कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे। फिर उसके बाद एक छोटी सी घटना घटी जो इस निर्वाचन के बाद घटित हुई थी। यह थी कम्युनिस्ट पार्टी के पाकिस्तान के समर्थन में खड़े होने की । इस छोटी सी घटना को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इस निमित्त हुई बैठक में ही संपन्न होना था।
कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदू सदस्यों का भी उसी उत्साह से उसके समर्थन में आना कुछ अविश्वसनीय लगता था। बलराज साहनी किसी लेख में या इंटरव्यू में इसके पक्ष में दलील है। पहली बार यह सुनकर कि यह उचित है, लगा यह मेरी समझ से परे का विषय था। कम्युनिस्ट पार्टी को इससे आगे की जाने वाली क्रांति का यह रिहर्सल लग रहा था। राज थापर के आत्म संस्मरण में विभाजन के समय हुए दंगों पर श्रीपाद डांगे का कथन पढ़ कर भी, उनका उत्साह अविश्वसनीय लगा था।* पर उनके बीच ऐसी धारणा इसलिए बनी कि कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदू सदस्य हिंदू नहीं रह गए थे ।कम्युनिस्ट हो जाने के बाद मनुष्य सबसे पहले मजहबी और देशी दीवारों को तोड़कर विश्वमानव हो जाया करता है। हिंदू हो तो विश्वमानव बनना अधिक आकर्षक और अधिक आसान दोनों होता है, क्योंकि हिंदुत्व को गालियां देने के बावजूद हिंदुत्व की जो छवि वे आज के हिन्दुत्व की आलोचना में प्रस्तुत करते हैं वह उसके विश्वमानव होने की ही होती है। एक तरह से वे स्वयं आदर्श हिंदू और विश्वमानवता की प्रतिमा बन जाते हैं।
{nb.I remember meeting S.A.Dange around then. He was the legendary leader of the Bombay working class, slight in frame, charismatic, but permeated with Maharastrian cynicism….He was then in the throes of a grand romance with a Czech girl and there was much gossip flying around about the two. Anyway he came, and I poured out my anguish at being thousands miles away from home when home, which was to be Pakistan, was burning away with the angry frustrations of many life times finding fulfillment in brutal distortions, using revenge and religion to wash down the horrors.
Dange looked at me impassively, with almost a gleam of secret delight. ‘Don’t worry, Raj,’ he said. ‘Let our people taste blood, let them learn how to draw it. It will make the coming revolution easier.’ 43}
परंतु मुस्लिम कम्युनिस्टों के साथ विश्वमानव की छवि कट्टर मुसलमान की होने की है जो आदर्श बद्दू खानाबदोशी का कायल होने के कारण पहले से ही पूरी दुनिया को अपना घर मानता है। फिकरा तो किसी ने व्यंग्य में भी बनाया हो सकता है, परंतु है बहुत सटीक – रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा। इसका सीमित अर्थ इसकी दूसरी कड़ी बना कर कर सकते हैं- बंगाल भी हमारा, पंजाब भी हमारा, पाकीस्तां हिंदोस्तां हमारा। लेकिन कुछ लोग इस पर आपत्ति करेंगे। सच को कहने का ही नहीं, देखने तक का साहस बहुत कम लोगों में होता है और जिनमें होता है उनमें भी कुछ लोग लिहाज करके चुप रह जाना पसंद करते हैं।
परंतु यह स्थिति भारतीय मुसलमानों के कारण नहीं आई है, विदेश से अपनी जड़े और प्रेरणा के स्रोत जोड़ने वालों के कारण आई, अंग्रेजों के कारण जो एक और तो घबराकर लीग का गठन कर बैठे थे और दूसरे जिन पर हो सकता है पहले उलेमा का प्रभाव रहा हो इसलिए जिन्होंने मुस्लिम लीग को सही विकल्प माना हो, या ऐसे रईसों के कारण जिन्होंने रूसी क्रांति से प्रेरित होकर, या हो सकता है बद्दू समाज के आदिम समाजवाद से प्रेरित होकर, कम्युनिज्म को अधिक सही रास्ता माना हो। हम उनका मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं बल्कि इतिहास के इस मोड को यथासंभव वस्तुपरक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं और यह याद दिलाना चाहते हैं कि भारत का मुसलमान कम्युनिस्ट उससे अधिक मुसलमान था जितने तालिबानी हुआ करते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के चरित्र निर्धारण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है उसके द्वारा मुसलमानों का इस्तेमाल तो कर ही लिया गया हिंदू कम्युनिस्टों का भी इस्तेमाल कर लिया।
अब रईस मुसलमान अपनी जीवनशैली में कोई परिवर्तन के बिना प्रखर क्रांतिकारी बन जाता है, फासिस्ट मुहावरों में क्रांति लाने लगता हैः
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी। उस खेत के हर खोश-ए-गन्दुम को जली दो। जोश
भाषा वही रहेगी जिसकी हिमायत जान बीम्स ने की थी। क्रांतिकारी कविता में भी शब्दों का अर्थ समझने के लिए या तो फुटनोट लगाना पड़ेगा या अपने संप्रेषण को उस दायरे के भीतर रखकर ही प्रसन्न रहना होगा जो इसे समझता है। सिनेमा पर पैसा लगाने वालों का अपने घाटे मुनाफे का सवाल था कि इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि यह लोगों के लिए पूरी तरह दुर्बोध न हो जाए।
इस्लामी मूल्यों, मान्यताओं, प्रतीकों, संस्कार और लिपि को अपनाना और सुरक्षित रखना उनकी सर्वोपरि प्राथमिकता थी। हिंदुत्व साम्यवाद की राह में बाधा है, इस्लाम में तो कम्युनिज्म पहले से है- मिटाना और दूर करना बाधा को है। इसलिए प्रगतिवाद के सारे प्रहार हिन्दू रीतियों, व्यवहारों, संस्कारों और प्रतीकों पर किए जाते रहे।
हिंदू कम्युनिस्ट इस डर से कि कहीं उसे हिंदुत्ववादी रुझान वाला न सिद्ध कर दिया जाए, उनकी जीवनशैली और उनके द्वारा पार्टी के लिए अपनाई गई कार्यशैली की आलोचना तक नहीं करता था। वह उनके माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी में बोई जा रही मुस्लिम लीगी मानसिकता का विरोध तक नहीं कर सका। अपने को पक्का कम्युनिस्ट सिद्ध करने के लिए वह ‘फौरन से पेश्तर’ उन पर अमल करने के लिए तैयार रहता था और आज भी है। रईसों को आम जनता से घुलने मिलने की जरूरत नहीं होती। वे उसे दर्शन देते हैं। उनकी एक अलग दुनिया होती है। भारतीय कम्युनिस्टों ने अपने को उन भाषाओं से दूर रखा जिनके माध्यम से जनता से घुला मिला जा सकता था। जनता को वे भी दर्शन ही देते रहे।
यदि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा कराई गई राजकीय हड़तालों पर ध्यान दें, सार्वजनिक सुविधा के लिए तैयार की गई संपत्तियों के विनाश की तुलना सांप्रदायिक दंगों की तोड़ फोड़ से करें तो दोनों में काफी समानता मिलेगी। किसी अन्य देश की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी यही रास्ता अपनाया था या नहीं इसका हमें ज्ञान नहीं, पर यह इतना मूर्खतापूर्ण लगता है कि इससे विरक्ति ने कम्युनिस्ट पार्टी से विरक्ति का रूप ले लिया।