#रामकथा_की_परंपरा(25)
#अश्वमेध
रघुकुल के राजाओं का एक गुण सबसे ऊपर है, वे शत्रु विजय ही नहीं, दिग्विजय के आदी रहे हैं। दूसरा गुण है दानशीलता – वे शत्रुओं से जीत कर जो कुछ लाते थे उसे और अपने खजाने में जो जमा रहता था उसे भी अश्वमेध यज्ञ करके ब्राह्मणों को दान दे दिया करते थे।
इनके साथ एक दुर्गुण भी जुड़ा था, उन्हें अपनी तारीफ सुनने की आदत थी। इस आदत के कारण ही वे अपने प्रशंसकों को प्रसन्न करने के लिए किसी सीमा तक गिर सकते थे, कोई भी अपराध कर सकते थे, उनकी उनसे भी बढ़ कर प्रशंसा कर सकते थे जो भूखे पेट रह सकते परंतु प्रशंसा के बिना रह ही नहीं सकते थे।
विश्वास नहीं होता! सोचिए, जब राजा का खजाना खाली हो जाता होगा तो राजकर्मियों को, सैनिकों को, वेतन कैसे मिलता रहा होगा? दो तरीके थे। एक जनता पर पहले से अधिक कर लगाकर खजाने की भरपाई और उस अंतराल में यह छूट कि वे अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए मनमानी वसूली करते रहें।
ऐसे राजाओं के शासन में वे देश भी जिन पर वे विजय प्राप्त करते थे, कंगाल हो जाते थे, ऐसे ही राज-अनुमोदित उत्पीड़न के शिकार हो जाया करते थे, और उनका अपना राज्य भी उसी तरह तबाह हो जाता था। ऐसे में उन्हें प्रजा वत्सल नहीं कहा जा सकता, ब्राह्मणपालक कहा जाए तो कोई हानि नहीं। यह सत्य से परे और ब्राह्मणों की अभावजन्य दुर्लालसा को ही प्रकट कर सकता है।
यहां मैं एक साथ उन दोनों जातियों का मनोविश्लेषण करना चाहता हूं जो भारत की सर्वाधिक व्याधिग्रस्त जातियां हैं, रूढिवादी ब्राह्मण और रूढिवादी क्षत्रिय। इन वर्णों के शेष लोग और इनसे बाहर के लोग, भारत में जितने आधुनिक और सामाजिक न्याय के पक्षपाती रहे हैं, उतना दुनिया में कोई नहीं रहा।
अवसर मिलता है, तो मैं इन दोनों के अवचेतन को कुरेदते हुए, उन ग्रंथियों को जाग्रत और उनसे मुक्त करना चाहता हूं, जिसके बिना हमारा पूरा सामान स्वस्थ नहीं हो सकता।
सबसे बड़ी बात यह है कि ये सभी दिवास्वप्न हैं जिन्हें लगातार दुहरा कर अश्मीभूत मान्यता में बदल दिया गया है। प्रखर आलोचना ही जीवाश्म को जीवंत बना सकती है। उसकी जीवंतता से भारतीय समाज का भविष्य जुड़ा है। विचार करे तो हम पाएँगे कि ऊंची जातियां मनोवैज्ञानिक रुप में भारतीय समाज की सबसे पिछड़ी जातियां हैं, राष्ट्रीय एकात्मता में बाधक तत्वों मे से एक हैं, यद्यपि एकमात्र नहीं।
तथ्यांकन से झूठ का भी पता चलता है और प्रचारित मूल्यों की विसंगतियां भी प्रकट होती हैं। इसे समझने के लिए एक प्रश्न का सामना करेंः
साकेत के राजा महान दिग्विजेता थे। इतने बड़े कि उनके पड़ोस में ही काशी एक राज्य के रूप में उससे लंबे समय से बचा रहा, और साकेत या उत्तर कोशल से आगे उनके राज्य का विस्तार नहीं हो सका। कुछ गड़बड़ तो है ही।
इसके लिए हमें अश्वमेध के इतिहास को समझना होगाः
अश्वमेध का सबसे पुराना वर्णन भारत में ऋग्वेद 1.162 और 1.163 सूक्तों में और बेबीलोनियां में (W.F. Albright and P.E. Durant, The Journal of American Oriental Society, Vol. 54,p.p. 107-28, cited by A.Keith, Babylon and India, Kuppuswami Memorial Volume, Madras.1947, p.p 62-72, Quoted in The Vedic Harappans, New Delhi, ।995, p.70.) मिलता है, अर्थात् यह अनुष्ठान भी भाषा के साथ दूर दूर तक फैल गया था:
The horse sacrifice, it is registered, was probably of Indo Iranian, not Indo European origin. this suggestion is unquestionably valid in a certain measure. We know that, on arrival at the Strymon, Xerxes had white horses Sacrificed by the magicians. We know from the Greek literature of the sacrifices at Rhodes and on Mount Taygetus jn Arcadia . Festus Gives information of the animal sacrifice horse at Rome and with a ritual of vegetative charrecter. …
The closest parallel in Mesopotamia to this offering in a ritual text from Asur (Assur) the southern capital of Assyria, Which is interpreted to refer to the offering of horse which is to be hitched to the great chariot of god Murdoch. The ritual seems to have been originally connected with the offering of an ass and may be assigned to the period from 2100-1800 BC, an earlier date being precluded by the importance of Babylon which prior to the First Dynasty was of negligible importance.
कीथ ने भारतीय और असारियाई रीतिविधान की बारीकियों में समानता का भी वर्णन किया है। यह उस जमाने के अध्ययन है जब तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर, मोटी समझ को ताक पर कर रख कर भी भारत पर आक्रमण या भारत में आर्य भाषाओं के प्रवेश के लिए प्रमाण गढ़े जा रहे थे। हड़प्पा और वैदिक की अभिन्नता सिद्ध हो जाने के बाद हम कह सकते हैं कि सबसे प्राचीन प्रमाण भारत में पाए जाते हैं और इसकी रूपरेखा को समझना इतिहास के एक युग की समस्याओं को समझने जैसा है।
हम यह स्वीकार करते हैं भारत में घोड़ा प्राचीन काल से था, और गधे की तुलना में उसका कद भी बड़ा था। परंतु वह भार वहन की दृष्टि से अधिक उपयुक्त नहीं था। अश्व के नाम पर जिस प्राणी को सबसे पहले पालतू बनाया गया था वह भारवहन के प्रयोजन से किया गया था । वह रासभ या गधा था। आज तक भार वहन की दृष्टि से सबसे उपयुक्त गधे और खच्चर को ही माना जाता है। इसलिए यदि असीरिया में भी अश्वमेध के बलिपशु के रूप में गधे की बलि दी जाती रही तो यह आश्चर्य की बात नहीं। आरंभ में भारत में भी यही होता था। ऋग्वेद के अश्वसूक्तों का अश्व गधा है।
आश्चर्य इस बात पर अवश्य हो सकता है कि किसी भारतीय अध्येता ने उसी अध्यवसाय से पश्चिमी प्रस्ताव की जांच क्यों नहीं की और क्यों अपने साहित्य की सामग्री का विश्लेषण नहीं किया।
दिग्विजय और अश्वमेध एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। घोड़े को सभी तरह के भूषणों से सजा कर एक व्यक्ति पताका के साथ बढ़ता है। जिसका साहस न हो, वह राजा का करद बन जाए, साहस हो तो घोड़े को रोक ले ।उस दशा में उसे युद्ध करना पड़ेगा। काशी कोशल का कभी करद नहीं रहा, इसलिए इस अश्वमेध का संदर्भ बदल कर इसको समझना होगा।
अश्व को अलंकृत करके कुछ रक्षकों के साथ आगे भेजना संभवतः व्यापारी सार्थों द्वारा आकस्मिक भारी प्रहार से बचने के लिए, खतरे का पूर्वानुमान करने और फिर पूरी तैयारी से प्रहार करने की योजना का अंग था। एक भिन्न प्रसंग में ऋग्वेद में एक अग्रिम दस्ते, हिरावल दस्ते – प्रगर्धिनी सेना – का हवाला है। यह ऐसी ही प्रगर्धिनी सेना का अंग था।
संभवतः यहीं से आरंभ हुआ अश्वमेध।अश्वमेध करने वाले राजाओं को चक्रवर्ती का नाम देना गलत है। यह एक निश्चित दिशा में किसी विशेष प्रयोजन से अपनी पूरी शक्ति के साथ किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प मात्र था। इसके बाद ही हम विश्वविजय को, और विश्वजित यज्ञ के रहस्य को समझ सकते हैं।
विख्यात है कि विदेशी, विद्रोही समुदायों के बीच अपने सुरक्षित अड्डे या स्वर्ग बसाकर रहने वाले इंद्रों पर जब संकट आता था तो वे अपने गृह देश से सहायता की गुहार करते थे और उनकी पुकार पर दल बल के साथ बढ़ने वालों में इन युयुत्सु कोशलों या कुशिकों की प्रधान भूमिका थी।
इस सीमा में ही हम रघु के दिग्विजय को समझ सकते हैं, और उनकी कौशिक या कुशिक पहचान को कस्सियों (कस्साइट्स) में अंकित पा सकते हैं। रघु का अश्वमेध या दिग्विजय इस सीमित अर्थ में ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त कर लेता है।The Kassites (/ˈkæsaɪts/) were people of the ancient Near East, who controlled Babylonia after the fall of the Old Babylonian Empire c. 1531 BC and until c. 1155 BC (short chronology). The endonym of the Kassites was probably Galzu, although they have also been referred to by the names Kaššu, Kassi, Kasi or Kashi. और यदि हमारा अनुमान सही है तो इससे रघु के वंशज राम की कालावधि समझने में मदद मिल सकती है। यह ठीक उपनिषद काल में आती है।