यह सोचकर कुछ बेचैनी होती है कि हमारी बड़ी हस्तियां १९वीं शताब्दी में पैदा हुईं और बीसवीं शताब्दी ने छुटभैये या लघुमानव पैदा किये और इक्कीसवीं शताब्दी का अबतक का हाल यह है कि यह फेरीवाले, फिरौतीवाले और कुछ भी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहने वाली चतुर चालाक बौने पैदा कर रही है! यह देखते जानते हुए हमें हताशा से बचने के लिए कहना पड़ता है, ‘भविष्य उज्जवल है.’ आप सोच सकते हैं कि जब साठ में ही लोग सठिया जाते हैं तो छियासी का बुढ़भस तो निराशावादी होगा ही. आप के मुंह में चाकलेट युग में भी घी शक्कर, क्योंकि हम ऐसे बौद्धिक पठार के दौर से गुजर रहे हैं कि टी तेजाबी गालियों का अविष्कार तो कर सकते हैं पर मशाल के रूप में दीप्ति देनेवाले मुहावरों तक के लिये हमें उन्नीसवीं शताब्दी की ओर ही देखना होगाा. खैर, यह सवाल तब और मजेदार हो जाता हैं जब हम पाते हैं कि भारत में आधुनिक चेतना की दीपशिखा जलाने वाले व्यक्ति राजा राममोहन का जन्म अठारहवीं शताब्दी में हुआ था और ठीक उस साल में, जिसमें पलासी के युद्ध में मीरजाफर को हराकर अंग्रेजों ने पहली बार अपनी सल्तनत कायम की थी.
सोचता हूँ आखिर क्या था उस दौर में जो छीजता चला गया और क्या नया तत्व स्वतंत्रता पाने के बाद आया कि ठिगने बौने बनते चले गए?
एक ही बात समझ में आती हैं उद्विग्नता और उसे व्यक्त करने की छूट जो अठारहवी और उन्नीसवीं शताब्दी पर लागू होती हैं (जो मध्यकाल में न थी इसलिए जिसमें घाव हो सकते थे पर पीड़ा हो सकती थी पर चीख तक दबा कर रखनी होती थी इसलिए उसकी सर्जनात्मक भूमिका नहीं हो सकती थी. अंग्रेजी का मुहावरा एडवर्सिटी इज द मदर ऑफ़ इन्वेंशन लेकिन जो मुहावरा अंग्रेजी में भी नहीं है वह है सफरिंग इस द मदर ऑफ़ रिकंसिलिएशन ) जनित आवेश जो स्तंत्रता पूर्व बीसवीं शताब्दी पर लागू होती हैं और संतुष्टि की मरीचिका जो उसके बाद से अबतक पर लागू होता हैं और जिसने उदयेगजनित ज्वाला को दहकते कोयले में बदला और फिर गर्मराख में. उपमाएं और रूपक सचाई को ग्राह्य बनाने में भी सहायक होते हैं और हमारी असावधानी में स्वयं सचाई का स्थान लेकर सचाई को समझने में बाधक भी बन जाती हैं. मे रे मन में यह बात इसलिए आई कि मुझे लगा आधुनिक विभूतियों में ऊपर से जो क्रम बनता हैं वह हैं राजा राममोहन रे- स्वामी दयानंद सरस्वती – गाँधी – पटेल- नेहरू.