Post – 2019-10-25

देखिए हाल क्या है गुलशन का!

मेरी चिंता के केंद्र में है भारत की #मानसिक_गुलामी। आक्रोश उस बौद्धिक नपुंसकता पर आता है, जिसमें अपने को बौद्धिक समझने वाले अपनी हैसियत के अनुसार इसके आढ़ती, वितरक और खुदरा व्यापारी के रूप में काम करते दिखाई देते हैं, क्योंकि इसमें मुनाफा सबसे अधिक है। श्रम नहीं करना पड़ता, श्रम करने की जिम्मेदारी उन देशों की है, जो हमें गुलाम रखना चाहते थे, या रखना चाहते हैं। वे स्वयं भी कुछ कर सकते है, इसका विश्वास ही नहीं। इनकी पीड़ा उनके सत्ता से बाहर कर दिए जाने की है जिसके होने से इनको भी अपने कुछ होने का एहसास हुआ करता था।

फेसबुक पर लिखने का फैसला इस प्रलोभन में किया था कि इस पर लिखा हुआ वायरस के प्रभाव से मुक्त रहेगा। समकालीन घटनाओं और गतिविधियों पर लिखने की सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि उनके लिए एक अलग तरह की तैयारी की जरूरत होती है। यहां तक कि उसकी भाषा, मुहावरे, और शैली सभी में भिन्नता होती है। उस अनुशासन से गुजरे बिना कोई व्यक्ति मात्र की इच्छा से वैसा लेखन नहीं कर सकता ।

इसके अतिरिक्त, अपने लेखन के लिए उनका दबाव भी अलग होता है। यथार्थ को वे ही अधिक निकटता से जानते हैं और उनकी संचार क्षमता अन्य लेखकों की तुलना में अधिक होती है। दुनिया के 4 ऐसे पत्रकारों को मैं जानता हूं जिन्होंने किसी दार्शनिक की तुलना में अपने पाठकों को अधिक गहराई से प्रभावित किया है और उनमें से तीन ने तो दुनिया को बदला भी है। इनमें मूर्धन्य है लायड गैरिसन, दूसरे हैं कार्ल मार्क्स, तीसरे हैं मोहनदास करमचंद गांधी और चौथे हैं हॉब्सबाम। मेरे पास तैयारी के लिए न तो समय था, न योग्यता, न ही पत्रकारिता की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहता था, न लिखना चाहा।

ऐसा लेखन जिसे राजनीतिक भी कहा जा सकता है, पहली बार फेसबुक पर उस समय करना जरूरी लगा कि मुझे नागरी प्रचारिणी सभा और साहित्य सम्मेलन पर कब्जा करके उन्हें नष्ट करने वालों के इतिहास पता था। उनकी रक्षा के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता था, परंतु एकमात्र बच रही राष्ट्र का गौरव समझी जाने वाली संस्था पर,उन्हीं लोगों के द्वारा प्रहार किया जा रहा है, जिनको उसने सम्मानित किया था, वह भी पर्याप्त कारण के बिना, इसलिए मुझे उनकी आलोचना करने का कार्यभार निभाना पड़ा था। उसके विस्तार में न जाएंगे।

मेरी जानकारी में मेरे मित्रों के साथ मेरा संबंध व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक सम्मान का है और वैचारिक स्तर पर घोर विरोध का। चिंता के केंद्र में एक ही विषय रहता है। हमारे देश और समाज का हित किस तरीके से हो सकता है। इसे समझना जरूरी है।

मान लीजिए आपकी मां को उदर-विकार है।आप कहते हैं कि इसके लिए देसी दवा ठीक रहेगी। दूसरे पश्चिमी वैज्ञानिक सफलता के इतने कायल हैं कि वह ठान लेते हैं कि एलोपैथिक ही काम करेगी। एलोपैथिक उपचार के बेकार हो जाने के बाद भी, वे पश्चिमी, (ईसाई) झाड़फूँक के लिए तो तैयार हो जाते हैं परंतु आयुर्वेदिक चिकित्सा का निरंतर विरोध करते हैं। आप इस इस चरण पर देसी दवा पिला देते हैं, और मां स्वस्थ हो जाती है, इसे देखकर भी वे मानने के लिए तैयार नहीं कि इस चिकित्सा से स्थाई लाभ हुआ है। वे उसी मां को चारपाई से उठ कर चलते, हंसते ,बोलते देख कर भी विश्वास नहीं कर पाते कि यह उसके लिए आगे भी हितकर है। इसके साथ या जोड़ दिया जाए कि यह आदर्श स्थिति है मातृ- भक्ति की।

परंतु यदि किसी घटनावश आपको पता चले कि आपके वे भाई जो एलोपैथी के मुरीद थे उनका ध्यान मां को नीरोग रखने से अधिक उस दवा से मिलने वाले कमीशन पर था जिसे वे पूरे परिवार से वसूल कर रहे थे, तो झटका लगेगा। ग्लानि होगी। जानते हुए भी विश्वास नहीं होगा कि कोई ऐसा भी कर सकता है।

इसका प्रमाण मुझे दो अवसरों पर मिला। पहली बार हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य लिखने के बाद, जब मैंने यह उम्मीद की थी कि सही इतिहास जानने के बाद हमारे प्रतिष्ठित विद्वान अपना दृष्टिकोण बदल लेंगे। उनके पास किसी चीज का जवाब नहीं था, किसी स्थापना का खंडन नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने जो हथकंडे अपनाए उनसे पता चला कि इससे पहले किन तरीकों से उनसे एक खास तरह का इतिहास लिखवाया जा रहा था।

दूसरी बार 4 साल पहले जब कलबुर्गी की हत्या होने पर। यदि किसी को उह हत्या में किसी प्रकार की शिथिलता के लिए जिम्मेदार मानना ही था, तो उस समय उस राज्य की कांग्रेस सरकार को मान सकते थे। उसे दोष देने की जगह पुरस्कार वापसी अभियान चलाते हुए यह उम्मीद पाली गई कि इससे असाधारण जनमत वाली केंद्रीय सरकार भी गिराई गिराई जा सकती है । शेखचिल्ली के सपनों के बारे में सुना था, देखने का अवसर पहली बार मिला और इसलिए विरोध करने के लिए मैंने पहली बार राजनीतिक विश्लेषण करते हुए इस मूर्खता को उजागर करने का संकल्प लिया।

जिस व्यक्ति से यह सिलसिला आरंभ हुआ था उसके विषय में मैंने जो धारणा बना रखी थी वह यह कि वह आत्मविज्ञापन के लिए कुछ भी कर सकता है।

परंतु मेरा ऐसा सोचना गलत था। अभी 1 हफ्ते पहले एक प्रामाणिक स्रोत से पता चला कि किसी दूसरे व्यक्ति ने हत्या की सूचना देते हुए उसे यह सुझाया था कि कलबुर्गी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त विद्वान थे इसलिए अकादमी पुरस्कार-प्राप्त साहित्यकार होने के नाते अपना विरोध दर्ज करते हुए उसे अपना पुरस्कार वापस कर देना चाहिए। इसके उत्तर में उसने कहा था, यह तो बहुत बेतुकी बात है। जिस व्यक्ति ने यह सुझाव रखा था, उसकी कोई साहित्यिक हैसियत नहीं, फिर भी, ऐसा करना गलत है,, यह जानते और मानते हुए भी, उसने इसकी घोषणा की और उसके बाद जिनके सामने यह प्रस्ताव पहुंचा सभी की पहली प्रतिक्रिया यही थी, फिर भी सिलसिला जारी रहा।

यहाँ मैंने इस सवाल को इसलिए उठाया कि हमारा बौद्धिक नेतृत्व जिनके हाथ में है, वे यह जानते हुए कि कोई काम गलत है मामूली से मामूली बहकावे में आकर उसे कर ही नहीं सकते हैं, एक एक कर सभी उससे जुड़ते हुए यह भ्रांति पैदा कर सकते हैं, कि वे इस हत्या को केन्द्र सरकार द्वारा स्वतंत्र विचार का दमन मानते हुए इल विश्वास विरोध कर रहे हैं कि इस तरीके से वे व्यवस्था को बदल सकते हैं।

दुनिया के किसी देश को क्या झुंड की मानसिकता (HERD INSTINCT) से ग्रस्त ऐसा बदहवास बुद्धिजीवी वर्ग मिला होगा जो हमें मिला है, और वह, आए दिन, जिस तरह का तूफान खड़ा करता रहता है उससे उस देश और समाज का कितना नुकसान हो सकता है, जिसको दूसरों से अधिक प्यार करने के दावे वह करता रहता है! गलतियाँ किसी से हो सकती हैं, पर यह जानते हुए कि यह गलत है, अपने तुर्रे और तमगे दिखाते हुए इकट्ठा होने वालों की इतनी विशाल भीड़ इतिहास का अजूबा है जैसा न पहले हुआ न अन्यत्र कहीं हो सकता है, पर भारत के विषय में यह दावा नहीं किया जा सकता।