Post – 2019-09-23

#राम_ की_वंशधरता

कालिदास ने अपने महाकाव्य का नाम रघुवंश रखा। वंशक्रम तलाशते हुए वह वैवस्वत मनु के वंश मे श्रेष्ठ आचार वाले दिलीप का उल्लेख करते हैं जिनके पुत्र रघु हैं। इस तरह रघुवंश की कथा दिलीप से आरंभ होती है।

राम रघुवर हैं, रघुवीर हैं, रघुराज हैं, रघुकुलतिलक हैं, रघुनाथ हैं, राघव हैं, राघवेंद्र है। दाशरथी नाम तक किताबी है, लोक-व्यवहार में नहीं आता। रघु के पुत्र अज, अज के दशरथ और उनके राम जिनके साथ उपनाम चंद्र जुड़ा करता है। विवस्वान से कुल का आरंभ है. इसलिए सूर्यवंशी। इसका दूसरा अर्थ आदि पुरुष के विषय में जानकारी स्पष्ट नहीं, इसलिए महिमामंडन के लिए दैवी पहचान। यह मनु पर भी लागू होता है और सूर्यवंश पर भी।

रामायण बालकांड सर्ग 70 में जो वंश-परिचय दिया गया है वह प्रयत्न-लब्ध है – इक्ष्वाकु> कुक्षि> बाण> अनरण्य> पृथु> त्रिशंकु> धुंधुमार> युवनाश्व> मांधाता> सुसंधि> ध्रुवसंधि /*प्रसेनजित। ध्रुवसंधि> भरत> असित> सगर> असमत> अंशुमान> दिलीप> भगीरथ>ककुस्थ >रघु >कल्माषपाद >शंखण >सुदर्शन >अग्निवर्ण >मरु >प्रशुश्रुक >अम्बरीष >नहुष >ययाति >नाभाक >अज>दशरथ > राम ।

इसके विषय में जो बात पूरे विश्वास से कही जा सकती है वह यह कि यह उसी घालमेल के दौरान तैयार की गयी जिसमें मूल कथा को विस्तृत और विकृत किया गया था। इसे वर्तमान रूप में विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

कालिदास के रघुवंश में रघु दिलीप के पुत्र हैं, इसमें प्रपौत्र। कालिदास के अनुसार अज रघु के पुत्र हैं, रामायण की वंशावली में दोनो के बीच दस पीढ़ियाँ गुजर जाती है। कुशल है कि दशरथ दोनों में अज के ही पुत्र हैं।

ऐसा नहीं कि रामायण में दिए नाम निराधार या काल्पनिक हैं, इनमें से कुछ – इक्ष्वाकु, सगर – का बिना किसी क्रम के पूर्वज के रूप में रघुवंश में भी नाम आया है, परंतु रामायण से उसे कल्पना से जोड़ा गया है, इसलिए वह बेतरतीब है।

ऐसी दशा में सबसे भरोसे की वंशधरता यही रह जाती है कि दिलीप और रघु सहित सभी ऐक्ष्वाकु हैं और इसलिए सोमयाजी और सोमपायी हैं, और इस तर्क से चन्द्रवंशी।

दूसरी भरोसे की पहचान यह कि वह सक/कस (शक्र/कौशिक) हैं। योद्धा के रूप में विख्यात थे और इनकी ओर कोई आँख उठा कर देखने का साहस नहीं कर सकता था। इनकी ही नगरी अयोध्या हो सकती।

प्रसेनजित (प्रसेनदि) यदि इसी वंश के राजा थे, तो वह राम के पूर्वज नहीं हो सकते, क्योंकि वह बुद्ध से कुछ ही पहले हुए थे। साक्य उनके अधीन और उनके करद थे, जिन्हें किसी को मृत्युदंड देने का अधिकार नहीं था।

राम उनसे कम से कम पाँच शताब्दी पीछे ठहरते हैं। जनक और अश्वपति को ध्यान में रखते हुए उनको उपनिषद काल में रखना होगा। यद्यपि यह हैरानी की बात है कि उपनिषदों में दशरथ का नाम नहीं मिलता। कारण संभव है यह हो कि वह सचमुच रूढ़िवादी रहे हों और कर्मकांडीय यज्ञ को व्यर्थ मानकर आत्मचिंतन के उस आंदोलन से न जुड़े हों।

कसों/कुशों की महिमा की स्वीकृति कश्यप ऋषि और उनकी प्रजापति की भूमिका में और काश्यप, कछवाहा, कुशवाहा जैसे उपनामों और कासी, कोसल, कोसी, कुशीनगर, कश्मीर आदि के नामों में देखी जा सकती है। इसके सक/शक रूप सकलडीहा, साकल, शाकल्य – पाणिनि से पूर्ववर्ती एक वैयाकरण, ऋग्वेद का पदपाठ तैयार करने वाले; शाकपूणि – यास्क से पूर्ववर्ती वैयाकरण, (सकलेजा, सकलानी?), सक्खर, सुक्कुर जैसे नामों में पहचाना जा सकता है।

ये जन भारत से लेकर मध्य एसिया तक फैले पाए जाते हैं। भारत में इनका प्रवेश, अनुमानतः विगत हिमयुगीन प्रकोप से बचने के लिए हुआ था। आपदा कितनी भी बड़ी हो, आत्मरक्षा के लिए पलायन करने वाले कुछ ही लोग होते हैं, शेष को अपनी आपदाओं को झेलते हुए ही जीना-मरना पड़ता है।

तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय भूभाग में विचरने वालों को इनसे कैसे निबटना पड़ा यह पता नहीं, पर ज्ञात इतिहास में मध्येसिया के शक भारत में आक्रामकों के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। यह पासा हड़प्पा सभ्यता या उस दूसरी बड़ी त्रासदी के बाद पलटा लगता है जब भारतीय आत्मरक्षा में अपने क्षेत्र में सिकुड़ कर रहने और बाहर निकलने से डरने लगे। अपने सुरक्षित क्षेत्र से बाहर जाने को वर्जित कर दिया गया।

महाभारत इसी दौर के अनुभव पर रचा गया आख्यान है, जिसमें उत्तर कुरु, बाह्लीक (बख्तर), उत्तर मद्र, तुषार (तुखार), सिंतास्ता, अन्द्रानोवो आदि में बस्तियाँ बसा कर रहने वाले भारतीय व्यापारी, इस दुर्भिक्ष से त्रस्त और उत्पीड़ित होकर अपने देश की ओर पलायन करते हैं, और अपने संबंधियों से अपना अधिकार या गुजारे की शरण माँगते हैं।

राहुल सांकृत्यायन शकों/ कशों के भारत से लेकर मध्येसिया तक के प्रसार को देख इस बात के ही कायल नहीं हो गए थे कि भारत पर आर्यों का हमला हुआ था (हाथ कंगन को आरसी क्या!) और उनका सारा लेखन इसी को दुहराता रहा। वह यह निष्कर्ष भी निकाल बैठे थे कि जिन आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया था, वे शकार्य थे। ऐसा उन्होंने यह जानते हुए सोचा कि भारत में सक/खस आज भी आदिम अवस्था में हैं।

कश को दो रूपों में पहचाना जा सकता है, एक कज़्ज़ाक (कज़ाकिस्तान, जहाँ सिंताश्ता (सिंधियों का क्षेत्र) और आंद्रोनोवो (नव आंध्र या गुजरात के अंधवृष्णिक जनों का क्षेत्र) था। जिस दौर में इन क्षेत्रों में कज़्ज़ाको का इतिहास आरंभ होता है ठीक उसी काल में भारत की ओर पलायन के पुरातात्विक प्रमाण हैं जिसे उलट कर आर्यों के भारत की ओर बढ़ने और बीच के उन स्थलों से हो कर गुजरते दिखाया जाता रहा है (पार्पोला, सरियानिदि) जहां पहले से बसे भारतीयों को स्वयं भी भागना पड़ा था।
The emergence of Cossacks is dated to the 14th or 15th centuries, when two connected groups emerged, the Zaporozhian Sich of the Dnieper and the Don Cossack Host.

जानकारी और पुस्तकालयों तक पहुँचने की शक्ति इतनी कम है, कि इसकी पड़ताल नहीं कर सकता कि ऊपर के दोनों के अतिरिक्त जो तीसरा वर्ग उन मालिकों का था जो ‘अश्वपति’ थे, ‘दुर्ग’ बना कर रहते थे, अश्वव्यापार में संलग्न थे और वे अपने को कश कहते थे और जो उस आपदा में भी अपना बचाव कर सके थे, और ‘आर्य’ या मानक भाषा इन्हीं की थी और उसका प्रभाव बाद में भी कायम रहा।

दूसरा साम्य कुषाणों से बैठता है जिनके विषय में निम्न जानकारी उपयोगी लगती है:
“The Scythians (pronounced ‘SIH-thee-uns’) were a group of ancient tribes of nomadic warriors who originally lived in what is now southern Siberia. Their culture flourished from around 900 BC to around 200 BC, by which time they had extended their influence all over Central Asia – from China to the northern Black Sea.”

The Greek historian Herodotus, in his Histories (Book 4, 5th century BC), wrote: ‘None who attacks them can escape, and none can catch them if they desire not to be found.’ (British Museum Blog 1917, 30 May 2017)

शक, जिन्हें सीथियन समझ लिया जाता है, वे सीथियों में मिल गए थे, उन्हें यूचियों ने मध्येसिया से भगा दिया था। उन्होंने दक्षिण की ओर भागते हुए सकस्थान (सीस्तान) पर अधिकार किया था। कुषाणों में दोनों के तत्व मिल गए थे। पर कुषाण राजा कनिष्क ने शक संवत चलाया था। इससे फिर कश और शक का वही घालमेल दिखाई देता है जो भारत में।

इस लंबी चर्चा में हमें इसलिए उतरना पड़ा कि हम उनकी वंशावली समझ सकें। हमने पाया कि वे भारत में जब भी जहाँ से भी आए हों, भारतीय जातीय स्मृति में वे यहाँ अनादि काल से हैं जो राम की पैतृकता को विवस्वान के पुत्र मनु से जोड़ता है और मध्येसिया के कश, कज्ज, शक उस शौर्य को दर्शाते हैं जो इनकी प्रकृति थी। सूर्यवंश सूर्य से उत्पन्न न था, न हो सकता था, परंतु शौर्य के लिए विख्यात था इसका साहित्य गवाह है। अविजेय, अयोध्या उन्हीं की राजधानी हो सकती थी।्र