Post – 2019-09-27

रामकथा की परंपरा (27)
दक्षिण भारत में कृषि

दक्षिण भारत में खेती के प्रसार में महापाषाणी संस्कृति ने पहल किया हो सकता है? विद्वानों का तो यही मानना है, परंतु मुझे इस पर कुछ संदेह है। कारण:
1. तकनीकी विशेषज्ञता रखने वाले खेती नहीं किया करते। उसकी ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। खेती करने वाले अपनी तकनीकी जरूरतें स्वयं पूरी नहीं कर पाते। इसके लिए वे दूसरों पर निर्भर करते हैं। ये दोनों पूर्णकालिक काम हैं, परन्तु इनकी अंतर्निर्भरता इतनी गहरी है कि एक के बिना दूसरे की उन्नति नहीं हो सकती, इसलिए एक ही सांस्कृतिक परिदृश्य में दोनों के अवशेष देख कर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि दोनों काम एस ही समुदाय करता था।

2. पुरातत्वज्ञों का दिमाग ठोस चीजों की तलाश करते करते इतना इकहरा और ठोस हो जाता है कि वे सांस्कृतिक बहुसूत्रता की समझ खो देते हैं। दूसरे पक्षों को देखते हुए भी अनदेखी करते हैं।

3. तकनीकी विशेषज्ञता का हाल यह है कि कुम्हार लोहार का काम नहीं सँभाल सकता, लोहार सोनार का और सोनार जौहरी का काम नहीं संभाल सकता, इसे वे पुरातत्वविद जानते हैं पर इकहरे निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दी में इसे भूल जाते हैं, और यही नासमझी महापाषाणी संस्कृति के मामले में भी देखने में आती है।

4. जैसा कि हम कह आए हैं, कृषि से जुड़े प्राकृतिक विनाश से क्षुब्ध जनों ने कृषि कर्म को वर्जित मान लिया था और इन्होंने ही लाचारी में कृषिकर्मियों को विविध प्रकार की सेवाएं देते हुए कृषि-आधारित अर्थ-व्यवस्था में अपने लिए जगह बनाई थी।

5. भारत की समाज व्यवस्था उतनी सतही नहीं है जितनी हमारे इतिहासकार, समाजशास्त्री, नृतत्वविद और भाषाविज्ञानी पश्चिमी प्राधिकारवादी सोच के कारण समझते रहे हैं। ब्राह्मण किसी को शूद्र नहीं बना सकता था क्योंकि वह उसमें वे विशेष योग्यताएं नहीं पैदा कर सकता था।

6. अपना काम आसान बनाने के लिए हमने जिस लेखक के ब्लॉग का सहारा लिया थी उसी के अनुसार आज भी कुछ ऐसे जन हैं जिनमें महापाषाणी प्रवृत्तियां पाई जाती हैं: Even today, a living megalithic culture endures among some tribes such as the Gonds of central India and the Khasis of Meghalaya. यह पिछड़े इसलिए रह गए इन्होंने समय रहते कृषि कर्म नहीं अपनाया।

7. यदि इनका दूर दूर तक हड़प्पा सभ्यता से कोई संबंध रहा हो तो हड़प्पा के कर्मियों और धातु कर्मियों को हम उनकी इसी सीमा में बँधा पाते हैं। उनमें कोई खेती नहीं करता।

8. महापाषाणी स्थलों से खेती के काम आने वाले कोई औजार नहीं पाए गए हैं।

9. इससे हम यह नतीजा निकालते हैं कृषि का प्रसार और महापाषाण का प्रचार एक ही समुदाय के द्वारा नहीं हुआ और इसके बाद भी दोनों के काल में समानता के कारण महापाषाणी जनों को इसका श्रेय दे दिया जाता है।

ऐसी दशा में दो तथ्यों की अनदेखी नहीं की जा सकती। एक तो यह कि कृषि का प्रसार दक्षिण भारत में एकाएक इतनी तेजी से होता है, कि इसे एक आंदोलन कहा जा सकता है। जैसा सभी आंदोलनों के साथ होता है, इसका प्रेरक और उन्नायक कोई एक व्यक्ति होता है जिसके विचारों को सही औ र लाभकारी पा कर बहुत तेजी से बहुत सारे लोग उस पहल से जुड़ जाते हैं और फिर यह ठीक उसी तरह जैसे याज्ञवल्क्य, बुद्ध और महावीर तथा बाद के अनेक बौद्धिक नेताओं ने सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने में युगांतरकारी भूमिका निभाते दिखाई देते हैं।

ठीक यही भूमिका राम की दक्षिण भारत में कृषि के प्रसार में लगती है क्योकि इस प्रसार का दूसरा काल-गत साम्य राम के वनवास और उनके दक्षिण भारत में विचरण से दिखाई देता है।

यदि हम ऊपर गिनाई गई आपत्तियों की अनदेखी कर के यह मान भी लें कि महापाषाणी संस्कृति के निर्माता खेती भी कर सकते थे, तो हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा कि वे इतनी तेजी से पूरे दक्षिण भारत में है फैल कैसे गए, जब कि राम के दक्षिण भारत मे विचरण ही नहीं, समुद्र पार करके श्रीलंका में भी पहुँचने का एक अर्धविस्मृत यथार्थ कथा रूप में रामायण में उपलब्ध है और उसमें राम कृषि कथा के नायक हैं या बन गए हैं।

दो

निर्वासन के बाद राम की मुख्य समस्या सुरक्षा की है। वह ऐसे परिवेश में रहना चाहते हैं जिसमें उनके आसपास कुछ दूसरे, उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग हों, जिनके कारण उन पर खुला आक्रमण न हो सके।

प्राचीन भारत में सत्ता पर अधिकार जताने वाले जिन लोगों को निर्वासित किया जाता था, उन को मौत के घाट उतारने का भी प्रयास किया जाता था परंतु इस बात का ध्यान रखा जाता था कि उनके विनाश में राजसत्ता का कोई हाथ न दिखाई दे। इसकी आवृत्ति अकबर द्वारा अपने अभिभावक के रूप में सत्ता पर कायम बैरमखान को रास्ते से हटाने में देखी जा सकती है।

योजना यह होती थी कि या तो उन पर आघात उनको अकेला पाकर किया जाए या सर्वविदित हो तो लगे यह एक दुर्घटना थी। इसके दाँव-पेंच महाभारत में बहुत स्पष्ट हैं। रामायण में भी यह इतने ही खरे रूप में चित्रित था, परंतु बाद में इसे विदित कारणों से ढक दिया गया है फिर भी इस आवरण को हटा कर इस कुचक्र को साफ पढ़ा जा सकता है।

पत्नी के साथ निर्वासित व्यक्ति छिप कर ही सही, कहीं टिक कर रहना चाहेगा, लगातार स्थान बदलता हुआ भागता नहीं फिरेगा । राम भरद्वाज आश्रम का चुनाव करते हैं। भारद्वाज यह संकट मोल नहीं लेना चाहते। वह राम को सलाह देते हैं कि उनके लिए सबसे अच्छी जगह चित्रकूट है।

इसका पता लगने पर भरत सेना के साथ पहुंचकर – [इयं ते महती सेना शंका जनयतीव मे (निषाद); एतद् आचक्ष्व सर्वं मे न मे शुध्यते मनः (भरद्वाज); आवां हन्तुं समभ्येति कैकेय्या भरतो सुतः (ळक्ष्मण)] – उन्हें मनाने के बहाने पहुँच जाते हैं। यह एक छिपा संदेश है कि यहाँ रहने में न तुम्हारी भलाई है न उनकी जिनके बीच रहकर तुम सुरक्षित रहना चाहते हो उनकी। राम तो इस चाल को समझ कर सही निर्णय लेते हैं, भरत लौट जाते हैं परंतु उसके बाद वहां रहने वालों को अकेला पाकर सताया जाने लगता है:
त्वं यदाप्रभृति ह्यास्मिन आश्रमे तात वर्तसे। तदाप्रभृति रक्षांसि विप्रकुर्वन्ति तापसान्।।
(तात जब तक तुम यहाँ रहोगे तब तक राक्षस तपस्वियों को उत्पीड़ित करते रहेंगे)
बदली गई कहानी में तो राम अकेले दम पर राक्षसों का संहार करने के लिए अवतार लेते हैं और यहाँ उनकी उपस्थिति में राक्षस (?) आतंक मचा रहे हैं और उनसे जिनके धर्म की हानि हो रही थी वे समझाते हैं कि तुम्हारे यहाँ रहने के कारण ये उपद्रव हो रहे हैं।

आतंक ऐसा है कि वे निर्भीक होकर अपनी बात कह नहीं पाते। इशारों में बात करते हैं (नयनैः भृकुटाभिश्च रामं निर्दश्य शंकिताः। अन्योन्यं उपजल्पन्तः शनैः चक्रुः मिथः कथा)। एक एक करके पलायन करने लगते हैं और जब राम इसका कारण जानना चाहते हैं तो कोई उनसे बात करने का साहस नहीं जुटा पाता। केवल एक बूढ़ा ऋषि राम पर तरस खाता है (अथ ऋषिः जरया बृद्धः तपसा , जरां गतः। वेपमान इवोवाच रामं भूतदयापरम् ) और वही बताता है कि यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है, अगर थो़ड़ी भी अक्ल हो तो तुम भी यहां से रफूचक्कर हो जाओ: ( दर्शयन्ति हि दुष्टास्ते त्यक्ष्याम इममाश्रमम्। सह अस्माभि: इतो गच्छ यदि बुद्धिः प्रवर्तते)। इसके बाद राम को जगह-जगह भटकना पड़ता है। यह है वह परिस्थिति जिसमें राम को छिपते हुए, पर साथ ही अपने आस पास सहानुभूति रखने वालों का एक दुर्ग बनाते हुए, एक स्थान से दूसरे को खिसकते हुए दक्षिण भारत के एक बड़े भूभाग में भटकना पड़ता है।