Post – 2020-04-15

कुछ तो कहते जो सोच कर कहते
कुछ तो करते जो जान कर करते।
लोग शायद जहाँ को बदलेंगे
आप की बात हम नही करते ।।

Post – 2020-04-14

#शब्दवेध(9)
#भाषा_परिदृश्य

हम ‘शब्द’ पर विचार करते हुए इस नतीजे पर पहुँचे थे कि “यह होठों से उत्पन्न ‘सप’ ध्वनि की नकल है, और इसका प्रयोग उन क्रियाओं – कथन, आर्द्र पदार्थ के ग्रहण- और संज्ञाओ -साप/शाप, सूप, त. साप्पाडु, सापिडुगरेन, अं, सूप, सपर, आदि में देखने में आता है।

इसका एक अन्य पक्ष रोचक है। यह है बोली से संस्कृत में बदलने और फिर बोली में बदलने का और संस्कृत में कुछ समय तक इसके एक नए अर्थ में प्रयोग में आने के बाद इसके लोप और बोली में बने रहने का लुका छिपी का खेल।

पर इससे पहले हम भारत की शेष बोलियों से सारस्वत क्षेत्र की उस भाषा की भिन्न प्रकृति को समझ लें जिसके कारण न केवल पूरबी बोली का संस्कृतीकरण हुआ, बल्कि भारतीय भाषा परिदृश्य की वह समस्या पैदा हुई जिसकी व्याख्या के लिए आर्यों के दो आक्रमणों की अर्थात पहले आक्रमण से उत्तर भारत पर अधिकार जमा चुके आर्यों पर आर्यों के दूसरे आक्रमण की, मध्यदेश की आर्यभाषा और परिमंडल की भाषा (हार्नले और ग्रियर्सन) की अटकलबाजी की गई, परन्तु जिसका आधार ही गलत सिद्ध हुआ (चटर्जी ) क्योंकि जिस दिशा से इस दूसरे जत्थे के प्रवेश करने की कल्पना की गई थी, उसकी बोलियाँ (दरद आदि) अधिक दूषित थीं।

भारतीय भाषा परिदृश्य में बाँगड़ू अकेली ऐसी बोली है जो व्यंजन प्रधान है, जबकि दूसरी सभी बोलियां स्वर-प्रधान है। व्यंजन प्रधान भाषाओं की विशेषता वेग या त्वरा है और इसीलिए इनमें स्वरलोप की प्रवृत्ति तो पाई ही जाती है, अन्तस्थ (य,र, ल, व, स, त, द )का आगम (शब्द के अंत या मध्य में जोड़ कर नादसौंदर्य पैदा करने का प्रयत्न देखने में आता है जिससे नई व्यंजनाएँ भी पैदा होती हैं (सत, सत्, सत्व, सत्य, श्रत्, श्रद्धा)।

यद्यपि आज इसमें ऊष्म ध्वनियों के सभी रूप – श, ष, स – पाए जाते हैं, जिनमें ‘स’ इसकी ध्वनिसंपदा से मेल न खाता था और इसलिए इसके उच्चारण में काफी परेशानी होती थी जिसे स्, र्, श्, विसर्ग (:), ओ आदि में परिवर्तित होना पड़ता था। राजवाडे ने किसी प्राचीन चरण पर उच्चारण की इस समस्या के पैदा होने की बात की है और यह पूरबी बोली के इस क्षेत्र में प्रवेश के समय की समस्या प्रतीत होती है।

जिस संस्कृत (भारतीय) वर्णमाला से हम आज परिचित हैं उसमें किसी न किसी चरण पर सारस्वत क्षेत्र में पहुँचने वाली सभी बोलियों की ध्वनियों का समावेश है, परन्तु आरंभ में बाँगड़ू की ध्वनिमाला क्या थी या भोजपुरी, अवधी, बांग्ला आदि की वर्णमाला क्या थी इसका सही ज्ञान हमें नहीं है। किसी बोली में इन सभी ध्वनियों का उच्चारण नहीं होता।

स्वयं वैदिक में तवर्गीय ध्वनियों की जगह टवर्गीय ध्वनियाँ थीे। अतः ऊष्म ध्वनियों में ‘ष’ की ध्वनि प्रधान रही लगती है जिसका प्रयोग विशेष स्थितियों में स-कार के लिए देखने में आता है (सोम/ अग्नीषोमा)। ऐसा तभी हो सकता है जब, नकार इसमें न रहा हो, जैसा आज भी बाँगड़ू मे है। पूरबी मे आग ‘अगन’ था, बाँगड़ू में ‘अग्णि’ बना, कुछ समय बाद स्थिरीकरण से अग्नि के स्थिर हुआ। यदि इस नियम का विस्तार करें तो आरंभिक संक्रमणकालीन समस्या बहुत विचित्र दिखाई देगी। शकार और लकार का इसमें प्रवेश मागधी प्रभाव के कारण हुआ लगता है परंतु इसकी जितनी गहन छानबीन जरूरी है वह मुझसे न केवल हो न सका अपितु उसकी योग्यता भी न थी।

स्वरप्रधान भाषाओं में गेयता और लालित्य की प्रधानता होती है और इसका आग्रह बढ़ने से स्वर और विलंबित होता जाता है और कौरवी का अर्ध अकार भो. में अs > अss जो ‘आ’ के निकट प्रतीत होता है बांग्ला तक ऑ में बदल जाता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में संस्कृत और हिंदी का यथालिखित उच्चारण होने के कारण उत्तर भारत के लोगों को वह हास्यकर प्रतीत होता है। आदि भारोपीय स्वरप्रधान थी। उसमें जहाँ सभी शब्द (अजन्त) स्वरांत थे कौरवी क्षेत्र में हलन्त या व्यजनांत हो गए, मध्यस्वर का भी लोप हो गया। लिखने को भले अजंत लिखें उच्चारण हलंत होगा। रामनाथ का हिंदी उच्चारण में राम्नाथ् है पर दक्षिण भारतीय उच्चारण में रामानाथा का श्रुतिभ्रम पैदा करता है। हिंदी में गुप्ता, चन्द्रा, सिन्हा, श्रीवास्तवा, आदि उच्चारण उसी प्रभाव की देन हैं। अंग्रेजी शिक्षा को आगे बढ़ कर अपनाने, अंग्रेजों के प्रति अधिक भक्तिभाव रखने के फलस्वरूप, लंबे समय तक दक्षिण भारतीयों और बंगालियों के सर्वाधिक पदों पर विराजमान रहने के कारण, उत्तर भारतीयों में यह ग्रंथि पैदा हो गई थी बंगाली और मद्रासी निसर्गजात रूप में अधिक प्रतिभाशाली होते हैं, और उपनामों को अकारांत बनाने की प्रवृत्ति उसकी क्षतिपूर्ति है।

जैसे द्रविड़ भाषाओं में वर्गीय ध्वनियाें में केवल प्रथम और अनुनासिक ध्वनियाँ ही पाई जाती हैं और यह इस कारण है कि मौर्य और गुप्तकाल में भी दक्षिण उत्तरी साम्राज्य का हिस्सा नहीं बना, इसलिए वे भाषाएँ, उनमें भी तमिल, अपने मूल रूप को सुरक्षित रख सकी, अतः इस सीमा को हम समझ पाते हैं उसी तरह इस बात की संभावना कि दूसरी बोलियों में भी बहुत कम ध्वनियों से काम चलता रहा हो। यदि देववाणी घोषमहाप्राण से प्रेम करती थी तो दूसरी बोलियों की अलग सीमाएँ थीं जो अध्ययन का अलग विषय है।

हम लुकाछिपी की जिस क्रीड़ा की बात कर रहे थे, उसका एक कारण मूल ध्वनियों की ये सीमाएँ भा हैं। दूसरी ओर इसके ही चलते सप कौरवी क्षेत्र में पहुँच कर शब् हो जाता है और इसमें द प्रत्यय के रूप में जुड़ता है तब शब्द- ध्वनि, सार्थक पद, कथन, वाचन (निगदेनेव शब्दते- रटा हुआ वाक्य दुहराता है), आदि आशयों का द्योतक होता है।

अन्तस्थ ध्वनि ‘र’ के आगम से शप/शाप के विकल्प के रूप में संस्कृत में श्रप/श्राप भी प्रचलित हुआ । इसका तद्भव ‘सराप’ ‘सरापल’ – शाप, शाप देना भोजपुरी में आज तक प्रचलित है। परन्तु संस्कृत में इसका प्रयोग पकाने, उबालने के आशय में होने लगा – नैऋृत्र्यं चरुं श्रपयति, इसलिए शाप के लिए इसका वैकल्पिक प्रयोग बंद हो गया और आगे चल कर पकाने, उबालने के लिए भी प्रयोगबाह्य हो गया, परंतु शाप देने के अर्थ में श्राप का तदभव रूप भोजपुरी में आज तक व्यवहार में आता है।

Post – 2020-04-13

#शब्दवेध(8)
पारिभाषिक शब्द

अपने आगे की चर्चा में हम भारोपीय क्षेत्र में फैली भाषा के लिए भारोपीय का ही प्रयोग करेंगे, क्योंकि, जिस भाषा का प्रसार हुआ था वह न तो वह भाषा थी जिसके नमूने ऋग्वेद की ऋचाओं में मिलते हैं, न ही संस्कृत थी। यह बोलचाल की वह भाषा थी जिसमें उन बोलियों के लक्ष्मण भी विद्यमान थे जिन्हें हम आजकल भारत के दूसरे भाषा-परिवारों में गिनने के अभ्यस्त हैं।

सारस्वत क्षेत्र की भाषा सही प्रतिनिधित्व बांगरू करती है जिसे हरयाणवी ने संभाल रखा है। प्राकृतों के लिए मागधी, आर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री नाम स्वयं प्राकृतों की ध्वनि-प्रकृति से मेल नहीं खाते। ये नामकरण बोलियों के उसी संस्कृतीकरण के प्रमाण हैं, जिनके दबाव या प्रभाव से मगही बोली का प्राकृत रूप बना था। इसका पहले भी मगही/मगी जैसा कोई नाम था और आज भी मगही ही प्रचलित है। इसका नामकरण मग जनों की बोली होने के कारण किया गया था। ऐसा लगता है, मगध में इन जनों की आनुपातिक उपस्थिति अधिक थी, परंतु भोजपुरी और अवधी क्षेत्र में भी इनका निवास या विचरण क्षेत्र था, इसके प्रमाण मध्य पाषाण काल से ही देखने में आते हैं जो महगरा (यहाँ मगों का निवास- *मगघर>मगहर में वर्णविपर्यय हुआ है) से प्रकट है। पहले संभवतः मैदानी भाग में इन्हीं की उपस्थिति प्रमुख थी।

अपनी शक्ति बढ़ा लेने के बाद उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र से जिसे आज भी देव भूमि कहा जाता है, और जिसका विस्तार पूरे पर्वतीय क्षेत्र के लिए हो गया, उतर कर देवों ने नदियों के कछार में अपना अधिकार इनके बीच ही जमाया था, और उन स्थानों का नाम देव- पूर्वपद के साथ रखा था जो देवरिया, देवकली, देवार आदि में बचा हुआ है। लहुरा देवा ( देवों की छोटी/ नई बस्ती) जहां से लगभग 7000 ईसा पूर्व के आसपास स्थाई बस्ती के प्रमाण मिले, वह भी मग-बहुल क्षेत्र में ही बसा था।

देवों का इनसे सैद्धांतिक विरोध था। ये मंत्र तंत्र जादू टोना में विश्वास करते थे, जिससे वैज्ञानिक सूझ रखने वाले देवों का विरोध था। सबसे पहले उन्हें इन्हीं से टकराना पड़ा था और यह टकराव हजारों साल तक बना रहा था।

देव समाज के सामने कमजोर पड़ने के बाद मगों को पश्चिमोत्तर की ओर पलायन करना पड़ा था, वे ईरान पहुँचे थे। इनका प्रभाव पश्चिम में दूर तक फैला था और यह माना जाता है अंग्रेजी का मैजिक शब्द मगों/मागियों के चमत्कार के दावे का ही परिणाम है। देवों से शत्रुता की यह गांठ बाद में भी बनी रही, और वैदिक कालीन विस्तार के चरण पर ईरान में देव समाज को अपने प्रभुत्व के बाद भी, जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसी का नतीजा था देव शब्द का अवेस्ता में निंदा परक प्रयोग जो अंग्रेजी के डेविल शब्द में भी देखा जा सकता है।

हम भाषा की बात कर रहे हैं, इसलिए याद दिलाना जरूरी है कि अपने प्रभाव क्षेत्र से भगाए जाने के बाद भी न तो इनका पूरा उन्मूलन हुआ, न इनकी ओर से विरोध कम होने के बाद इसकी जरूरत थी। अब वे विघ्नकारी नहीं रह गए थे। इनकी बोली का गहरा प्रभाव भोजपुरी के निर्माण पर पड़ा। मागधी और अर्धमगधी के आपसी संबंध इसी सूत्र से जुड़े हुए हैं। इनके लिए हम आगे पूरबी बोली का ही प्रयोग करेंगें, यद्यपि इनके भीतर कई रंग है। यह ध्यान देने की बात है कि जैन प्राकृत/ आर्ष प्राकृत का आधार अर्धमागधी है जिसमें श-कार से विरक्ति है, और ल-कार की तुलना में र-कार प्रेम पाया जाता है। “जैन धर्म के प्राचीन सक्त अद्धमागह भाषा में रचे गए है।” (हेमचन्द्र, अभिधान चिंतामणि की टीका; पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा 16 )

भोजपुरी की तरह ब्रज में भी तालव्य सकार (श) नहीं पाया जाता। जिस मथुरा को सूरसेन जनपद की राजधानी बताया जाता है उसकी भाषा के लिए सूरसेनी का प्रयोग अधिक सही है। परन्तु सूरसेनी प्राकृत का प्रसार क्षेत्र कौरवी तक था और बोलियों के मानकीकरण या संस्कृतीकरण को समझने की दृष्टि से यह नाम कुछ भ्रामक है। जो भी हो इस नाम से अभिहित प्राकृत का ही प्रसार महाराष्ट्र में हुआ था, और यही जैनियों के बीच भी प्रचलित हुई थी। परंतु महाराष्ट्री शब्द का ध्वनिविन्यास प्राकृत के अनुरूप नहीं है।

सचाई यह भी है कि प्राकृतों में बहुत मामूली भिन्नताएं हैं, एक बार प्रतिष्ठा पाने और संस्कृत की तरह बोलियों से लुकाछिपी खेल में प्राकृतों के भी शामिल होने के कारण भारत की बोलियाँ प्राकृतों से और इसी तरह अपभ्रंश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी, परंतु जैसे संस्कृत से प्राकृताें का जन्म नहीं हुआ, उसी तरह अपभ्रंशों का जन्म प्राकृतों से नही हुआ। अपभ्रंशों (सच कहें तो अपभंसो) का उदय चारणजीवी आभीरों के संगठित हो कर शक्तिशाली बनने का परिणाम था जिसमें कवियों ने अपनी रचनाओं में उनकी ध्वनि प्रवृत्ति को सचेत रूप में पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया और अब प्राकृत से आगे बढ़ कर इसका व्यवहार करने लगे। महत्वपूर्ण बात है एक बार चलन में आ जाने के बाद कवियों का इन पर अधिकार करना। स्थानीय बोलियों से इन्हें ताे प्रभावित होना ही था, इनकी कृत्रिमता का या कहें इनके कतिपय प्रयोगों का प्रवेश बोलियाों में भी हुआ।

Post – 2020-04-12

#शब्दवेध(7)
इतिहासवेध का समापन

भूमिका का ध्यान शब्दवेध आरंभ करने के बाद आया और यह अपेक्षा से कुछ अधिक लंबी हो गई, फिर भी कुछ कमियां रह गईं। जिनकी रुचि शब्दों की परतें उतारने में है, उनको यह विचित्र लगा होगा कि बात तो शब्दवेध की की जा रही है, और वेध इतिहास का किया जा रहा है। ऐसे तीरंदाज पर भरोसा कौन कर सकता है जो चलाता तो तीर है पर वह तुक्का बन कर कहीं का कहीं पहुंच जाता है। अनचाहे ही सही, तुक्का बनकर भी तीर ने अपना काम किया है।

विद्वान उसे कहते हैं जिसके ज्ञान पर दूसरे भरोसा करके उसकी बात मान लेते हैं, भले उसका ज्ञान बहुत सीमित हो, और अपनी लाज बचाने के लिए, उसे, ऐसी बातें तो करनी ही पड़ती हैं जिन्हें वह जानता है, साथ ही ऐसी अटकलें भी लगानी पड़ती हैं जिनमें से कुछ गलत भी सिद्ध हो सकती हैं। ऐसे ही लोगों पर मैत्रायणी संहिता का कथन – ब्राह्मण उभयीं वाचं वदति यश्च वेद यश्च न, मै.सं. 2.1.15 – ज्ञानी दोनो तरह की बातें करता है; जिसे समझता हे उसे तो कहता ही है, जिसे नहीं समझता उसे भी बकता है -पूरी तरह लागू होता है, और इनमें ही हमारी भी गणना होनी चाहिए। भाषा के मामले में मैं जिस तरह का विद्वान हूं,उसमें मुझ पर, या मेरी परिस्थिति में दुनिया का कोई दूसरा विद्वान हो तो, उस पर भी पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता।

एक अतिपरिचित पर उतने ही गलत शास्त्र को, उलट पलट कर हमने ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है जिसमें हर चीज को नए सिरे से जुड़ना है पर इस बात का सही पता नहीं कि इस मलबे से निकला कौन सा टुकड़ा पूरी तरह कहां फिट होता है। ज्ञान और अनुमान की यह धूप-छांव हमारे पूरे विवेचन में जारी रहनी है। उस जटिल, व्यापक और बहु स्तरीय समस्या की पूरी पृष्ठभूमि को इतना लंबा समय लेकर भी मैं पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर सका, फिर भी इसे समझे बिना कई तरह की भ्रान्तियाँ पैदा हो सकती हैं, जिसमें पिछड़ेपन का महिमामंडन, और विकास के चरणों के सरलीकरण, संस्कृत की एक परिष्कृत भाषा के रूप में उपेक्षा की समस्या भी पैदा हो सकती थी।

संक्षेप मे यह याद दिलाना भी जरूरी है कि ऋग्वेद में संकलित रचनाएं उस विशाल भंडार का नष्ट होने से बचा रह गया क्षुद्र अंश है जिसकी रचना 1000 साल की लंबी अवधि में हुई थी, इसलिए, इसमें भाषा के अनेक प्रयोग हुए हैं, यद्यपि प्रयत्न एक मानक भाषा के अनुरूप रचना करने का ही था। दूसरी बात यह कि ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा अपने समय की बोलचाल की भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। बोलचाल की भाषा के भी दो रूप थे। एक भिन्न भाषा और विश्वास वाली पृष्ठभूमि से आर्थिक कारणों से, इस समाज के प्रभु वर्ग की सेवा में लगे हुए लोगों की घरेलू बोलियाँ और दूसरी संपर्क भाषा के रूप में उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा, जिसमें उनकी बोलियों की छाप बनी रह सकती थी।

एक और गलती जो पेशेवर भाषाशास्त्रियों से होती रही वह यह है कि संस्कृत से प्रथम परिचय और उसी को आधार बनाकर भाषा विज्ञान का अध्ययन आरंभ हो जाने के कारण, भारोपीय का सीधा संबंध संस्कृत से जोड़ लिया जाता था, जबकि जिस पाणिनीय संस्कृत को तुलना के लिए चुना जाता रहा है, वह वैदिक सभ्यता से लगभग डेढ़ हजार साल बाद की, पंडितों द्वारा रची भाषा है, जिसका बोलचाल में, इसका मानक रूप तैयार होने के समय, शिक्षित ब्राह्मणों के बीच भी प्रयोग नहीं होता था। इसे स्वीकार करने में कुछ समय लगा।

भारोपीय क्षेत्र में जिस भाषा का प्रचार हुआ था साहित्यिक नहीं अपितु बोलचाल की वह प्रधान भाषा थी जिसे संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में लाया जाता था, या कहें जिसका प्रयोग वैदिक समाज का व्यापारी वर्ग, जो अपने को श्रेष्ठ और सदाचारी (आर्य, साधु) कहता था, उसकी भाषा का हुआ करती थी। परंतु विशेष बोलियाँ बोलने वाले और निजी उपक्रमों में लगे हुए लोग अपने प्रभाव क्षेत्र में अपनी बोली का भी प्रयोग करते थे, और इसी के कारण मुंडारी या द्रविड़ के तत्वों का भी साथ साथ प्रसार हुआ था। अतः हम यह मानते हैं आर्य भाषा का प्रयोग ऋग्वेदिक काल की संपर्क भाषा के लिए ही हो सकता है।

संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा बन कर पैदा हुई जिसे गुरू से सीख कर जाना, जा सकता है और जिसकी शुद्धता बनाए रखने के लिए, इसे सीखने का अधिकार ब्राह्मणों ने अपने पास सुरक्षित रखा था। उपनयन के अधिकारी दूसरे वर्णों को साक्षर बनाया जाता था और अपने लिए वर्णधर्म के अनुसार दूसरी विद्याएँ सिखाई जाती थीं। यह बाजार की और बनियों की भाषा नहीं थी, न बनाई जा सकती थी। इसलिए न तो इसका चलन आम जनों में हो सकता था, न बाद की भाषाएँ इसके विकार या विघटन से पैदा हो सकती थीं।

होता यह रहा कि भारत की कोई बोली यदि किसी कारण से अधिक समादृत हो जाती थी और इसकी पहुँच सारस्वत क्षेत्र, जिसे बाद में किसी चूक से शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र कहा जाने लगा, पर वह अपनी कतिपय विशेषताओं की रक्षा करती हुई संस्कृतीकरण की उसी प्रक्रिया से गुजरती थी जिससे पूर्वी बोली हजारों साल पहले इस क्षेत्र में पहुंचने के बाद वैदिक में परिवर्तित हुई थी। इसी के कारण प्राकृत और पाली की आपस में जो भी भिन्नता हो, इनकी साहित्यक कृतियों को मात्र ध्वनि परिवर्तन से, बहुत आसानी से संस्कृत में रूपांतरित किया जा सकता है और प्राकृत के आचार्य ऐसा करते भी रहे हैं।

व्यापारियों ने समाज को अहिंसक बना कर चोरोे-लुटेरों से मुक्त ऐसा समाज बनाने के लिए, जिसमें व्यापारिक गतिविधियाँ निर्बाध चल सकें, बड़े पैमाने पर जैन मत अपनाया और उसके साथ प्राकृत को अपनी व्यावहारिक भाषा बनाया जिससे, जैन प्राकृत जो महाराष्ट्री प्राकृत से, तथा दोनों, ऊपर बताए गए कारण से शोरसेनी प्राकृत से मिलती थीं असाधारण प्रोत्साहन दिया गया और इसी को सुगम पाकर संस्कृत नाटककारों ने अशिक्षित लोगों की भाषा के रूप में संवादों में प्रयोग किया। ध्यान रहे कि जिस बोली में गौतम बुद्ध या महावीर अपने उपदेश देते रहे वह संस्कृत से निकली नहीं थी। सारस्वत क्षेत्र में पहुंचने के बाद उसका संस्कृतीकरण हुआ था। नमि साधु इसीलिए मागधी को आर्ष प्राकृत कहते थे और संस्कृत का विकास इस प्राकृत से मानते थे। उनका कथन इस सीमा तक सही था वैदिक और संस्कृत का विकास पूरब की बोलियों में आए परिवर्तन का परिणाम है।

Post – 2020-04-11

#शब्दवेध(6)
हिंडोलन से आन्दोलन तक

हम भाषा या समाज के सिरे से विचार करते हैं तो यह बात समझ में नहीं आती कि वैचारिक खलबली बहुधा उस भू-भाग में क्यों पैदा होती रही है, जिसमें सिमटे रह जाने पर वह यदि लुप्त न हुई तो सिकुड़ कर, समाज पर भार बन जाती है और सारस्वत क्षेत्र तक पहुँची तो आन्दोलन बन कर देश-देशान्तर में फैल जाती रही है। गंगा घाटी की महानगरी भी तीन लोक से न्यारी या दुनिया से कटी हुई है, सरस्वती घाटी के नगरों की पुरानी संज्ञा का पता नहीं चलता, परन्तु सरस्वती और इसके अनुपयोगी हो जाने के बाद सिंधु तटीय नगर एक विशाल क्षेत्र में साझी विरासत के बाद भी एस दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए आगे बढ़ने के प्रयत्न में दूसरों को मिटा देने को तैयार रहते हैं। गंगाघाटी का टकराव परस्पर विरोधी है, प्रतिस्पर्धी नहीं। विरोध का आधार दार्शनिक है जिसे हम प्रकृतिवाद और प्रगतिवाद के बीच द्वन्द्व के या सनातन विरोध के रूप में लक्ष्य करते हैं।

सरस्वती घाटी में जिस चरण पर हम पहली बार इसे लक्ष्य करते हैं, दार्शनिक दृष्टिकोण में अधिक परिवर्तन नहीं आता, परंतु यह विरोध की जगह समायोजन का रूप ले लेता है जिसमें समय-समय पर अपने आर्थिक अधिकारों का टकराव तो बना रहता है, परन्तु असहयोग नहीं दिखाई देता। यह चरण कई हजार साल बाद का है, परंतु इसका मुख्य कारण आर्थिक गतिविधियों के चरित्र में आया अंतर है, क्योंकि मध्य उत्तर गंगा घाटी में यह कई हजार साल बाद भी विक्षोभ, विरोध, और विरक्ति में परिणत हो जाता है। सामाजिक न्याय का आग्रह भी इसी में अधिक दिखाई देता है जो सरस्वती घाटी में सतह पर आता दिखाई नहीं देता।

ऋग्वेद में प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता के सभी क्षेत्रों में सैद्धांतिक ज्ञान और अमल असुरों के हाथ में रहता है, जो कृषि कर्म से परहेज करते हैं। वे सभी आविष्कार और उपक्रम जिन पर सरस्वती-सिंधु सभ्यता गर्व करती है उन लोगों के हाथ में है जिनको पहले राक्षस और फिर बाद में असुर के समावेशी नाम से जाना जाता है। लाभ में हिस्सेदारी को लेकर हिंसक टकराव यहां भी देखने में आता है, और नौवहन पर भी इनका ही अधिकार होने के कारण प्राग वैदिक चरण पर ही वैदिक स्वामी वर्ग से उत्पीड़ित एक जत्था दूर कहीं भी आश्रय तलाश करने के लिए रवाना होता है, और इस अभियान से आरंभ होती है विश्व की पहली नगर सभ्यता।

कहानी विचित्र है, परंतु इसका ध्यान आ गया तो इसे आपके साथ साझा करना जरूरी लगा। सुमेरिया में भी अपने वैचारिक आग्रहों के कारण, वे खेती नहीं कर सकते। मनुष्य द्वारा उपजाए गए, अनाज और फल के आदी हो जाने के बाद उन्हें वह उत्पाद चाहिए, परंतु कृषि-कर्म नहीं। इसके लिए स्थानीय आबादी को नियंत्रित करने का तरीका अपनी जादुई शक्ति का प्रचार करके समाज के पुरोधा बन कर, उन्हें मानसिक रूप में अपना दास बनाते हुए, यह दावा करते हुए कि इनका सीधा संपर्क देवताओं से है, अपने निवास के लिए उनके श्रम और अपनी दक्षता के बल पर ‘गगनचुंबी’ जिगुरात बनाते हुए राज करते रहे। इनकी जादुई शक्ति की धाक स्थानीय निवासियों पर इनके पहुंचने के साथ ही जम गई थी, जब उन्हें पता चला कि ये समुद्र में भी उसी तरह रह सकते हैं जैसे जमीन पर।

इस कहानी के विस्तार में नहीं जाएंगे, इतना ही संकेत पर्याप्त है कि यह ऋग्वेद में आए प्रतीकात्मक कथाओं में, विश्वरूपा के निपट भोगवादी आचार के कारण उसके वध, त्वष्टा से उसके संबंध, त्वष्टा द्वारा प्रतिहिंसा, बलि और वामन की कथा और वैदिक साहित्य में दोहराए गए इस प्रसंग से कि असुरों ने ही पहली बार सुदूर क्षेत्र में नगर बसाए, जो उनकी भाषा में इस लोक में तो था ही द्युलोक और अंतरिक्ष में भी था (असुराणां एषु लोकेषु पुर आसन् अयस्मय अस्मिंल्लोके रजतान्तरिक्षे हरिणी दिवि, ते देवा संस्तम्भं संस्तम्भं पराजयन्ता ह्यासं स्त एताः प्रतिपुरोऽमिन्वत,…3.8.1) आदि अनेक प्रतीक कथाओं में झलकता है।

रोचक बात यह कि यदि पुरातत्व का सहारा न लेकर केवल साहित्य के मर्म विश्लेषण से इतिहास लिखा जाता तो भी यह दावा किया जा सकता था कि भारत में नगर सभ्यता बहुत प्राचीन काल में थी परंतु इससे पहले ही कहीं अन्यत्र नगर बसाए जा चुके थे।

हम अपने मुख्य विषय से भटक गए। कहना केवल यह चाहते थे सरस्वती सभ्यता में असुरों की भूमिका, दार्शनिक कट्टरता और आर्थिक भागीदारी को लेकर, तनाव के बावजूद, विरोधी नहीं है, विज्ञान विरोधी नहीं है,, उत्पादन विरोधी नहीं है, जबकि गंगा घाटी में आज तक प्रधान समस्या मुख्यतः समाजिक कुसमायोजन की दिखाई देती है, परंतु इसका आर्थिक पक्ष दबा रह जाता है। इसका प्रधान कारण यह है कि कृषि आधारित होने के कारण इसमें ठहराव है, जमीन से जुड़ाव है और इसका एस कारण यह भी है कि उन्हीं असुरों की तकनीकी दक्षता को इसमें उचित प्रोत्साहन न मिल सका जो व्यापारिक कारणों से सारस्वत क्षेत्र में मिला। दूसरे देशों में जिस दौर में गाड़ी में, पहिए में, जोताई और खोदाई, कताई, जल प्रबंधन और भूमि प्रबंधन आदि में नए प्रयाेग और आविष्कार हुए भारत में ऐसा संभव न हुआ क्योंकि तकनीकी दक्षता रखने वालों की हिस्सेदारी उत्साहवर्धक न थी जो पहल और प्रयोग की जननी है। यहाँ तक कि अपने हिस्से के लिए उन्होंने कभी कोई आंदोलन नहीं किया। वह टकराव तक नहीं हुआ जो सारस्वत क्षेत्र में दिखाई देता है।

जो भी हो यहां विरोध और विक्षोभ का एक आधार पुराने विश्वास को लेकर था। पुराने ओझा जादू -टोने, और तंत्र मंत्र में सिद्धि पाने का दावा करते थे जिसकी कृषि कर्मी और वैदिक समाज कृत्या, मायाचार, जादू कह कर निंदा करता था। ऐसे लोगों को यातुधान कह कर उनसे परहेज करता था। ये हठसाधना, नर बलि, पशुबलि से विलक्षण कारनामों का विश्वास दिलाते हुए शैव और शाक्त परंपराओं के रूप में आदिम कालीन स्वच्छंदता के साथ, उत्पादक श्रम से मुक्त रह कर भी परजीवी के रूप में बने रहे। ब्राह्मणत्व से प्रतिस्पर्धा करते हुए ये अपनी प्रतिष्ठा के लिए जब तब हलचल मचाते रहे उसे भ्रमवश सामाजिक न्याय का आंदोलन मान लिया जाता है परंतु निकट से देखने पर इसकी पुष्टि नहीं होती। इन्हें आंदोलन कहने के स्थान पर हिंडोलन कहना अधिक उपयुक्त है।

मानवतावादी सरोकारों से जो आंदोलन आरंभ हुए उनके नैतिक औचित्य और आर्थिक उपादेयता के कारण ही इनका प्रसार सारस्वत क्षेत्र तक हुआ और यदि वे व्यापारिक पर्यावरण को अनुकूल बनाने में सहायक हुए तो उनके प्रसार के संगठित प्रयत्न हुए और इनको आर्थिक समर्थन वणिकों की ओर से मिला।

सारस्वत चरण पर राजस्थान का अधिकांश भाग उर्वर था। व्यापारिक गतिविधियों में राजस्थानियों की संलग्नता अधिक रही लगती है। सिंध और गुजरात खेती के पशुश्रम पर और आगे परिवहन के साधनों के रूप में उनके उपयोग के कारण पनपे पशु व्यापार के चलते प्रमुख व्यापारियों के रूप में आगे बढ़े। बाद में उस सभ्यता के बुरे दिन आए, कई शताब्दी तक प्राकृतिक विपर्यय के कारण राजस्थान रजस्थान या रेगिस्तान में बदल गया फिर भी आज तक व्यापारिक और औद्योगिक गतिविधियों में मारवाड़ी, सिंधी और गुजराती ही बने रहे। सारस्वत क्षेत्र में पहुँचने के बाद कोई दर्शन और भाषा क्यों अखिल भारतीय स्वीकार्यता और प्रसार पा जाती है इसका कारण, हमारी समझ से उसका उस तंत्र से जुड़ना है जो अनेक इतर रहस्यमय कारणों से यदि पिछले आठ हजार साल से नहीं तो भी पाँच हजार साल से आज तक सक्रिय है।##

Post – 2020-04-11

बहुत कम लोग हैं जो अपनी मेधा से काम लेते हैं, शेष जिसे मानते हैं उसके अनुकूल होने पर आपको बुद्धिमान समझ लेते हैं, प्रतिकूल पाने पर मूर्ख या दुष्ट। सोचने वाला व्यक्ति निपट अकेला होता है, खतरनाक माना जाता है और इसलिए सबसे असुरक्षित भी। उसके साथ केवल उसका सच होता है और उसके होने के कारण अकेला हो कर भी सबसे ताकतवर भी वही होता है। तानाशाह केवल उससे डरता है और रास्ते से उसे हटाना चाहता है, पर उसे मिटा कर भी हटा नहीं पाता।

Post – 2020-04-10

#शब्दवेध(5)
क्व अभ्रस्पृशं शास्त्रं क्व तृणभंगुरा मतिः।
चूर्णीभूत्वा प्रवातोत्था अतिलंघयितुमुत्सुका।।

मैं अपने को भारत का एकमात्र मार्क्सवादी सोच वाला व्यक्ति इसलिए मानता हूं, मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले मेरे समय के दूसरे सभी विद्वान और उनकी सीख और समझ में पले बढ़े बुद्धिजीवी औपनिवेशिक कूट चक्र से बाहर न निकल पाने के कारण अपने विवेचन में भाववादी रहे हैं और आज भी हैं। वे विदेशी भाषा को वरीयता देते हैं, विदेशों के विचार से निर्देशित होते हैं, विदेशी अध्येताओं पर अपने समाज और इतिहास के गहन अध्ययन का भार सौंप कर, उनसे निर्देशित होते हैं, परंतु स्वयं राजनीति को ही अपनी चारदीवारी मानते हैं और उसको भी व्यावहारिक कदाचार के साथ स्वीकार करते हुए अपना सारा समय उसी पर बर्वाद करते हैं।

वे नस्लवाद का मौखिक विरोध करते हैं और आर्यों की विशेष गुण संपन्न नस्ल की बात करते हुए अपने इतिहास की व्याख्या करते हैं। वे अपने समाज को, अपने यथार्थ को, अपने दिमाग में भरे हुए खयालों से समझना चाहते हैं और उनकी दशा उस मनोविक्षिप्त जैसी होती है, जिसका संबंध अपने यथार्थ से कट गया हो, और वह अपने मनोभाव के अनुसार बाहरी जगत का अनुमान करते हुए उससे टकराव की स्थिति में बना रहता है – उस पर हंसता है, पत्थर फेंकता है, और उस पर विजय पाने की कोशिश में समाज के लिए संकट तो पैदा ही करता है, अपनी स्थिति को भी अधिकाधिक दयनीय बनाता चला जाता है। दुनिया को बदलने के लिए खुद को होश में रखना जरूरी है और उसमें रहने के लिए अपनी आंखों पर, अपने अनुभवों पर, अपनी समझ पर भरोसा करना जरूरी है। उधार की समझ अपनी नहीं होती, न उसके अन्तर्विरोधों पर हमारा ध्यान जा पाता है।

दोष अकेले उनका नहीं है , हम विद्वानों को उनके ज्ञानावेश के कारण खयालों की दुनिया से खयालों की दुनिया तैयार करने की असाध्य बीमारी का शिकार पाते हैं। यदि ऐसा न होता तो आज से 3000 साल पहले से आरंभ होने वाले भाषा चिंतन से आधुनिक जगत को आश्चर्यचकित करने वाले भारतीय वैयाकरणों को जिन्होंने भाषा का अध्ययन ऋग्वेद की ऋचाओ को समझने के लिए आरंभ किया था, इस बात का ध्यान तो होता कि किसी सृष्टि से पहले जब कुछ नहीं था, यहां तक कि जिस परमेश्वर की हम कल्पना करते हैं, वह तक निराकार था (नासदीय सूक्त) फिर चारों वेद कैसे हो सकते थे? यज्ञ कैसे हो सकता था? वह भाषा जिसमें वेद रचे गए थे, एक जैसी नहीं है? एक साथ उसी भाषा के इतने रूप कैसे हो सकते थे? उससे सभी भाषाओं की उत्पत्ति कैसे हो सकती थी?

इस संशय की स्थिति में उन्हें पुरुष सूक्त की नए सिरे से व्याख्या करनी चाहिए थी । मोटी समझ से काम लेने पर यह बात समझ में आ जाती कि समस्या अधिक जटिल है और किसी दूसरे चरण से संबंधित है। और तब उनकी समझ में यह भी आ जाता कि यह ब्रह्माण्ड की सृष्टि का नहीं, कृत्रिम अर्थात् मानव रचित उस चरण का इतिहास है जिसे कृत्रिम उत्पादन या कृषि क्रांति की संज्ञा दी जाती है।

इसकी स्थापना के बाद या आर्थिक निश्चिंतता और स्ख्यावृद्धि के बाद समाज ने स्वयं, अपने भीतर कार्य विभाजन किया था, और वर्ण व्यवस्था की स्थापना हुई।

पुरुष, प्रजापति का रूप है जिसकी अनेक परिकल्पनाओं में कुछ हमारे लिए खासे रोचक हैं – ‘यज्ञ ही प्रजापति है’, (एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः, शतपथ 4.3.4.3); अन्न ही प्रजापति है’ (अन्नं वा अयं प्रजापतिः, शतपथ, 7.1.2.4), जिसकी व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय उपनिषद में आरंभ में ही‘अन्न को ही ब्रह्म है’, बताया गया है (अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते। याः काश्च पृथिवीं श्रिताः। अथो अन्नेनैव जीवन्ति। अथैनदपियन्त्यन्ततः।अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्‌। तस्मात्‌ सर्वौषधमुच्यते।सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति। येऽन्नं ब्रह्मोपासते। अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्‌। तस्मात्‌ सर्वौषधमुच्यते। अन्नाद्‌ भूतानि जायन्ते। जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेऽत्ति च भूतानि। तस्मादन्नं तदुच्यत इति।तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात्‌।)

हम इस वाक्य को टेक की तरह दुहराते रहे हैं कि यज्ञ कृषि कर्म है, और इस बात को प्राचीन कृतियों में तरह तरह से दुहराया गया है। जिस तर्क से खेती को उत्तम साधन बताया जाता रहा है वह यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है (यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म) का अनुवाद है। यज्ञ का कर्मकांड और प्रतीक विधान इसी की पुष्टि करता है। खेती अनेकानेक विशेषज्ञताओं से जुड़ा हुआ उपक्रम है – ऋग्वेद के अनुसार इसके तार सभी से जुड़े हुए है. – विश्तज्ञ तन्तुभिः ततं, या गीता के शब्दों में, यज्ञः कर्म समुद्भवः । इसके सुचारु संचालन के लिए योग्यता के अनुसार कार्य विभाजन आवश्यक था, और इसलिए कृषक समाज ने अपने भीतर ही श्रम विभाजन और कार्य विभाजन आरंभ किया तथा उस प्राचीन व्यवस्था का अन्त किया यही पुराने तरीके या बलिपशु का वध था – देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम्।

भाववादी आग्रहों के कारण बार-बार अनेक रूपों में दुहराई और समझाई गई इस कहानी को समझने में हमारे विद्वान, वे विद्वान भी जो वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को लेकर चिंतित थे, इतने लंबे विफल रहे, फिर भाषा की समझ के विषय में उनके संस्कृत पर अनन्य अधिकार के बाद भी, हम उनके विवेचन पर भरोसा नहीं कर सकते। उनकी व्याख्या संस्कृत भाषा को समझने की दृष्टि से अचूक है, पर भाषाओं की उत्पत्ति और स्वयं संस्कृत का उद्भव और विकास समझने में बाधक।

हम समाज रचना, संस्कृति और भाषा की समस्या को अर्थ-तंत्र के साथ रखकर समझना चाहें तो हमारा काम अधिक आसान हो जाता है। भाषा कोई भी हो (और यहाँ हम बोलियों के लिए भी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं) ऐसी नहीं है कि उसमें अनगिनत भाषाओं का घालमेल न हुआ हो।

यह आहार की तलाश में किसी भाषा-भाषी क्षेत्र में समय समय पर आकर बसने वाले, या उसके चिरकालिक संपर्क में रहने वाले दूसरी भाषाएँ बोलने वालों के प्रभाव का परिणाम है। इस तथ्य की अनदेखी करने के कारण नस्लवादी सोच वाले विद्वान दावा करते रहे हैं कि भाषाओं में परिवर्तन और उनसे निकटता रखने वाली परवर्ती भाषाओं का ‘जन्म’ भाषा के अपने आंतरिक नियमों से संभव हुआ है। वे न रक्त में कोई मिलावट सहन कर सकते थे, न अपनी भाषा में। पिछड़ी अवस्था में रहने वाले या रहने को विवश किए गए लोगों से उन्होंने कुछ ग्रहण नहीं किया, उन्हें केवल दिया है। यह भावना एक शुद्ध भाषा से बोलियों और उप बोलियों के उल्टे सिद्धांत का जनक है और यह सिद्धांत सर्वत्र दिखाई देता है। आरंभ समाज व्यवस्था से ही हो जाता है – ‘संसार का सब कुछ बाह्मण का है और उसकी कृपा से ही दूसरे सभी लोगों का पालन होता है – सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किं चिज्जगतीगतम् । श्रैष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति । स्वं एव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च । आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुञ्जते हि इतरे जनाः)। फिर सभी बोलियों में संस्कृत और उसके क्षरण से उनका जन्म तो होना ही था।

उनके असाधारण ज्ञान के बावजूद, भाववादी सोच से मुक्त न हो पाने के कारण, न केवल प्राचीन शास्त्रकारों का समस्त ज्ञान उटपटांग मान्यताओं से भरा हुआ है, अपितु पाश्चात्य विद्वानों की स्थापनाएं, जिनके आतंक में हम अधमरे पड़े रहते हैं, इतनी ही प्रचंड मूर्खताओं से भरी हुई हैं। भाववादी सोच के पीछे निहित स्वार्थ काम करते हैं , जो अन्यथा प्रबुद्ध और तार्किक दृष्टिकोण अपनाने वाले विद्वानों की आंख पर भी पर्दा डाल देते हैं। ब्राह्मणों का स्वार्थ जातीय वर्चस्व की रक्षा करना था पश्चिमी विद्वानों का स्वार्थ औपनिवेशिक हित की रक्षा और गोरी जाति और ईसाई मत के वर्चस्व को कुछ और हवा देना।

जो भी हो भाषा में ऐतिहासिक क्रम में होने वाले परिवर्तन भी आंतरिक ध्वनि नियम के कारण नहीं मुख्यतः सामाजिक मेलजोल या अपनाने और विलय के कारण होते हैं, यद्यपि ऐतिहासिक कारणों से, समीपवर्ती ध्वनि के प्रभाव से, आलस्य और प्रमाद से, व्यक्तियों के उच्चारण तंत्र की सीमाओं से भी मामूली परिवर्तन संभव हैं, परंतु यदि कोई भाषा के मूल से अलग होकर किसी दूसरे संपर्क में आए बिना कहीं व्यवहार में आए तो उसमें आने वाले परिवर्तनों को लक्ष्य नहीं किया जा सकता। सामाजिक संपर्क के कारण एक एक शब्द की रचना प्रभावित हो सकती है, जैसा हमने एक बार तेलुगू के ‘ऑकटि’ के उदाहरण से से स्पष्ट किया था जिसमें हिंदी का एक तमिल ऑन्र के प्रभाव में ऑक हो जाता है और उसमें उस बोली का आलंकारिक प्रत्यय ‘टि’ जाता है जो बंगाली में (-टी/-टा) बहुत प्रचलित है, पर भोजपुरी में महाप्राणता के अनुराग में (-ठी/-ठो) हो जाता है और इसका वेकल्पिक प्रयोग ‘-गो’ हो जाता है जो मराठी के विस्मयसूचक ‘आइ गो’ (माई रे) में दिखाई देता है।

ये रे, गो, टा, टि,ठो, या, वो, ई, नी, ऊ, ए, [भाई>भइया/ भाऊ/भावे/भायानी] भाषा पर विचार करते समय हमारी नजर से ओझल हो जाते हैं, जैसे राह चलते समय पहले गुजरे लोगोे के पाँवों के निशान, जिनके गुजरने से यह पथ बना है। बोली ही नहीं अनेक शब्दों की बनावट में भी अनेक भाषाभाषियों की उपस्थिति देखी जा सकती है। इस तरह भाषा में ध्वनि परिवर्तन उन बोलियों की ध्वनि सीमा और विशिष्टता के प्रभाव से होते हैं जिनका आर्थिक कारणों से पारस्परिक समागम होता है। यह प्रभाव बृहद पैमाने पर भी होता है, जैसा भारोपीय के प्रसार में देखने में आता है और क्षुद्र स्तर पर भी जिसका नमूना ‘ऑकटि’ है। इस परिवर्तन में कुछ शताब्दियों से लेकर हजारों साल का समय लगता है और फिर भी कमियाँ बनी रह जाती है। राजस्थानी राणा को राणाप्रताप की लोकप्रियता के कारण भोजपुरी में आज लगभग अपना लिया है पर राणी नहीं चल सकता। तमिलभाषी को स्वामी का उच्चारण >सामी>चामी करना ही है।#

Post – 2020-04-09

डोनाल्ड ट्रंप

क्षणे रुष्टं क्षणे तुष्टं रुष्टं तुष्टं क्षणे क्षणे।

Post – 2020-04-08

#शब्दवेध(4)
बोलियों में बोली- भोजपुरी

हिंदी से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद भी, मैं हिंदी नहीं बोल पाता था । हिंदी मेरे लिखने की भाषा थी, बोलने की भाषा भोजपुरी, भोजपुरी में भी मल्लिका, यद्यपि मैं स्वयं इस नाम से परिचित नहीं था। इसका ज्ञान मुझे बहुत बाद में भोजपुरी के अधिकारी विद्वान, जगन्नाथ मणि त्रिपाठी के माध्यम से हुआ कि भोजपुरी अकेली ऐसी बोली है जिसकी तीन उपबोलियां है – मल्लिका, काशिका और बज्जिका।

मैं भोजपुरी इसलिए बोलता था कि भोजपुरी के प्रवाह और माधुर्य के सामने हिंदी एक नकली, भीतर से खोखली और व्यंजना में कमजोर, मुहावरों लोकोक्तियां के व्यवहार के मामले में कृपण और इसलिए लड़ खड़ाती हुई भाषा प्रतीत होती थी। भोजपुरी के क्षेत्र विस्तार के विषय में मेरी जानकारी कम थी पर तो भी चाहता था कि भोजपुरी का अध्ययन विश्वविद्यालय स्तर तक होना चाहिए, परंतु यह नहीं सोचा था कि इसका मानक रूप कौन सा होना चाहिए?

भोजपुरी क्षेत्र से बाहर निकलने पर बोली के प्रति यह आसक्ति तो कम होनी ही थी, धीरे धीरे भोजपुरी के संदर्भ में दूसरी समस्याएं, जिनके विषय में क्षीण असंतोष पहले भी था, प्रधान होती गई, और उसकी वे विशेषताएं जिन पर मुझे गर्व था, केवल भोजपुरी तक सीमित नहीं थीं, वे सभी बोलियों की विशेषताएँ हैं, और भाषा के पिछड़ेपन का द्योतक हैं। उदाहरण के लिए, पिछड़ी अवस्थाओं में विशिष्ट वस्तुओं और क्रियाओं के लिए अलग शब्द थे परंतु वे जिस वर्ग से संबंधित थीं उनके लिए कोई सामान्य (जातिवाचक) शब्द नहीं हुआ करता था, यह विद्वानों का मानना है और मोटे तौर पर ही सही है, कारण भाषा की उन्नत अवस्था में क्रिया, गुण और संज्ञा में अंतर करने के लिए हमें सूक्ष्म अर्थभेदक शब्दों की आवश्यकता होती है, यदि उनके उपयुक्त व्यंजना नहीं होती तो बनावटी शब्द तैयार करने होते हैं, जो भाषा की मूल प्रकृति से मेल नहीं खाते। जातिवाचक शब्दों का नितांत प्राथमिक अवस्था में अभाव पिछड़ी बोलियों की कमी है तो प्रयत्न के बाद भी अर्थभेदक पदों का अभाव उन्नत भाषाओं की कमी। उदाहरण के लिए भोजपुरी के मेल्हल, मकलाइल, भचकल, भहराइल, कोड़राइल, हुमचल, अगराइल, लइकोर के समान व्यजना के शब्द हिंदी में नहीं मिलेंगे, इनमें से अनेक को हिंदी शब्दसंपदा का अंग बनाया गया है, व्यंजकता के ह्रास के साथ।

जो भी हो मेरा ध्यान बाद में भोजपुरी की कमियों की ओर अधिक था और सबसे बड़ी बात है तीन उपबोलियों वाली एक विशाल क्षेत्र में फैली होने के बाद भी इसमें साहित्यिक अपेक्षाओं को पूरी करने वाली कोई रचना हुई नहीं, जबकि छोटी भाषाओं में ऐसे रचनाकार हुए हैं जिनकी कृतियों को अपनाकर हिंदी गौरवान्वित अनुभव करती है। यह तब और आश्चर्यजनक लगता है जब हम पाते हैं कि ज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे लंबी आयु वाला केंद्र काशी इसी के क्षेत्र में पड़ता है। देश देशान्तर मे काशी वासी विद्वान दैनिक व्यवहार में भोजपुरी बोलते थे।

इसके बोलने वालों की संख्या और क्षेत्र विस्तार को देखते हुए इस बात पर भी हैरानी होती है सूफी कवियों में भी किसी ने भोजपुरी को माध्यम बनाकर किसी कृति का सृजन नहीं किया।

पहले इसका कारण समझ में नहीं आता था। यह समझने में समय लगा कि ठेठ भोजपुरी में अपना व्याख्यान देने वाले लालू प्रसाद यादव श्रोताओं को मसखरे जैसे क्यों लगते हैं? कारण यह है अन्य बोलियों की अपेक्षा
भोजपुरी बहुत पिछड़ी हुई है।

जिस मगध ने विशाल साम्राज्य की मौर्य काल और गुप्त काल में महान साम्राज्यों का स्थापना की, जिसे शताब्दियों तक प्रशासनिक केन्द्र काव गौरव प्राप्त रहा उसकी बोली इतनी दयनीय! इस बात पर पुनः विस्मय में होता है कि जिस क्षेत्र में गौतम बुद्ध और महावीर जैसे बड़े आंदोलनकारी हुए और उन्होंने अपनी बोलियों को ही अपने प्रचार का माध्यम बनाया वह बोली इतनी अविकसित कैसे रह गई? एक ही क्षेत्र से एक ही समय में महावीर की भाषा जैन प्राकृत की जननी कैसे बनी और गौतम बुद्ध की भाषा पाली में कैसे विकसित हुई। दोनों में इतना अंतर कैसे आया।

इस विषय में सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय का एक मत बहुत रोचक है। वह मानते हैं पाली और प्राकृत के रूप में हम जिन भाषाओं से परिचित हैं उनका मूल रूप क्या था इसे नहीं जाना जा सकता। उनके अनुसार ये दोनों भाषाएं पहली बार जब कौरवी क्षेत्र में, या कहें, शूरसेनी प्राकृत क्षेत्र में पहुंचती हैं तो उनका वह साहित्यिक रूप निश्चित होता है जिससे हम परिचित हैं। यहां पहुंचने के बाद इन भाषाओं का अखिल भारतीय विस्तार हो जाता है, इससे पहले यह अपने क्षेत्र तक सीमित रहती हैं।

यदि हम गौर करें हिंदी के जन्म के साथ भी ऐसी बात देखने में आती है। भले गिलक्रिस्ट ने हिंदी के व्यवहारिक रूप का निर्धारण करने के लिए लल्लू जी लाल और सदल मिश्र को , शौरसेनी क्षेत्र से आमंत्रित किया हो पर वह चल नहीं पाया। चला वह रूप जिसे रानी केतकी की कहानी में इंशा अल्लाह खान ने पेश किया था, परंतु हिंदी के निर्माण में कोरवी क्षेत्र के किसी व्यक्ति का हाथ नहीं, इसमें पहल भोजपुरी क्षेत्र ने की थी और हिंदी के केंद्र कोलकाता, पटना, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ होते हुए अंत में कौरवी क्षेत्र में पहुंचते हैं। सुनीति बाबू को आर्य भाषा हिंदी की इस विकास यात्रा के सन्दर्भ में ही पाली और प्राकृत की याद आई थी और इस तर्क से हिंदी के संदर्भ में उनका विचार था कि जो भाषा कौरवी क्षेत्र में पहुंच जाती है, उसी का अखिल भारतीय प्रसार होता है और इस तर्क से उन्होंने हिंदी को भारत की स्वाभाविक राष्ट्रभाषा स्वीकार किया था, आपत्ति उन्हें केवल लिपि को लेकर थी।

भारोपीय अर्थात् संस्कृत के विषय में भी उनको एक उलझन का सामना करना पड़ा था कि आदि भारोपीय की कल्पित ध्वनियों में घोष महाप्राण ध्वनियाँ केवल पूर्वी हिंदी में क्यों पाई जाती है। यदि आर्यों का प्रवेश पश्चिम से हुआ तो पश्चिम की बोलियों में इनका अभाव क्यों देखने में आता है? जिस तर्क से पाली प्राकृत और हिंदी के विषय में उद्भव क्षेत्र और मानकीकरण के क्षेत्र का निर्धारण उनके द्वारा किया गया था, उसी को पीछे ले जाकर संस्कृत अर्थात भारोपीय पर घटित करते तो भारोपीय और संस्कृत के विकास के पीछे भोजपुरी की भूमिका साफ दिखाई देती। परंतु आर्य आक्रमण की मान्यता पर उनके जीवन भर का काम और श्रेय निर्भर करता था, इसलिए उनकी आंखों पर पर्दा पड़ गया अथवा वह इसे कहने का साहस नहीं जुटा सके।

यह साहस पहली बार डॉ रामविलास शर्मा ने जुटाया और मैं उनके प्रमाण के बाद ही स्वयं इसका दावा करने का साहस जुटा सका, जबकि दूसरे कारणों से मैं इसका संकेत पहले भी देता आया था, परंतु दावे के साथ नहीं। संकोच यह था कि भोजपुरी भाषी होने के कारण इसे पूर्वाग्रह जन्य माना जा सकता है।

यदि कोई समझना चाहे तो समझ सकता है कि संस्कृति और मनोरचना के भी गुण सूत्र होते हैं जो हजारों साल तक सक्रिय रहते हैं। भोजपुरी में कुछ विशेष नहीं था, परंतु यह उस क्षेत्र की और उन लोगों की भाषा थी जिन्होंने स्थाई कृषि का आरंभ किया था। इस गौरव के कारण इसमें आत्मरति इतनी प्रबल रही कि इसने अपने पुराने भदेस प्रयोगों को त्यागने की जरूरत नहीं समझी। अपने व्याकरण को भी यथासंभव अपरिवर्तित रखा जबकि इस बीच यह कई बोलियों के संपर्क में आई और अंत तक इसमें दूसरे परिवारों में गिनी जाने वाली बोलियों के अँतरे बने रहे। स्तरीय साहित्य सर्जना के मार्ग में भी यह पिछड़ापन प्रधान कारण बना रहा।

Post – 2020-04-07

#शब्दवेध(3)
#भाषा_और_इतिहास

भाषा के पाँव नहीं होते, वह कहीं स्वयं जा नहीं सकती। जब आर्यों की जाति के भारत पर हमले की, या आर्य भाषाभाषियों के किसी रूप में भारत में प्रवेश की मान्यता का खंडन सर्वमान्य हो गया तो कुछ लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि लोग तो नहीं आए पर भाषा आई थी।

बोलने वालों के हिले डुले बिना भाषा कैसे आ गई? हुआ यह होगा कि भाषा ईरान तक फैल गई होगी और पूर्वी ईरान के पड़ोस के लोगों के सम्पर्क में आने वाले भारतीयों में पहुँची होगी और फिर भारत में फैल गई होगी। यह विचत्र सूझ रोमिला जी की है। आधार ? आधार यह कि चलो बाहर से किसी बड़े जत्थे के किसी रूप में आने के प्रमाण नहीं, पर भाषा के भारत से यूरोप तक व्याप्त होने के तो प्रमाण हैं। रहा सवाल आने का तो इसका एक ही तरीका उनकी समझ में आया जो ऊपर है, जाने की संभावना कल्पनातीत थी।

भाषा के विषय में अगली सचाई यह कि यह संक्रामक बीमारी भी नहीं है कि अपने संपर्क में आने वालों को पकड़ ले। यदि यह संभव होता तो हजारों साल से पड़ोस की बोलियों की सीमा रेखाएँ ही बदल गई होतीं। ग्रीक और लातिन ने अपनी दूरियाँ मिटा ली होतीं। पर इस ओर उनका ध्यान नहीं गया, क्योंकि वह मानती हैं कि भाषा विशेषज्ञता के क्षेत्र में आती है और उस पर विशेषज्ञों ने अभूतपूर्व काम किया है। उनकी मान्यता का खंडन करने के लिए उतनी ही गहन विशेषज्ञता होनी चाहिए। [[मेरी पुस्तक (दि वेदिक हड़प्पन्स) के दो माह के अध्ययन के बाद उन्हें एक ही कमी नजर आई थी कि मैंने भाषाविज्ञान जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्र में दखल क्यों दिया। विरोधियों की प्रशंसा की भाषा यही होती है। इसका फलितार्थ यह कि अपनी जानकारी के क्षेत्र में उन्हें कोई कमी न मिली। ठीक ऐसी ही संस्तुति आर एस शर्मा से मिली थी। हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, (1987, प्रथम खंड) पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा था, ‘और सब तो ठीक है पर तुमने मोहनजोदड़ो लिखा है, आज कल मान्यता यह है कि स्थान नाम का जो उच्चारण स्थानीय लोग करते हों वही प्रयोग में आना चाहिए और इसलिए इसे मोहेंजोदड़ो होना चाहिए। अर्थात् प्राचीन इतिहास के ‘विश्रुत’ जिन विद्वानों की मान्यताओं का मैंने खंडन किया था उनको तलाशे भी दूसरी कोई कमी न मिल सकी। मैंने शर्मा जी आश्वासन दिया था कि अगले संस्करण में यह भूल सुधार दी जाएगी, क्योंकि उनके सम्मुख यह याद दिलाने की धृष्टता नहीं कर सकता था कि जिस दिल्ली में हम बात कर रहे हैं उसे ही दिल्ली, देहली और देल्ही लिखा जाता है। नाम का लक्ष्य नामधेय का अभिज्ञान कराना होता है और यदि यह प्रयोजन नाम ही नहीं उपनाम से भी सिद्ध हो जाता है तो वह सही है अन्यथा शुद्धता के चक्कर में पड़े तो कल को कोई इससे भी शुद्ध उच्चारण के साथ उपस्थित हो कर आपके सुझाव में भी सुधार कर सकता है। ]]

भाषा में जो भी परिवर्तन होते हैं वे सामाजिक संरचना में परिवर्तनों के परिणाम होते हैं। मनुष्य अपनी भाषा का प्रसार करने के लिए कहीं नहीं जाता। वह भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है। सामाजिक संचलन आर्थिक गतिविधियों के परिणाम हैं। इस तरह भाषा-शास्त्र का समाज-शास्त्र होता है और समाजशास्त्र का अर्थ-शास्त्र। भाषावैज्ञानिक अध्ययन का यह एकमात्र वैज्ञानिक आधार है और जो अध्येता किसी भी कारण से इसका ज्ञान नहीं रखते या ज्ञान होते हुए भी इसका ध्यान नहीं रखते, वे ही आक्रमण और घुसपैठ करा कर अपनी मनमानी करने को बाध्य होते हैं। सच यह है कि वे इस बात का भी ध्यान नहीं रखते कि युद्ध और आक्रमण का भी आर्थिक आधार होता है। वे इसे न समझने के कारण कुछ कबीलों को प्रकृति से ही युद्धोन्मादी, क्रूर और रक्त-पिपासु बना देते हैं। इसी तरह यूरोपीय विद्वानों ने तैयार की थी रक्तपिपासु, दुर्दांत आर्यों की जाति जिसकी क्रूरता की कहानियों के पीछे वे अपनी क्रूरता को इंसानियत की पराकाष्ठा सिद्ध कर सकें। सचाई इससे उलट यह है कि युद्ध, रक्तपिपासा और क्रूरता का भी आर्थिक और सामाजिक आधार होता है जो प्रकृति की कृपणता जन्य दरिद्रता में अपने को जीवित रखने की विवशता से भी तैयार हो सकता है, और सब से सब कुछ छीन कर अपने पास रखने के लोभ से भी पैदा हो सकता है।

कोलिन रेनफ्रू ने (लैंग्वेज ऐंड आर्कियालॉजी,1987) में ही पहले की सभी मान्यताओं को खारिज करके उस क्षेत्र को जिसे भारत में कृषि और स्थायी आवास के स्थलों की पहचान से पहले कृषि का उद्भव क्षेत्र माना जाता था, वहाँ से बड़े पैमाने पर जन संचलन के अभाव में भी कृषि विद्या के प्रसार के साथ( हम कहें कि आर्थिक सक्रियता के चलते) भाषा के प्रसार की बात की थी। ये ऊहापोह हड़प्पा सभ्यता के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलने, मैकाय (फर्दर एक्सकैवेशन्स ऐट मोहेंजाड़ो, खंड 2 )में आर्य भाषा के समूचे प्रसार क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता के सांस्कृतिक उपादानों के प्रसार की पुष्टि करने के बाद में हो रहे थे। मैलोरी ने भी (1989, इन सर्च ऑफ इंडो-यूरोपयन : लैंग्वेज, आर्किऑलोजी ऐंड मिथ) में रेनफ्रू का उपहास करने और यह प्रतिपादित करने के बाद भी कि लघु एशिया पर्यंत की भाषा भारतीय आर्यभाषा थी, सीधे यह स्वीकार नहीं किया कि भाषा का प्रसार यदि आर्थिक गतिविधियों के चलते हुआ था तो यह तथाकथित हड़प्पा सभ्यता की गतिविधियों के कारण और भारतीय भूभाग से हुआ था।

यहाँ इस इतिहास को याद करने का कारण यह कि कृषि विद्या भी आबादी बढ़ने के साथ नई कृषि-भूमि की तलाश करते हुए किसी भूभाग में फैलने और बसने वालों के साथ फैलती है और उसी के साथ भाषा फैलती है और इसी प्रक्रिया से मध्य उत्तरी भोजपुरी क्षेत्र के पहाडी भाग में पहली बार स्थायी कृषि और आवास में सफल किसानों ने नीचे उतर कर क्रमशः पूरी गंगाघाटी को आबाद किया था और इसी तरह आगे वढ़ते हुए नए कार्यक्षेत्र ( कुरुक्षेत्र) और धर्मक्षेत्र (कृषिकर्म और उसके लिए भूमि का समतल, निष्कंटक बनाना ही पहले का यज्ञ और धर्म था – यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्) अर्थात् आपया, दृषद्वती और सरस्वती का विस्तृत क्षेत्र पा कर इसे सर्वोपरि क्षेत्र मानते हुए अपना अधिकार जमाया। इसी की याद गीता के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे में बची रह गई है।

यह यात्रा बहुत मंद गति से, कई हजार साल के दौरान, अनेक बोली क्षेत्रों से गुजरते हुए, स्थानीय जनों में नई सोच रखने वाली आबादी को खेतिहर बनाते और अपनी समाज रचना में आत्मसात करते हुए और अपनी व्यावहारिक भाषा को नए रुप में ढालते हुए, उनकी विशिष्ट ध्वनियों और शब्दभंडार को ग्रहण करते हुए संपन्न हुई थी, परन्तु इसे सबसे लंबी अवधि तक कौरवी क्षेत्र में पूरी सक्रियता दिखाने और ग्राम्य चरण से नागर चरण तक का विकास करने का अवसर मिला, इसलिए इसका पूर्ण संस्कार यहाँ हुआ और वैदिक से लेकर संस्कृत तक के मानक रूप यहीं तय किए गए। इसी के वैदिक चरण की भाषा का व्यवहार देसी और विदेशी व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े लोग संपर्क भाषा के रूप में करते थे पर यह ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा से उतनी ही भिन्न थी जितनी बोलचाल की भाषाएँ साहित्यिक भाषाओं से होती हैं।