Post – 2018-10-27

#भारतीय_मुसलमानः

हमने कहा था भारतीय मुसलमान की चेतना को समझने के लिए सर सैयद अहमद खान को समझना जरूरी है। पर उन पर इतनी लंबी चर्चा के बाद भी हम यह दावा नहीं कर सकते कि उन्हें पूरी तरह समझ सके हैं या उनके साथ पूरा न्याय कर सके हैं। घटनाओं को उनके परिणाम के बाद समझना आसान होता है- यद्यपि यह भी इतना आसान नहीं होता जितना हम मान लेते हैं – परंतु निर्णय के क्षणों में, अनेक विकल्पों के बीच, सही निर्णय लेना आसान नहीं होता। हम अक्सर जो कुछ अपने भले के लिए करते हैं और पूरी तरह सोच-समझ कर करते हैं, उनके परिणाम भी हमारी योजना के अनुसार नहीं होते। बड़ा दुश्मन और छोटा दुश्मन तय करना इतना आसान नहीं होता। अंतर्विरोध के बीच संभावनाओं का निश्चय करना आसान नहीं होता।

कांग्रेस के प्रति उनके रुख की आलोचना करते हुए भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी राज्य के नीचे बंगाली प्रभाव क्षेत्र कुछ डरावना रूप ले रहा था और इसका विरोध उड़ीसा, असम और बिहार के लोग भी कर रहे थे। बंगाल का बड़ा से बड़ा और उदार से उदार व्यक्ति भी इस वर्चस्व का समर्थक था, जिससे मुक्त रवीन्द्र भी नहीं थे। यह कैसे निर्मित हुआ इसके बारे में जाने का यह सही स्थान नहीं है परंतु यह याद दिलाना आवश्यक है कि सर सैयद का आतंकित अनुभव करना निराधार न था। यह जा सकता कि दूसरों ने जो तरीके अपनाए है वे उनके लिए भी खुले थे, पर वे उनका उपयोग करने से चूक गए। पर इसके साथ यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि यदि आप अकेले हैं, दूसरी ओर ब्रिटिश कूटनीतिज्ञो और अधिकारियों का इतना बड़ा दल हो जो आप को यह समझाने के प्रयत्न में हो कि वह जो कुछ कर रहा है वह आपके हित में है तो उनके प्रभाव से बच निकलना, उनकी चाल समझ आने के बाद भी संभव नहीं।

जिस मुस्लिम रईस वर्ग की वह चिन्ता कर रहे थे, वह सर्वथा निःसत्व था । वह बीफ बुल बन चुका था। वह मौज मस्ती को छोड़कर और कुछ नहीं करता था और मौज मस्ती भी नशे की शक्ल ले चुकी थी। उसमें किसी तरह का नया सपना तक नहीं बचा था। वह समाज से कटा, अपने सुनहले पिजड़े में बंद था जिसकी मुख्य समस्या समय काटने की थी और इसके लिए उसमें उर्दू फारसी की जानकारी रखने वाले लोग शर- ओ- शायरी से लेकर कोठों तक मनोरंजन कोई नायाब तरीका तलाशते रहते और इन्हीं में कुछ स्वयं भी नामचीन शायर बन जाते थे, बाकी अपने घटिया प्रयोगों की दाद पाने के लिए अपनी झोली खाली करने तक को तैयार रहते थे। इसमें ज्ञान पिपासा का नितांत अभाव था।

दूसरे शब्दों में वह उस वर्ग को ऊपर उठाए रखना चाहते थे जो अपनी आदतों को इस हद तक बिगाड़ चुका था जिसकी तुलना उस ऐल्कोहलिक से ही की जा सकतीहै जो लड़खड़ाते हुए भी कुछ और की मांग कर रहा हो। वे उनके लिए अवसरों की तलाश कर रहे थे जो अवसरों का उपयोग करने तक में असमर्थ थे। रिश्ता केवल एक कि वह स्वयं भी उसी जमात से निकले थे। वह उसकी अयोग्यता को जानते थे और योग्यता पैदा करने की कोशिश भी कर रहे थे।

उन्हें मलाल था जागीर-जमीदारी पर अधिकार रहने के बाद भी अमीर मुस्लिम आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे। इसके लिए नई ऊर्जा के साथ नए कारोबार में जुड़ना जरूरी था, पर उन पेशों में स्पर्धा करने में उनकी जमा पूंजी भी डूब सकती थी जिनमें हिंदू व्यापारियों का दखल था, इसलिए उनकी सलाह थी कि वे हड्डी, चमड़ा आदि की तिजारत को अपनाएं जिस पर अंग्रेजों का एकाधिकार था परन्तु उसके जुगाड़ का तंत्र उनके लिए झमेले का काम था। सर सैयद अहमद इनकी बदहाली को दूर करने की चिंता तो कर सकते थे, परंतु इनके उत्थान में किसी दूसरे की रुचि नहीं हो सकती थी।

सर सैयद अहमद यह भी चाहते थे कि रईस राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय हों और इसके लिए उन्होंने एक मंच भी बनाया था, परंतु ना तो उन्होंने स्वयं कोई दल बनाया था, न उसके नेतृत्व की अवस्था रह गई थी। राजनीतिक आन्दोलन जारी रखने के लिए अपने बाद कोई उत्तराधिकारी भी नहीं नियुक्त कर सकते थे ।

कुछ दिक्कतें इस्लाम के साथ भी थीं। इस्लाम एक ख़ानाबदोश समाज का मजहब है जिसमें न तो जमीन के लिए लगाव होता है, न जायजाद के लिए, न ऐश और अमीरी के लिए। मिल बांट कर खाने का सद्भाव और असामान्य विपत्तियों से भी लड़ने का साहस अवश्य होता है। उसमें सामंती मूल्यों तक की संभावनाएं नहीं थी, पूंजीवादी विकास की तो बात ही छोड़ दें। जमीन से जुड़कर रहना और खेती बारी करना तक उसके वश का न था।

मुसलमान कहता है मुसलमान का कोई देश नहीं होता, उसके पीछे भी वही खानाबदोश मानसिकता काम कर रही होती है। यदि उसमें लाभ कमाने और दूसरों से ऊंची हैसियत रखने की परंपरा होती तो उसका नैतिक मेरुदंड ही कमजोर पड़ जाता। मोहम्मद साहब की परवरिश बद्दुओं के बीच में हुई थी। इस्लाम के लिए मूल्य प्रणाली उन्होंने बद्दुओं से ग्रहण की थी। इसमें सजावट, बनावट, के लिए जगह न थी, कलाओं ने लिए लगाव न था। वे मुनाफाखोरी, चोरी, बेईमानी के लिए जगह न थी । सादगी और ईमानदारी के लिए थी।

सर सैयद को ठीक इसी रूप में इस्लामी मूल्य प्रणाली का बोध था या नहीं हम नहीं कह सकते, परंतु वह जानते थे कि इससे किसी समाज का आधुनिकीकरण और आर्थिक विकास नहीं हो सकता, तकनीकी और कलात्मक विकास भी असंभव है, वैज्ञानिक सोच के लिए इसमें जगह नहीं है इसलिए वह कुरान की भी इस रूप में व्याख्या करना चाहते थे कि मुस्लिम समाज में आधुनिक सरोकारों के लिए जगह पैदा की जा सके।

उनकी व्याख्या के बाद भी वह सब पर बंदिश तो हो न जाती, न ही दूसरों को अपने ढंग से कुरान की व्याख्या करने की गुंजायश खत्म हो जाती। मुस्लिम समाज में, इस्लामी नजरिए से, अनेक बुराइयां सूफियों के माध्यम से आ चुकी हैं और उनके कारण कोई अपने को बिगड़ा हुआ मुसलमान नहीं मानता। सर सैयद की व्याख्या के साथ लाभ और व्याज दोनों के लिए आधार भूमि तैयार हो जाती और मुसलमानों के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा, जो धार्मिक कारणों से थी, उससे जो लोग नई जीवनशैली अपनाना चाहते, मुक्ति पा लेते। व्याज के बिना बैंक-प्रणाली और बैंक-प्रणाली के बिना औद्योगिक विकास संभव नहीं, पर यहां उनकी एक न चली। कुछ तो अपने निकम्मेपन के कारण (वे अपनी लगान वसूली तक स्वयं नहीं कर सकते थे, यह हिन्दुओं के हाथ मे था ), कुछ दूरदर्शिता के अभाव में और कुछ आधुनिक शिक्षा से वंचित होने के कारण, रईसों ने उनकी सलाह मानते हुए यदि उद्योग और व्यापार की दिशा में पहल की भी वह नाम मात्र को ही रही होगी।

एक अन्य समस्या मुसलमानों के मन में अंग्रेजों के प्रति भरी हुई नफरत को कम करने और उन्हें अपने को सरकार का वफादार सिद्ध करने के लिए तैयार करने की थी। सरकार से मदद लेने के लिए यह बहुत जरूरी था। हम देख आए हैं कि कैसे किताबों वाले मजहब के रूप में और खान पान में अस्पृश्यता का व्यवहार न करने के आधार पर वह हिंदुओं की अपेक्षा अंग्रेजों को अपने समाज के अधिक निकट सिद्ध करना चाहते थे। उनको सफलता शिक्षा के क्षेत्र में अवश्य मिली परंतु उसका संचालन भी अंग्रेजों के हाथ में सौंप कर उन्होंने मुस्लिम मानसिकता के निर्माण का काम उन्हेो सौंप दिया। यह अपनी अनन्य वफादारी सिद्ध करने और मुसलमानों में नई सोच पैदा करने के खयाल से उनको अनुकूल लगा होगा।

इस क्षेत्र में उन्होंने इतनी सफलता अवश्य पाई कि अमीर घरानों के युवक उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड जाने लगे। इसकी शुरुआत उन्होंने स्वयं अपने पुत्र महबूब खान को अपने साथ ले जाकर ही किया था।

बंगाल में अंग्रेजों से मुसलमानों की निकटता कायम न हो सकी या इसका सबसे कम प्रभाव पड़ा। वहां के मुसलमान अंग्रेजों की तुलना में हिंदुओं के अधिक निकट अनुभव करते रहे जिसका एक उदाहरण काजी नजरुल इस्लाम हैं, जिन्होंने काली की आराधना में अनुपम गीत लिखे हैं। उनके नाम के साथ लगे काजी पर भी ध्यान देना होगा।*
{ nb. *इनमें से कुछ पंक्तियां मेरी याददाश्त में बनी रह गईं। एक काली को शिशु रूप में कल्पित करते हुए जिसमें अपने लिए दूसरे लोगों द्वारा काली कहे जाने पर बालिका काली मां रोने लगती है और वह उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं, रो मत, रो मत, तुम्हें काली किसने कह दिया (केंदो ना, केेदो ना, मां के के बोलेछे कालो), और दूसरी अपने जीवन की व्यथा को मां के द्वारा दिए गए दंड के समान मानकर अपनी भक्ति के अधिक प्रखर होने की बात करते हैं – मां काली, तू मुझे जितनी भी यातना देगी मैं उतने ही विकल भाव से तुझे ही गुहार लगाऊंगा जैसे मां की ताड़ना के डर से बच्चा मां की ही गोद में छिपना चाहता है (जतो ना ताड़ना दाओ मां काली, डाकबो ततो तोरे, मायेर भये शिशु जेमन लूकाय मायेर कोले।}

परंतु धार्मिकता का कुछ असर भाषा पर अवश्य पड़ा, उसमें अरबी फारसी के शब्द प्रयोग में आने लगे। इस भाषा को मुसलमानी बंगाली नाम दिया गया। संभव है यह उर्दू का असर रहा हो। उनकी नजर में उर्दू मुसलमानी हिंदी, और हिंदी सबकी हिंदी थी।

परंतु सफलता विफलता को अलग रखें तो सभी प्रयासों में उनकी बेचैनी को और अपनी कौम के प्रति उनकी गाढ़ी चिंता को तो समझा ही जा सकता है।

सर सैयद की मृत्यु के बाद मुसलमानों को यदि कोई अभाव हुआ तो पहला था नागरी लिपि और हिंदी का अदालतों में और शिक्षा संस्थाओं में स्थान मिलना। यद्यपि अदालतों में नागरी को उत्तर प्रदेश में या तब के संयुक्त प्रांत में फिर भी जगह न मिली जिसका कारण था इनमें मुसलमानों और कायस्थों का एकाधिकार। पुलिस थानों में भी उर्दू का ही बोलबाला रहा, फिर भी उनके एकाधिकार पर रोक तो लगने ही लगी और संयुक्त प्रांत के गवर्नर के निर्देश पर यह प्रतिबंध लग गया मुसलमानों को पांच जगहों में दो से अधिक के अनुपात में पद नहीं मिलेंगे, जबकि पहले यह पांच में चार हुआ करता था और बचा हुआ एक कायस्थों के खाते मे जाता था। इस एकमात्र नुकसान को छोड़ दें तो दूसरा कोई नुकसान उन के अभाव में नहीं हुआ, यद्यपि शिक्षा की दिशा में जो प्रगति हुई वह उन्हीं के प्रयत्न का परिणाम थी।

परंतु राजनीतिक और आर्थिक प्रतिस्पर्धा में अमीरों के न उतरने के कारण और सामान्य मुसलमानों के कांग्रेस से परहेज न होने के कारण सबसे अधिक नुकसान अंग्रेजी विघटनकारी राजनीति को हुआ। उनके स्थान पर उस रिक्त स्थान को किस तरह पूरा किया जाए इसकी चिंता में उनके चार पांच साल बीते और फिर उन्हें खयाल आया सर सैयद का नुस्खा। यदि बंगाल के मुसलमान अकेले कांग्रेस के विरोध में खड़े हो जाएं तो उसका सफाया कर देंगे और उन्होंने बंगाल को बांटने की योजनाओं पर काम करना आरंभ किया।