सभ्य हैं इतने लोग-बाग यहां
कोई इंसान तलाशे न मिला।।
Month: May 2019
Post – 2019-05-17
सीवर से जिंदा न लौटने वाले का बयान
मरते हुए मरने की राह देख रहे थे
जीने का कोई और बहाना ही नहीं था।
Post – 2019-05-16
सीवर में उतर कर कभी देखा है आपने
जब कल्पना करेंगे तो थर्रा उठेंगे आप।
हम कैसे बने जो भी बने इल्म तक नहीं
पर हम न रहे, आप रहे, क्या बनेंगे आप।।
Post – 2019-05-16
हम मर के भी मरने की राह देख रहे थे
जीने का कोई और बहाना ही नहीं था।
Post – 2019-05-16
असभ्यता का विकास और जाहिलिया की अवधारणा
यदि यहूदी कबीले जाहिलिया में न पड़े होते तो इब्राहिम उनको उससे उबारने की जहमत मोल न लेते। जहां, पहले से, मजहब जैसा कुछ था नहीं, वहां मजहब शुरू न होता। विकास में चरवाही के स्तर पर रुके और सभ्यता की दौड़ में पिछड़े रह गए कबीलों को अपने को सबसे समझदार, सबसे प्रबुद्ध, सबसे प्रगतिशील, सबसे मानवतावादी मानते हुए सभ्यता को उल्टी दिशा में ले जाने का, सभ्यता को असभ्यता और जहालत को परम ज्ञान, अंधकार को प्रकाश सिद्ध करने के लिए इतना जुल्म करना, इतना खून बहाना, इतना लंबा संघर्ष करना न पड़ता जो खत्म होने का नाम नहीं लेता और विश्वमानवता की प्रगति में सबसे अधिक बाधक है ।
जाहिलिया अरबी का शब्द है। जाहिलिया का अर्थ सामान्यतः अज्ञान मिलेगा। इसके लिए हिब्रू में किस शब्द का प्रयोग होता था यह पता लगाने पर भी पता न चला। ईसाइयत में इसके लिए पहली बार किस शब्द का प्रयोग किया गया यह नहीं मालूम। फिर भी सभी सामी मजहबों में ऐसे सभी लोगों को जो उस मजहब को नहीं मानते उनको आधा या पूरा जाहिल माना जाता है और सच्चे ज्ञान का उदय उस मजहब को अपनाने वालों को ही हो पाता है। वे ही पापों से मुक्त हो पाते हैं। इसलिए शब्द भेद होते हुए भी, यह अवधारणा इन सभी मजहबों में पाई जाती है।
अभी तक के अध्ययनों से हम केवल इतना ही जान पाते हैं कि सभी सामी मत इब्राहिम से अपना संबंध जोड़ते हैं (यूं तो पौराणिक तार आदम तक पहुंचता है), और उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित इतिहास, पुराण, विश्वास, रीति-विधान अपना कर अपने विचारों को लोकमान्य बनाने के प्रयत्न करते रहे हैं। (यही पता चलता है कि समाज की मानसिकता को नियंत्रित करने के मामले में इतिहास, काल्पनिक ही क्यों ना हो, की भूमिका निर्णायक होती है)। दूसरे सामी मजहबों को इब्राहिम से प्रेरणा मिली थी, परंतु इब्राहिम को मजहब की प्रेरणा कहां से मिली थी, इसका पता नहीं चल पाता। इसकी खोज करने का कभी प्रयत्न तक नहीं किया गया।
इसका एक कारण है।
विश्व का बौद्धिक नेतृत्व पिछले 400 साल से यूरोप करता आया है। आधुनिक ज्ञान विज्ञान के विविध क्षेत्रों में हुई प्रगति में यूरोप के उद्यमियों, चिंतकों और आविष्कारकों की ही प्रमुख भूमिका रही है। समूचे जगत में वे सही अर्थ में आधुनिक और विकसित कहे जा सकते हैं। दूसरे देशों ने उसी अनुपात में प्रगति की है, जिस अनुपात में उन्होंने पश्चिम से कुछ सीखा जाना और अपने व्यवहार और संस्कारों में उतारा है। पश्चिम ने स्वयं भी दुनिया की दूसरी सभ्यताओं, संस्कृतियों, समाजों की अनुकरणीय विशेषताओं को उसी तरह अपनाया है, जैसे वहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का प्रयत्न किया है। परंतु यदि हम पश्चिम से कुछ सीख सकते हैं, तो पहली बात सीखने की यह है कि उसने ज्ञान हो या कौशल, उत्पाद हो प्राकृतिक संपदा, जो कुछ भी लिया, कच्चे माल की तरह इस्तेमाल किया और उसे नए रूप में ढालते-बदलते हुए आत्मसात किया है। हम ठीक इसी रूप में किसी अग्रणी समाज से जो कुछ ग्राह्य है उसे सीखने के बाद अपनी आवश्यकता के अनुसार नए रूप में ढालते हुए आत्मसात करके ही निकट या दूर भविष्य में उसके समकक्ष खड़े होने या उससे आगे बढ़ने का स्वप्न देख सकते हैं।
पश्चिम दो तरह की ग्रंथियों से ग्रस्त रहा है । एक जो रंगभेदी संस्कार, औपनिवेशिक हितों, व्यावसायिक लाभ और वर्चस्ववादी जरूरतों से पैदा हुई है, जिसके पेंच आसानी से समझे जा सकते हैं। इसके कारण उसने सीखने और जानने की अपेक्षा जाने हुए को विकृत करने का प्रयत्न सभी क्षेत्रों में किया है, और इसलिए उसने उन विशेषताओं को समझने में नादानी से काम लिया है जिनमें उसकी विशेषज्ञता के कायल हैं और जिससे हमारा ही नहीं अग्रणी देशों का भी ज्ञान, विखंडित सूचनाओं का अपार अंबार बन कर रह गया है।
दूसरा है विश्व का समस्त ‘उपलब्ध ज्ञान’ संचित करने और सूचना और संचार के माध्यमों के अकल्पनीय विकास से अर्जित आत्मविश्वास जो नस्ली सोच से मिलकर इतना प्रबल हो जाता है कि वह आत्मविस्मृति का शिकार हो जाता है और उस दशा में मनोविक्षिप्त भाव से यह मानने और दूसरों को समझाने प्रयत्न करता है कि वह सदा से ही, सभी देशों से, सभी मामलों में आगे रहा है, और अतीत काल में भी दुनिया में जो विकास कहीं भी हुए हैं वे उसी की प्रेरणा से या प्रभाव से हुए हैं।
ज्ञान-विज्ञान में प्रगति के कारण इतनी मूर्खतापूर्ण बातों का समर्थन कोई संतुलित मस्तिष्क का विद्वान नहीं कर सकता, न ही जो सर्वविदित है उसे झुठलाकर अपनी विश्वसनीयता दांव पर लगा सकता है, इसलिए ऐसे विद्वानों का निपट अभाव नहीं है जो सभ्यता के विकास को यथासंभव वस्तुपरक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करें। परंतु ऐसे विद्वान भी, उन पूर्वाग्रहों के दबाव में गढ़ी गई कहानियों, और उनको विश्वसनीय बनाने के लिए तैयार की गई दलीलों के दबाव से मुक्त नहीं रह पाते और इसलिए उनकी मान्यताएं और स्थापनाएं भी अंतर्विरोधों और असंगतियों से भरी रहती हैं। इसके कारण विश्व सभ्यता के चरित्र को समझने में लगातार गलती की जाती है और अधिकांश विवरण बीच से आरंभ करने होते हैं, जिससे कार्य कारण का संबंध गायब हो जाता है, और निर्णायक विकास विकास न रह कर आकाशपतित, या किसी अन्य लोक से इसी प्रयोजन से आए हुए अतिमानवों की कारस्तानी लगता है।
विश्व सभ्यता के विकास में भारत की अनन्य भूमिका रही है, और भारत पर अपने औपनिवेशिक अड्डे कायम करने के साथ संस्कृत भाषा की तुलनात्मक श्रेष्ठता की मूक और वाचिक स्वीकृति के कारण अपनी धौंस को बनाए रखने के लिए झूठी कहानियां गढ़ते हुए वस्तु स्थिति को उलटने की विवशता पैदा हुई जिनकी चर्चा हम ऊपर कर आए हैं। इसलिए यूरोपीय चिंतन में भारतीय अग्रता को नकारने के जबरदस्त प्रयत्न वहां भी होते रहे जहां इसकी अग्रता के बहुआयामी साक्ष्य उनके ही इतर अध्ययनों और खोजो में उपलब्ध थे।
परिणाम यह रहा है कि हमारा पूरा शिक्षाशास्त्र अतर्क्य सूचनाओं का ऐसा कूड़ा घर बन चुका है जिसमें अंतःसंगति के अभाव के कारण ज्ञान बोझ बन जाता है, जबकि सही परिप्रेक्ष्य में रखने पर यह आलोक वन सकता था, जैसा कि हम विज्ञान के ऐसे क्षेत्रों में पाते हैं जिन्हें वर्चस्ववादी पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा गया है।
हमने इस प्रसंग को इसलिए नहीं उठाया कि हम भारत की महिमा का कीर्तन करें, अपितु यह याद दिलाने के लिए कि आधुनिक समाज की अनेक विकृतियों की जिम्मेदारी भी भारत पर आती है। ये विकृतियां भी, मूलतः विकृति नहीं, तत्कालीन परिस्थितियों में, किन्ही समस्याओं के समाधान के क्रम में आविष्कृत मनोवैज्ञानिक या सामाजिक उपकरण रही हैं।
इन्हीं में जाहिलिया की अवधारणा भी है। सामी मजहबों की साझी संपदा की जड़ें भारतीय हैं, इसे समझने से तुलनत्मक धर्मतंत्र (Comparative Religion) के अध्येताओं द्वारा भी हठपूर्वक इंकार न किया गया होता तो आधुनिक विश्व में धर्म के नाम पर फैलाई गई विषाक्तता का निदान किया और इससे हुई अमानवीय त्रासदियों को समाप्त नहीं तो सीमित तो किया ही जा सकता था।
Post – 2019-05-15
जिन्हें इतिहास की समझ नहीं होती वे वर्तमान में तो उद्विग्न रहते ही हैं जिस भविष्य की राह देखते हैं उसका सही पूर्वानुमान भी नहीं कर पाते।
देखिए पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फैज
इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।।
Post – 2019-05-13
हंसो न उन पर जो हंसकर भी हंस नहीं पाते,
जख्म कितनों को दिया हंस कर, यह हिसाब करो।
Post – 2019-05-09
प्रियंका मोदी को हद दर्जे का कायर नहीं नामर्द कहने जा रही थीं, मतलब समझ में आया तो विशेषण बदल दिया। अक्ल की दाद दें।
Post – 2019-05-09
चीन एक प्राचीन देश है। वह एक नया प्रयोग कर रहा है, ‘शठे शाठ्यं।
विद्रोहियों के हथियार को उन पर लागू करके देखो परिणाम क्या निकलता है।
Post – 2019-05-09
वाइस ऐडमिरल रामदास की खोपड़ी क्या इतनी खाली हो गई है कि उन्होंने ओखली में सर दे मारा।