Post – 2016-04-01

हिन्दी का भविष्य (20)

‘यदि सभी रुकावटों की पहचान पूरी हो गई हो तो उनको दूर करने के लिए तन्त्र-मन्त्र, मनौती-यज्ञ का विधान किया जाए।’

‘तुम्हारे रहते रुकावटें दूर कैसे हो सकती हैं। उसके लिए तुम्हारा सफाया करना होगा।‘

वह हंसने लगा, ‘बड़े घटिया आदमी हो यार। मैं हमेशा तुम्हारे भले की सोचता हूँ तुम मेरे बुरे की सोचते हो। मैं चाहता हूँ तुम बने रहो और अपनी बेवकूफियॉं करते रहो जिससे हम भी उन बेवकूफियों को दूर करने के लिए बने रहें। और कोई काम तो, तुमने खुद कहा है, हमारे पास बचा नहीं है, और तुम हमें मिटाने की बात करते हो। तुम्हारी चले तो दुनिया से शराफत भी उठ जाएगी।‘’

’’शराफत की जो परिभाषा तुमने रची है, बन्दूक की, बारूद की, समरी ट्रायल की, हत्या की, यातना शिविरों की, जहॉं तुम्हारा शासन नहीं है, यातना शिविर नहीं बनाए जा सकते वहॉं दुष्प्रचार के यातना शिविर बनाने की, इसे मिटाए बिना शराफत बची रह ही नहीं सकती। शराफत को बचाने के लिए ही हम तुम्हा रा सफाया चाहते हैं।

‘’देखो, तुम्हें भी उसी चीज की चिन्ता है जिसकी हमें। तुम उसका जो अर्थ लेते हो यदि वही स्वीकार्य हो जाय तो मानवता खतरे में हैं। लाल तुम्हारा सबसे प्रिय रंग है, वह हमारा भी प्रिय रंग है। लाल का अर्थ तुम्हारे लिए लहू का रंग है, और हमारे लिए अनुराग का। जिस तन्त्र-मन्त्र की बात करते हो, उसकी साधना तुमने की है। उच्चाटन और वशीकरण के मंत्रों की सिद्धि तुम्हें है, लगातार एक ही रट को पूरे विश्वास से लगाते रहने से दिमागी धुलाई का जो यन्त्र तुमने नाजियों से विरासत में पाया है, उसी का परिणाम है कि मेरी बात सुनने को भी लोग तैयार नहीं होते और तुम्‍हारे खतरनाक कार्यक्रम के बाद भी तुम्हारे बहकावे में आ जाते है। ‘लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल। मैं आली देखन गई मैं भी हो गई लाल।’ इसका हमारा अर्थ अलग है और तुम्हारा अर्थ अलग है। मुझे चिन्ता इस बात को ले कर है कि संचार और प्रचार के माध्यमों पर तुम्हारे एकाधिपत्य के कारण उपद्रव और हिंसा, यहॉं तक कि देशद्रोह को भी उचित बता कर तालियॉं बजाने, जुलूस निकालने, और शान्ति व्यवस्था भंग करने के तरीके अपनाने वालों को लोग देश का हितैषी मान लेते हैं और हम प्रेम, शान्ति, सौहार्द और न्याय की बात करते हैं तो तुम हमें ही अपराधी बताने लगते हो। मुझे तो आश्चंर्य मोदी की समझ पर है, उसने वंशवाद और कांग्रेस को खत्म करने की कसम क्यों खाई, तुम्हारा सफाया तो उससे भी अधिक जरूरी था। खात्मे के एजेंडे पर सबसे उूपर तुम्हारा नाम आना चाहिए था और उसके बाद कांग्रेस का। पर फिर सोचता हूँ, सोचा होगा, ये तो अपनी करनी से ही मर रहे हैं, मरे को मारने से हत्याारी का पातक तो लगेगा, विजय का आनन्द नहीं मिलेगा।‘’

‘’देखो, यह अकेली मेरी समस्या नहीं है, सभी प्रतिभाशाली लोगों की समस्या है। समाज या कम्यु‘निटी के हित की चिन्ता से नैतिक सरोकार रखने वाले सभी कातर होते हैं। अमल में इसके दो ही रूप दिखाई देते हैं। कम्युिनलि‍ज्म या कम्युनिज्म । जो तुम जैसे नासमझ होते हैं, जिन्हें देश दुनिया का ज्ञान नहीं होता, वे पहला रास्ता चुनते हैं और जिनका दृष्टिकोण व्या‍पक होता है, देश-दुनिया की खबर रखते हैं, वे कम्युहनिस्टं हो जाते हैं। मेरी लाचारी है कि मैं दूसरी कोटि में आता हूँ। तुम पहली श्रेणी में हो। मैं तुम्हें फलता फूलता देखना चाहता हूँ कि हमारा भी कारोबार चलता रहा; तुम हमारी जड़ खोदने को तैयार रहते हो। हर बुराई तुम्हें मुझमें नजर आती है। हम लोगों को अपनी बुराई समझने के लिए तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं, अपनी आलोचना हम स्वयं कर लेते हैं।‘’

‘’जड़ें तुम्हा‍री कौन खोद सकता है यार, उसके लिए कहीं जड़ हो तो सही। तुम लोग तो आकाशबेलि के तरह पूरे भारतीय परिदृश्य‍ पर छाए हो। जड़ मूल गायब है पर जड़ता और मूढ़ता का अन्त नहीं। और इसी पूँजी पर सर्वत्र विराजमान ।’

‘हैल्युपशिनेशन में, जो चित्त में होता है वही बाहर दिखाई देता है। वह जड़ता भी हो सकती है और मूढ़ता भी । चित्रकूट के घाट पर चंदन घिसते हुए तुलसी दास को रघुवीर दिखाई दे गए थे और जब कृष्ण की मूर्ति के सामने खड़े हो कर कहा, ‘तुलसी मस्तक तब नवै जब धनुष बाण लो हाथ’ तो वही मूर्ति धनुष बाण लिए दिखाई पड़ी थी। उस जमाने में मैं होता तो भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकता था, परन्तु् आज जब तुम उसी श्रुति भ्रम और दृष्टि भ्रम के शिकार हो, हर चीज पर मैं ही छाया दिखाई देता हूँ, तो मैं तुम्हें किसी मनोचिकित्सक तक पहुँचाने का काम तो कर ही सकता हूँ।‘ वह अपनी बात पूरी करके इस तरह तना कि लगा छप्पन इंच का सीना वह भी फुला सकता है।

मैंने कहा, ‘’देखो, मैं उस शिक्षा-प्रणाली की बात कर रहा हूँ जिसे तुमने नष्ट कर दिया। जो चीज मुझे सर्वत्र दिखाई देती है वह है यूनियनबाजी। तुम्हारी आत्मालोचना का हाल यह है कि तुमने कभी रुक कर सोचने की फुर्सत ही नहीं निकाली कि लोग कुछ करने के लिए संगठित होते हैं और तुमने लोगों को कुछ न करने, जो उनकी अपनी जरूरत की चीजें और संस्थाऍं हैं उनका सत्यानाश करने और उसका भी इनाम वसूलने के लिए लोगों को संगठित किया। तुमने निकम्मेपन का प्रसार ही नहीं, नैतिक समर्थन किया, और उसी में से भ्रष्टाचार की विषवेलि पैदा हुई। हम तो काम नहीं करेंगे। जिसे काम कराना हो वह अपने प्रयत्न से करा ले। उनके सारे पाप नारों से धुल जाते हैं, और सारी जरूरतें नारे लगाने से पूरी हो जाती हैं । तुमने उस समाज से द्रोह किया जिसकी भलाई की चिन्ता तुम भी जताते थे पर अपने कारनामों से तुमने उसको ही कंगाल बना दिया और आज तक अपनी चूक का अहसास तक नहीं।‘

वह आत्म विश्वाास में इतना सराबोर था कि उसे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि उसका प्रतिवाद भी हो सकता है। वह मेरे त्वरित और सटीक प्रतिवाद से असंतुलित हो गया। मैंने अपनी बात जारी रखी, ‘देखो भारतीय भाषाओं के अभ्युदय के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली अर्थात् प्राइमरी, यह तो मेरे जमाने का शब्द है, हो सकता है उसे आज किसी दूसरे नाम से पुकारा जाता हो, माध्यमिक और उच्चमर माध्यमिक शिक्षा संस्थानों में अध्यापक अपने छात्रों को पढ़ाऍं, जिस योग्यता और दायित्व के आधार पर उन्हें चुना गया है उसे पूरा करें। वे किसी स्तक पर ऐसा नहीं करते। तुम जानते हो, योग्यताओं के आधार पर सबसे योग्य, प्रशिक्षित और महत्वाकांक्षी प्रत्याशी, सरकारी विद्यालयों में शिक्षक बनने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि सरकारी नौकरियों में वेतन अधिक सम्मानजनक है, उूपर से सेवानिव़ृत्ति के बाद पेंशन की सुविधा है, जो यहॉं से निम्नतर योग्यता के पाए जाते हैं और छॅट कर अलग हो जाते हैं वे उन व्यावसायिक स्कूॉलों में जाते हैं जिनके लिए पब्लिक स्कूंल का प्रयोग किया जाता है। शब्दाें के अनर्थ का यह भी एक नमूना है। जिन सार्वजनिक विद्यालयों के लिए पब्लिक स्कूल शब्द प्रयोग में लाया जाना चाहिए, उनकी साख गिराने के लिए उन्हेंं सरकारी स्कूल, म्युनिसपैलिटी का स्कूल कह कर अंग्रेजी के शिक्षा व्यवसायियों ने प्रयोग में लाना आरंभ किया और वह मान्य हो गया। इस पर कोई आयत्ति तक नहीं करता। यह इस बात का प्रमाण है कि तुम बाहर से इतने विराट दीखते हुए भी भीतर से कितने खाली हो गए हो और अपनी ही अतियों के कारण तुम मिटने के कगार पर हो।

‘बुरा मत मानो। मेरे मित्र हो। स्वयं देखो, समाज को दिशा दिखाने वाली शिक्षा व्यखवस्था ही गड़बड़ है और यह तुम्हारी कृपा से है। मैं आज से तीस साल पहले की एक घटना का हवाला दूँ । उस समय एक साहसी शिक्षा निदेशक ने, तुम्हेंं यह भी याद दिला दूँ कि उन दिनों दिल्ली राज्य नहीं बना था, इसे दिल्ली प्रशासन कहा जाता था। उन दिनों, उसने निजी स्कूलों में पालन किए जाने वाले एक नियम को दिल्ली सरकार के स्कूलों पर लागू करना चाहा, जिसमें यह व्यवस्था थी किे कोई अध्यापक, जैसा वह निजी स्कूलों के करने को बाध्य‍ है, ट्यूशन नहीं करेगा । यही वह व्याधि है जिसमें अघ्यापक अपनी क्लास उपस्थिति दर्ज कराने के लिए और अपना समय काटने के लिए लेते थे, और यह जताते रहते थे कि यदि कुछ जानना है तो ट्यूटर रखो। यदि मैं रहा तो तुम्हारा कल्याण और न रहा तो भगवान तो है ही। इसमें शिक्षक जो निजी स्कूटलों की तुलना में अधिक योग्य्, सुप्रशिक्षित और अधिक सम्मानजनक वेतन पाते थे, और जिनका नैतिक दायित्व था कि वे इस निर्देश का सम्मान करते, उनकी यूनियन अर्थात् अखिल भारतीय शिक्षक संघ ने जो तांडव किया उसके परिणाम स्वरूप उस निदेशक को जाना पड़ा, ट्यूशन प्रणाली की विजय हुई। यदि तुममे आत्मालोचन की शक्ति बनी हुई है तो ऐसे देशद्रोही, समाजद्रोही, अर्थव्युवस्था को नष्ट करने वालों का साथ छोड़ो। उनकी आलोचना करो या यदि नहीं कर सकते तो उस समय चुप रहा करो जब आलोचना हो रही हो। यह सिद्ध करो कि तुम्हारा होना देश और समाज के हित में है और इसके साथ ही हमारी वह अड़चन दूर हो जाएगी जो तुम्हारे कारण है। फिर तो हम एक ही भाषा में बात करेंगे। लाल का वह अर्थ तुम्हें समझ में आ जाएगा जो हम लगाते आए हैं और सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में सुधार सुशिक्षित होने के विश्वास के साथ ही अनावश्यक हो जाएगी माथापच्‍ची और मिट जाएगा वह दैन्य जिसके कारण लोग शिक्षा का अर्थ अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा लगाने लगे हैं।