हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ४३
विजेता और व्यापारी के पीछे पीछे पुरोधा भी जाता है, यह सनातन नियम है। अतः ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकर चाकर आए तो उनको धर्मोपदेश देने वाले पादरी भी आने ही थे। आ ही गए तो सद्धर्म के प्रचार की आकांक्षा भी पैदा होनी ही थी, परन्तु आरंभिक दौर में जहां दूसरे मिशनरियों की सक्रियता अधिक देखने में आती है, अंग्रेजी चर्च सक्रिय नहीं दिखाई देता। इसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएं 1757 के बाद हुई लगती हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। उनकी गतिविधियों की मुझे अच्ची जानकारी नहीं है। फिर भी यह तो सच है ही कि कंपनी ने अपने व्यापारिक हित को ध्यान में रख कर इनको दबा रखा था।
अभिमुखता में अंतर आने मात्र से परिणाम कितने भिन्न हो सकते हैं इसका एक उदाहरण यह है कि प्राच्यवाद को बढ़ावा तो परितोषवादी नीति के कारण दिया गया था, परन्तु इससे एक नई समस्या पैदा हो गई थी। एक बार प्राचीन कृतियों से परिचित होने के बाद प्राच्यवादी ईसाई मूल्यों की तुलना में हिन्दू मूल्यों और आदर्शों से इतने प्रभावित हो गए थे कि धर्म प्रचार के लिए आतुर मिशनरियों की भर्त्सना गाली की चुटीली भाषा में कहें तो ‘ये उल्लू के पट्ठे और कूड़मग्ज’ हैं कहते हुए (these bigotted and ignorant missionries) करने लगे थे! ऐसे कथन नीतिगत नहीं हो सकते, ये Macknotten के शब्द हैं जो फौजी अफसर थे और लगता है गोली की भाषा में बात करते थे और अफ़ग़ान युद्ध में गोली के ही शिकार हुए थे।
फिर भी कंपनी की नीति बहुत स्पष्ट थी. भारतीय समाज में धर्म प्रचार के विपरीत थी। जैसा कि एक डेनिश पादरी ने अपने एक पत्र में शिकायत भरे स्वर में निवेदन किया थाः
Mr. Montgomerie Campbell gave his decided vote against the clause, and reprobated the idea of converting the Gentoos.
अपने लोकोपकारी कार्यो की वकालत करते हुए खेद प्रकट किया था कि इसके बावजूद:
It is asserted that a missionary is a disgrace to any country.
But Mr. Montgomerie Campbell says, that the Christians are profligate to a proverb.
It is asserted, that the inhabitants of the country would suffer by missionaries.
मिशनरियों में इस बात से खासी बेचैनी थी. उनका कहना था कि यदि यही हाल रहा तो कम्पनी के गोरे कर्मचारी हिन्दू हो जायेंगे. समस्या हिन्दुओं को दीक्षित करने की जगह यूरोपियों को सुधारकर ईसाइयत में आस्थावान बनाए रखने की होती जा रही थी
… Should a reformation take place amongst the Europeans, it would be the greatest blessing to the country.
कुछ के बारे में, जैसे H.H. Wilson के बारे में बहुत बाद तक यह मिथ्या आरोप लगता रहा कि वह जनेऊ भी पहनता है. उनको शिकायत थी कि कम्पनी धर्म बेचकर पैसा कमाने पर लगी हुई है. इसी चिन्ता से कातर होकर चाल्स ग्रांट ने जिसने माल्दा में रेशम के कारोबार से खासी दौदत कमाई थी और जिसे लार्ड हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – ४३
चाल्र्सग्रांट के सिल्क कारोबार पर ध्यान दें यह मुख्य रूप से अफीम के बदले सिल्क का कारोबार सिद्ध होगा और यदि यह लार्ड कार्नवालिस के संपर्क में आया था और ईस्टइंडिया कंपनी में भी डाइरेक्टर के पद तक उठा था तो इसलि कि कूटनीतिक बाध्यताओं के कारण कंपनी कुछ समय तक सीधे अफीम का व्यापार न करके बिचैनियों के माध्यम से यह काम करती रही थी पर मेरी जानकारी के अनुसार राममोहन राय भूराजस्व विभाग में क्लर्क के और उन्होंने महाजनी या कहें सूद पर पैसा चलाने से पैसा कमाया था, न कि अफीम के कारोबार में किसी शामिल हो कर।
इंग्लॅण्ड को भेजी जानेवाली पादरियों की रपटों से इंग्लैंड में भी कम्पनी की नीति को लेकर खासी बेचैनी थी और लगता है कम्पनी के डाइरेक्टरों में भी कुछ चिंता पैदा हुई थी फिर भी प्राच्यवादी अपने रुख पर अड़े हुए थे और मिशनरियों के साथ तो अवाम था. लंबी बहसबाजी चलती रही, पक्ष विपक्ष में तर्क और सफाई पुस्तिकाओं और परचो के माध्यम से दी जाती रही ! इसे पैम्फलेट वॉर के रूप में जाना जाता है मगर आप इस नाम से इन्टरनेट छानने चलें तो हाथ कुछ न आएगा। कम से कम मेरे हाथ न लगा।
मिशनरियों में, जैसे बकनान का मानना था कि परमात्मा ने कम्पनी के साम्राज्य के बहाने ईसाइयत के प्रचार का अवसर प्रदान किया है और इसे व्यर्थ किया जा रहा है (God had given the Company dominion over India for the specific purpose of India’s Christianisation) और विल्बरफोर्से की समझ से Our religion is sublime, pure and beneficent. Theirs is mean, licentious and cruel.। मेरी तुच्छ समझ से दोनों में से कोई ग़लत नहीं था। दोनों एक ही संकुल या वस्तुस्थिति को दो भिन्न कोणों और उर्ध्वताओं से देख रहे थे. इसको लेकर ब्रिटिश संसद में भी बहस चली और इसका परिणाम था १८१३ का चार्टर ऐक्ट जिससे मिशनरियों को धर्म प्रचार और धर्मान्तरण की ऎसी छूट जिसमे वे रास्ता रोक कर हिन्दू देवियों, देवताओं को खुल कर गालियां देते हुए हिंदुओं को अपमानित करने लगे, इसका परिणाम था राममोहन रॉय का, जो इससे पहले पहले सर्वधर्म समन्वयवादी थे आत्मनिर्रीक्षण, ईसाइयत की अतर्क्यताओं की खुलकर आलोचना और हिन्दू आस्था की जड़ों की तलाश और ब्रह्मसमाज की स्थापना, और समाज को आधुनिक बनाने के लिए संस्कृत की जगह इंग्लिश शिक्षा का समर्थन।