#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध(14)
पुनरवलोकन
[किसी भी कारण विषय से हट जाने पर उस पर वापस आना कितना कठिन होता है। आगे की धारा ही सूख जाती है। तीन दिन से लगातार कोशिश के बाद:
दिवाली के दिन राह पर आ गए
अभी तक हम जो कुछ देख आए हैं उसे सार रूप में दोहराते हुए ही इस कड़ी को आगे बढ़ाया जा सकता है। हमने विलियम जोंस के विषय में अपनी बात जिस तरह रखी है उसे पढ़ते हुए, तनिक भी शिथिलता बरती जाए तो, लगेगा भारत से बाहर संस्कृत की जड़ों की तलाश करते हुए वह ढोंग रच रहे थे। यह उनके प्रति अन्याय होगा।
वह इंग्लैड में रहते हुए ही तीन बातों के विषय में पूरी तरह आश्वस्त प्रतीत होते हैं:
1. यूरोप के लोग भारतीयों की संतान नहीं हो सकते और न ही यूरोप पर कभी भारत का शासन था।
2. भारत में संस्कृत बोलचाल की भाषा न तो है न कभी थी, यह कुछ शिक्षित ब्राह्मणों की भाषा है, अतः यह भाषा उनके साथ कहीं अन्यत्र से भारत में पहुँची होगी।
3. फारसी भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था और संस्कृत से जिस तरह समानता की बातें की जा रही थीं, लातिन और ग्रीक से उस तरह की समानता, उन्होंने फारसी सीखते समय स्वयं ही अनुभव की होगी, अतः यह मान बैठे थे कि ऐसा केंद्र जहां से संस्कृत भाषा का प्रसार हुआ हो फारस हो सकता है।
इस प्राक्कल्पना का सिद्धांत रूप में प्रतिपादन करने के लिए संस्कृत का कामचलाऊ ज्ञान अपेक्षित था। मन में पहले से रहा होगा कि भारत पहुंच कर, संस्कृत की जानकारी हासिल करके, वह इस समस्या का वारा न्यारा कर देंगे और अपने तीसरे व्याख्यान में उन्होंने ऐसा ही किया भी।
उन्होंने इसका जो खाका अपने दिमाग में बनाया था, या भाषाओं के जिस परिमंडल की कल्पना की थी, उसके केंद्र की भाषा से ही परिमंडल की भाषाएँ शक्ल ले सकती थीं, अर्थात् फारस में ही वह जननी भाषा हो सकती थी जिससे एक ओर लातिन और ग्रीक और दूसरी ओर संस्कृत पैदा हो सकें।
भारत में पहुँचने और संस्कृत सीखने के क्रम में पुराना खाका गड़बड़ा गया।
उन्होंने पाया संस्कृत को ब्राह्मण देववाणी कहते हैं अर्थात् देवताओं की भाषा। इसने आदम की कहानी को जाग्रत कर दिया। आदम तो संस्कृत नहीं बोलते रहे होंगे, लेकिन हो सकता है वह भाषा संस्कृत और हिब्रू के बीच की, सभी तरह से संपन्न और पूर्ण भाषा रही हो जिससे संस्कृत हिब्रू अरबी सभी निकली हों।
हमें यह प्रस्ताव दूर की कौड़ी प्रतीत हो सकता है क्योंकि यह विश्वास नहीं होता कि वह भाषा के पिछले चरण को इतने पीछे ले जा सकते थे। परंतु पौराणिकता में विश्वास के उस युग में, और जिस उलझन में विलियम जोंस पड़ गए थे, उसमें, ऐसा मान लेना बहुत स्वाभाविक था। उन्हें दूसरा कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था।
मन में यह विश्वास पैदा होना एक बात है, किंतु तर्कों और प्रमाणों से इसे
सिद्ध कर पाना इतना कठिन था कि इस का प्रस्ताव करते हुए वह हमें हास्यास्पद प्रतीत होते हैं।
हिंदुओं के विषय में सरसरी नजर डालने पर इस नतीजे पर पहुंचते हैं, कि प्राचीन पारसियों, इथोपियाइयों, मिस्रियों से; फिनिशियनों, यूनानियों, और तुस्कानो से; सीथियनों या गॉथों और केल्टो से; न्यू चीनियों जापानियों और पेरू वासियों से अनंत काल से आत्मीयता थी। यह मानने का कोई कारण ही नहीं है की भारत में इनमें से किसी ने अपना उपनिवेश आई एम किया था या भारत में इनमें से किसी को हिंदुओं ने अपना उपनिवेश बनाया था। इसलिए हम पूरे और चित्र के साथ यह नतीजा निकाल सकते हैं यह सभी किसी ऐसे देश से निकल कर वहां पहुंचे जो इनके बीच में पढ़ता था। वह देश कौन सा था इसी की जांच करना हमारे अगले व्याख्यान का विषय होगा। Of these cursory observations on the Hindus, … this is the result: that they had an immemorial affinity with the old Persians, Etheiopeans, and Egyptians; the Phoenicians, Greeks, and Tuscans; and Scythians or Goths, and Celts; the Chinese, Japanese and Peruvians; whence , as no reason appears for believing that they were a colony from any one of those nations, or any of those nations from them, we may fairly conclude that they all proceeded from some central country, to investigate which it will be the object of my future discourses.
बीटीसी जानकारी के बल पर उन्होंने बचते हुए टिप्पणी की थी कि स्टेटस संस्कृत, लातिन और ग्रीक में यू से निकटता है, “कोई भाषाशास्त्री क्या माने बिना रह ही नहीं सकता सभी एक ही स्रोत से , शायद आज अस्तित्व ही नहीं रह गया है, निकली भाषाएं हैं। that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; (Third Anniversary Discourse).
समस्या सुलझने की जगह अधिक जटिल हो गई थी, परंतु भाषा-शास्त्र की समस्या सुलझाने के लिए अब पौराणिक दृष्टि भी सेवा में उपस्थित थी इसलिए जोंस को भरोसा था कि इसे वह बाद में निपटा अवश्य लेंगे।
भाषा यह वह थी जो अपनी पूर्णता के साथ आदम के साथ उतरी थी और वही महाप्लावन से पहले अपनी शुद्धता में बोली जाती थी। बाद में यह नोआ की संतानों के साथ पूरी दुनिया में फैली। उसी मूल से सभी भाषाएँ निकली हैं। नोआ की संतानों की भाषा आरंभ में इतनी अलग न रही होगी। समाधान यही बचता था, पर परंतु अभी उसका नाम ले नही सकते थे ।
अब जहाँ तक चीन और जापान का प्रश्न है विलियम जोन्स को पक्का पता था कि इनमें भाषा और सभ्यता भारत से ही पहुंची है: Believe, by Menu, the son of Brahma, we find the following curious passage: “Many families of the military class, having gradually abandoned the ordinances of the Veda, and the company of Brahmens, lived in a state of degradation, as the people of Pundraca and Odra, those of Dravira and Camboja, the Yavanas and Sacas, the pāradas and the Pahlavas, the Chinas and some other nations”
मुझे मालूम है इससे आपको संतोष नहीं हुआ होगा, इसलिए दोबारा समझने का प्रयत्न कीजिए:
…now the ancestor of that military tribe, whom Hindus call Chandravansa, or the Children of the Moon, was according to their Purānas or legends, BUDH, or the genius of planet Mercury, from whom, in the fifth degree descended a prince named DRUHYA; whom his father YAYATI sent in exile to the east of Hindustan, with this imprecation, “may thy progeny be ignorant of the Veda.” This name of the banished king could not be pronounce by the Chinese; and, though I dare not conjecture, that the last syllable of it has been changed into YAO, was the fifth in descent from FO-HI, or at least the fifth mortal in the first imperial dynasty; that all the Chinese history before him is considered, by the Chinese themselves as poetical or fabulous; his father TI-CO, like the Indian king YAYĀTI, was the first prince who married several women, and that FO-HI, the head of the race appeared, say the Chinese. In a province of the west, and held his court in the territory of Chin, where the rovers, mentioned by the Indian legislator, are supposed to have settled. Another circumstance in the parallel is very remarkable: according to father DE PREMARE, in his tract on Chinese mythology, the mother of FO-HI was the daughter of the Heaven, surname flower-loving, and as the nymph was walking alone on the bank of a river, with a similar name, she found herself on a sudden encircles by a rainbow; soon after which she became pregnant, and at the end of twelve years was delivered of a son radiant as herself, who, among other titles, had that of SŪI, or the Star of the Year. Now in the mythological system of the Hindus, the nymph Rohinī, who presides over the fourth lunar mansion, was the favourite mistress of Soma, of the SOMA, or the MOON, among whose numerous epithets, we find Cumudanāyaca or Delighting in a species of water flower,that blossoms at night; and their offspring was BUDH, regent planet, and called also, from the name of his parents, RAUHINEYA or SAUMYA: …they seem to have a family likeness. The GOD BUDHA, say Indians, married ILA, whose father was preserved in a miraculous ark from an universal deluge.
जहाँ तक जापानियों की बात है:
And it is reasonable to believe that the people of Japan, who were originally Hindus of the martial class and advanced farther eastward than China, have, like them, insensibly changed their features and characters by intermarriages with various Tartarian tribes, whom they found loosely scattered over their isles.
इसी समझदारी मान्य बनाने थे विलियम जोंस सर विलियम जोन्स और ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जनक। जन्मदाता उद्विग्न, संतान विक्षिप्त, परंतु उस चालाकी के साथ जिसके लिए शेक्सपियर ने मेथड इन मैडनेस मुहावरे का आविष्कार किया था।
आज की शाम जुगनुओं के नाम
जो अँधेरों से ठान लेते हैं ।#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध