Post – 2019-09-22

#रामकथा_की_परंपरा(23)
नई मर्यादा के जनक

इंद्र की उत्पत्ति पर विचार करते हुए हमने पाया उनका एक नाम कौशिक है, जिससे कुशिकों से उनका संबंध दिखाई देता है। इससे आगे बढ़कर हमने कभी सोचा ही नहीं कि कुशिकों का वंशागत संबंध कश जनों से हो सकता है।

इंद्र का एक दूसरा नाम शक्र है। शक्र का अर्थ हम, जैसा कि नीचे की ऋचा में (कोष्ठक में दिए सायण भाष्य) देख सकते हैं, शक्तिशाली करते रहे।
तं इत् सखित्वं ईमहे (प्राप्नुमः) तं राये (धनार्थं) तं सुवीर्ये (शोभनसामर्थ्यनिमित्तं) ।
स शक्र (शक्तिमान्) उत नः शकत् (रक्षणे शक्तोऽभूत) इन्द्रः वसु दयमानः(प्रयच्छन्) ।। 1.10.6

ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में सावधानी बरतते हुए शक्र को विशेषण नहीं संज्ञा ही माना है:
Him, him we seek for friendship, him for riches and heroic might.For Indra, he is Sakra, he shall aid us while he gives us wealth.
परंतु वह इस झमेले में नहीं पड़े हैं कि इन्द्र को यह संज्ञा क्यों मिली।

ठीक इसी की आवृत्ति हमें कोसल और साकेत में मिलती है। एक कस से दूसरी सक से। यहाँ याद दिला दें कि भोजपुरी और अवधी में ऊष्म ध्वनि केवल ‘स’ है। तालव्य ध्वनि अर्धमागधी की है और मूर्धन्य ‘ष’ कौरवी की। अतः सही उच्चारण कोसल, कासी, कस और सक है। कस और सक एक ही हैं, अक्षरों के फेर-बदल (वर्णविपर्यय) से दो हो गए – लखनऊ/नखलऊ, देहली/डेल्ही की तरह। यह परिवर्तन या दुहरी पहचान बहुत पुरानी है इसलिए इन्द्र और अवध (अवधी का क्षेत्र?)की दो संज्ञाए हैं। यह भारतीय इतिहास को समझने में बहुत मददगार हो सकता है।

आज खस जनों में कुछ पूर्वोत्तर में खसिया की पहाड़ियों में सिमटे रह गए हैं। संभवत ये वे हैं जिन्होंने अंत तक कृषिकर्म से परहेज किया, परन्तु उन्हीं के बीच कुछ ऐसे दूरदर्शी लोग भी थे जिन्होंने खेती की पहल की थी या आरंभिक अवस्था में ही खेती अपना ली थी। यह अंतिम संभावना मात्र इस तथ्य पर आधारित एक खयाल है कि खेती गंगा घाटी से आरंभ हुई थी और इसमें हिमालय की तलहटी से लेकर छत्तीसगढ़ तक के भूभाग में कस/सक जनों की पुरानी उपस्थिति की गहरी छाप देखने को मिलती है – कोसी, कासी, कसया(कुसीनारा), कसौली, उत्तरी कोसल, दक्खिनी कोसल। साक्य जन जिनमें बुद्ध ने जन्म लिया था कुछ विलंब से कृषि कर्म में प्रवृत्त हुआ था। कोलियों (कृषिकर्म अपनाने वाले कोलों) से उनका वैवाहिक संबंध उनकी जनजातीय पृष्ठभूमि को प्रकट करता है।

जिसे हम आर्य या कृषिकर्मी और इसलिए सुसंस्कृत समाज कहते हैं वह एक दिन में न तो बना, न ही इसके दरवाजे दूसरों के लिए कभी सदा के लिए बंद हो गए। शर्त यह थी कि वे कृषिकर्मी बन कर ही प्रवेश कर सकते थे। इनका प्रवेश क्षत्रियत्व के दावे के साथ ही होता रहा और हमारी जानकारी में सबसे बाद दाखिल होने वालों में कुर्मी और सैंथवार हैं।

संभव है इस प्रवेश द्वार के कारण वर्णवाद से सबसे अधिक लाभान्वित होते हुए भी इसके सबसे कटु आलोचक और इससे विद्रोह करने वाले क्षत्रिय ही रहे हैं जिसे राम स्वयं चरितार्थ करते हैं। गो-ब्राह्मण-प्रतिपालक की उद्भावना में गो को ब्राह्मण के साथ इसलिए घसीट लिया जाता है कि इस प्रतिबंध से मुक्ति मिल सके कि वेद न जानने वाला ब्राह्मण पुत्र पूज्य नहीे हो सकता, वह शूद्र होता है। इस गो-ब्राह्मण साम्य से मात्र ब्राह्मण पुत्र होने के कारण वह समादृत हो जाता है।

राम के लीपापोती से बदले चरित्र में भी ब्राह्मण और ऋषिगण राम के सम्मुख झुकते हैं और राम एक ओर तो वर्णमर्यादा के धनुष को तोड़ते हैं, लांछिता और परित्यक्ता ऋषि पत्नी को सम्मान दोता हैं, अज्ञात-कुल-शीला से विवाह करते हैं और दूसरी ओर सबसे गर्हित समझे जाने वाले निषाद (निषाद पंचमो वर्णः, अर्थात् शूद्र से भी गया बीता) को गले लगाते हैं, गीध, बानर. भालु, मतंग टोटेम वाले आदिम जनों से सख्य करते हैं, सबर जन जो लगभग नरभक्षी थे, उनकी एक स्त्री का जूठा बेर भी खाते हैं। अपने इसी मानवतावादी चरित्र के कारण राम अपने जीवनकाल में ही एक अलौकिक पुरुष, एक लीजेंड बन गए थे। कहें वह पुरुषोत्तम तो थे, परन्तु वर्णमर्यादा के रक्षक के रूप में नहीं भंजक के रूप में थे और उनके इसी आचरण ने उन्हें जनमानस में लोकोत्तर मानवतावादी और अवतार पुरुष बना दिया था और इस तरह विष्णु, पूषा और इंन्द्र के बहुत सारे मिथक इस लोकोत्तर चरित्र पर आरोपित हो गए थे। (अधूरा)