Post – 2016-02-05

हमने अपने को परिन्‍दों की जबॉं से जाना

’हॉं अब बताओ ऊपरी छिल्के के नीचे की वह सचाई।‘’
’’सबसे पहले मैं इस प्रचलित भ्रम को दूर कर दूं कि हिंदी के प्रसार में हिन्दीं सिनेमा का, हिन्दी क्षेत्र के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की भूमिका प्रधान थी.”
“यह तो सर्वमान्य तथ्य है यार, इसे कैसे नकार सकते हो? ”
” नकार नहीं रहा हूँ, उस अतिमूल्यन का प्रतिवाद कर रहा हूँ जो सामान्य ज्ञान का हिस्सा बन गया है। उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु साथ ही इनके ऋणात्मक पहलू पर भी ध्यान देना होगा, भावुकता के कारण जिसकी अनदेखी की जाती रही है और इतिहास की उस वक्र रेखीय चाल को समझने में भूल की जाती रही। तुमने एक बार मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा था न ‘चलई जोंक जिमि वक्र गति’, इतिहास की भी चाल ऎसी ही है यार ! हम समझते है आगे बढ़ रहा है, बढ़ता भी है पर साथ ही बल खाकर नीचे भी चला जाता है।”
‘’पहली बात तो यह कि इस प्रसार का हिन्दी को लाभ नहीं हुआ, उल्टे नुकसान हुआ। दूसरी बात यह कि हिन्दी सिनेमा जैसी कोई चीज तब थी ही नहीं। इसे उर्दू सिनेमा बनाया गया और उसी को हिन्दी सिनेमा कहा गया और उर्दू के लेखकों को इसका मलाल रहा कि हम उर्दू सिनेमा बना रहे हैं और लोग इसे हिन्दी सिनमा कह रहे हैं।‘’
”तुम्हे उलटबॉंसियॉं इतनी पसन्द हैं कि कोई बात सीधी कह ही नहीं पाते। उर्दू सिनेमा बनाया गया और हिन्दी सिनेमा कहा गया। कोई तुक है इसमे1”
‘’समझ नहीं पाओगे, परन्तु तथ्य के रूप में इसे दर्ज कर लो कि जिन्हें तुम प्रगतिशील लेखन कहते हो और उर्दू के जिन कवियों को तुम प्रगतिशील मानते हो वे अपनी सांप्रदायिक चिन्ता से इतने ग्रस्त थे कि जब उनको लगा कि स्वतन्त्रता को रोका नहीं जा सकता, स्वतन्त्र भारत की भाषा हिन्दी ही होगी, उर्दू का भविष्य क्या होगा, इस चिन्ता से कातर, किसी रहस्यमय तरीके से उर्दू की उत्कृष्ट प्रतिभाओं ने निश्चय किया कि हम नए और सबसे प्रतापी संचार माध्यम सिनेमा का उपयोग करके उर्दू को बचाऍंगे। इसे जन जन तक पहुँचाएंगे। उनकी सर्वोत्कृष्ट न भी कहें तो उत्कृष्ट् प्रतिभाओं ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उर्दू को भारतीय जनभाषा बनाने के लिए उन्‍होंने यह आखिरी प्रयत्न किया।‘’
‘’यह राज की बात सिर्फ तुम्हें मालूम है या किसी और को। यह बताओ तुम किस चक्की के आटे की रोटी खाते हो। इतने उम्दा खयाल तो आरएसएस की चक्की के आटे से ही पैदा होते है।‘’
”मैं यह नहीं कहूँगा कि तुम जैसे नासमझ बिना पिसे और पकाए, भूसा से ले कर अनाज तक खा जाने वालों में ही पैदा होते हैं, क्योंकि मैं दोस्ती की कद्र करता हूँ। तुम्हारे सन्तोष के लिए बता दूँ कि मैं भी तुम्हारी ही तरह नादान था। भला हो कर्रतुल ऐन हैदर का जिन्हों ने यह दर्द जाहिर किया था और उससे मुझे अपनी युवावस्था में देखी वे फिल्में याद आईं जिनमें कास्ट पहले उर्दू में आता था, फिर अंगेजी में और अन्त में हिन्दी में, गो अन्तिम के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ कि वह आता भी था या नहीं।
‘’तुम लाइलाज हो।‘’
‘’अपने बारे में जानता हूँ। उसका कारण भी जानता हूँ, परन्तु यह भी जानता हूँ कि हम दोनों को एक ही वार्ड में भरती नहीं किया जाएगा। तुमको पूरी बात तो सुननी चाहिए इतना बड़ा खतरा उठाने से पहले।‘’
‘’बोलो क्या कहना है।‘’
‘’हिन्दी राष्ट्रभाषा बनेगी तो हम उर्दू को जनभाषा बनाऍगे यह था उनका संकल्प। इसलिए हिन्दी/उर्दू सिनेमा ने अपनी भाषा का इस्लामीकरण किया और अन्तर्वस्तु का ‘जन-वादी-करण’ करते हुए, मजदूरों के निकट पहुँचने के प्रयत्नं में मनोरंजन के सबसे प्रभावशाली माध्यम से कुरुचि का विस्तार किया। पहली बात यह कि मजदूर और सिनेमा में, मजदूर पहले और सिनेमा बाद में। मजदूरों के कारण हिन्दी के विषय में अहिन्दीे भाषाओं में यह संदेश गया कि हिन्दीे बोलने वालो की संख्या जो भी हो, यह मजदूरों और गँवारो की भाषा है और उस मजदूर वर्ग तक पहुँचने के प्रयत्नं मे सिनेमा का भदेसीकरण किया गया जिससे अन्य भाषा क्षेत्रों में यह सन्देश गया कि हिन्दीभाषी समाज अपरिष्कृत रुचि और प्रतिभा का समाज है और इसके नेतृत्व में भारत का अकल्याण ही हो सकता है। यह सचाई नहीं थी, पर इसे सचाई का रूप निहित स्वार्थो के कारण दिया गया। इसका उपयोग एक कारगर औजार के रूप में किया गया।‘’’
’’तुम असह्य हो यार । दिमाग मत खराब करो।”

Post – 2016-02-04

राष्‍ट्रभाषा (edited)

‘’तुम आधे दिमाग के आदमी हो कोई बात पूरी कर ही नहीं पाते।‘’
’’श्रोता की पाचन-शक्ति का ध्यान रखना पड़ता है। एक साथ पूरी बात पचा नहीं पाओगे, इसलिए टुकड़े-टुकड़े करके पेश करना होता है।‘’
‘’जुमलेबाजी पर आ गए। आज भी यही सुनना पड़ेगा कि यार बात पूरी तो हुई नहीं। तुम संक्षेप में बताओ तुम कहना क्या- चाहते हो। कोई बात उलझी रह गई तो बाद में पूछ लूँगा।‘’
’’मैं तीन बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता था। हिन्दी प्रदेश की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि लम्‍बे अरसे तक इसी को हिन्दुस्तान कहा जाता रहा है। आज भी बंगाली इस क्षेत्र के लोगों को हिन्‍दुस्‍तानी या पंजाबी कहता है। जिसने इस पर अधिकार कर लिया वह पूरे भारत को जिसमें तुम पाकिस्तान को भी जोड़ सकते हो, जीत लेता रहा है या कहो, उसके लिए ऐसी विजय आसान हो जाती रही है। वैसे तो इसे स्मिथ ने फ्रांसीसियों से अपनी श्रेष्ठोता जताने के लिए कहा था, और एक हद तक झूठ भी कहा था, परन्तु उसका कहना था कि अंग्रेजो ने बंगाल में या गांगेय पट्टी पर अधिकार किया और फ्रांसीसी मद्रास में केन्द्रित हुए इसलिए भारत पर स्वाभाविक स्वा‍मित्व अंग्रेजों का ही हो सकता था उसी ने इस इतिहास की ओर ध्यान दिलाया था, उससे पहले मेरे दिमाग में भी यह बात न थी। पर असलियत यह थी कि गंघार से ले कर मगध तक हिमालय से ले कर उज्जैन तक इसके संपर्क सूत्र फैले थे और ईसा से कई सौ साल पहले यहीं के संस्क़ृत विद्वान अन्‍यत्र पहुचते और समादृत होते थे। कहें, अपनी केन्द्रीय स्थिति का भौगोलिक लाभ इसे मिलना ही था। भारत के दूसरे सभी अहिन्दी प्रदेश इससे सीधे संपर्क में थे जब कि उनके बीच यह संपर्क बहुत हाल का है या सीमित था। वे कुछ क्षेत्रों और उनके लोगों से सीमांत क्षेत्रों के लोगों उनकी भाषाओं और रीतियों से परिचित तक न थे परंतु इस केंद्रीय भाग को जैसी भी सही, सबकी जानकारी थी और इसके माध्यम से उनको एक दूसरे की कुछ जानकारी मिली थी और मिलती रही थी।
इसी के उूपर पालि और प्राकृत का एक दूसरा रद्दा चढ़ा था जो संस्कृत का स्थानीय ध्वनिसीमा में उच्चरित रूप था और इसलिए प्राकृत का प्रयोग नाटकों के उन पात्रों द्वारा किया जाता था जिनको औपचारिक शिक्षा प्राप्त़ न थी। जैसे महिलाऍं, नौकर-चाकर आदि । इसे जैन मत ने अपनी भाषा बना कर अपने साहित्य के लिए प्रयोग किया। जैन और बौद्ध मत ने अपने संजाल का प्रसार व्या-पारिक मार्गों पर और उनके माध्यम से उनके परिवेश में किया। जैन मत का प्रसार तमिल क्षेत्र में भी हुआ और संगम साहित्य का बहुत सारा साहित्य इस जैन मत के अनुमोदन में लिखा गया, जब कि पालि का प्रवेश उससे भी दक्षिण में, श्रीलंका तक में हुआ और मुझे जो विचित्र बात लगती है वह यह कि श्रीलंका को कन्नड क्षेत्र से गए हुए लोगों ने प्रभावित किया। एकारान्त शब्द भारत में केवल कन्नड की और इससे बाहर श्रीलंका की विशेषता है। यह कैसे हुआ, क्या महेन्द्र अपने सिंहल की यात्रा में कर्नाटक होते हुए और वहॉं के दलबल के साथ गए थे, या नहीं, इसका मुझे कुछ पता नहीं, परन्तु भाषा के तथ्य‍ यही कहते हैं।
परंतु मैंने कहा न कि हम कुछ आगे बढ़ आए हैं । इससे पीछे एक बहुत क्रान्तिकारी चरण है। वह है कृषि और कृषिविद्या के माध्यम से उसकी जानकारी और शब्दावली का प्रसार। कोसंबी ने अपने निजी कारणों से यह स्वींकार किया है कि भारत में कृषि का प्रसार आर्यभाषा के प्रसार के समानान्तर हुआ है। यह एक अर्धसत्य है। हम इसकी मीमांसा की ओर नहीं मुड़ेंगे फिर भी यह कहना जरूरी है कि मोटे तौर पर यह सच है क्योंकि जिन देवों और ब्राह्मणों ने कृषि की दिशा में कदम आगे बढ़ाया था उन्हें सफलता या एक जगह टिक कर खेती करने का सुयोग इसी भूभाग में कहीं मिला था। वह स्थान या क्षेत्र जो भी रहा हो, वह इसी प्रदेश में था और कृषिविद्या का प्रसार सबसे पहले जिस क्षेत्र में हुआ उसे तुम आज की भाषा में हिन्दी प्रदेश कह सकते हो।”
’’मैं अधिक नहीं जानता, परंतु इतना जानता हूं कि हिन्दीे अभी कल पैदा हुई है और तुम उसे युगों पहले ले जा कर एक दिव्य अधिकार दिलाना चाहते हो। ”
”मैंने सोचा था तुम मेरी बात समझ जाओगे। मुझे उसका नाम नहीं लेना पड़ेगा। अब लगता है कि तुमको बुनियादी बातों की भी जानकारी नहीं है। हिन्दी एक भाषा नहीं है, एक सांस्क़ृतिक क्षेत्र की वाणी है जो कई हजार साल से आपस में कई तरीकों से आलाप करती रही है। इसमें एक ही भाषा की स्‍वीकार्यता होती है।
और यह क्षेत्र तीन स्तरों से निर्मित हुआ है। एक, आहार संचय और आखेट का चरण जिसे पुराणों की भाषा में सतयुग कहा जाता है और शेष सभ्यता के उत्थान के साथ अर्थतन्त्र के समानान्तर, परन्तु अपनी वक्र रेखाओं के साथ, जिसमें नियम तलाशने चलोगे तो वे कुछ दूर तक साथ देंगे परन्तु आगे काम न आऍंगे।
अब तुम हिंदी क्षेत्र को इस रूप में समझ सकते हो कि यह किसी एक भाषा का क्षेत्र नहीं है, कृषि विद्या के साथ पारस्‍परिक संपर्क में आई बोलियों का क्षेत्र है; सांस्कृतिक अन्तरक्रिया का क्षेत्र है, जिसमें कोई भी एक भाषा, उसका उद्गम क्षेत्र कोई भी क्यों न हो, उसका मानक चरित्र सारस्वकत क्षेत्र में आ कर ही निर्धारित होता है और इसके बाद यह अखिल भारतीय स्वीकार्यता पा जाती रही है। वह वैदिक हो, संस्कृत हो, पाली या अपभ्रंश हो या आधुनिक बोलियॉ हों। यह सुयोग ही है कि आधुनिक हिन्दी उसी सारस्वरत क्षेत्र की उपज है जिसमें कुऱु पांचाल आते रहे हैं और यह उस क्षेत्र के लोगों द्वारा आगे बढ़ कर अपना ली गई जिनकी अपनी भाषाऍं और ऐसी बोलियॉं थीं, जिनका साहित्य इस पूरे क्षेत्र में स्वीकार्य था। यह अविरोध या सहर्ष स्वीकार ही उस भाषाई क्षेत्र की सीमा रेखा निर्धारित करता है जिसे आप हिन्दी क्षेत्र कह सकते हैं जो भारतीय भूभाग में सभ्यबता और संस्कृति के विकास में अग्रणी रहा है और आज पश्चिमी कूटनीतिक सफलता का प्रमाण ही माना जाएगा, कि यह सांस्क़ृतिक और भाषा-संस्कार का क्षेत्र कलह और विरोध का क्षेत्र बना दिया गयाा। ,
यह स्थिति बहुत हाल की है, साझाी विरासत बहुत पुरानी है। यहॉं की भाषा अखिल भारतीय संपर्कसूत्र का काम दस पॉच हजार साल से करती आई हैा हिन्‍दी की हिन्दी प्रदेश में स्वीकार्यता और बाहर इस पर आश्चर्य भी स्वाभाविक है।हिन्‍दी इसी तर्क से इस देश को जोड़नेवाली भाषा है, समस्त भारतीय अहिन्दी भूभाग में कुछ लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है। यह संविधान की क़ृपा से या किसी आन्देालन से पैदा हुई भाषा नहीं है, अपितु नैसर्गिक राष्ट्रभाषा है और आज भी राष्ट्रीय उपयोग की भाषा है वह राजकाज की भाषा बने या न बने। भारत की किसी भाषा से इसका विरोध नहीं, बाहर तक की भाषाओं से भी नहीं। िफर भी यदि इसे ले कर गलतफी पैदा हुई तो इसे हम व्रितानी कूट नीतिक सफलता का प्रमाण मान सकते हैं ।
तुम ठीक कहरहे थे, विषय ही कुछ ऐसा है कि इसे न चुटकी बजाते समझा जा सकता है न हल किया जा सकता है।
परन्तु् गौर करो, अभी तो हमने इसके छिल्के पर बात की है। इसकी मर्मकथा और आज की समस्या तो बची ही रह गई है। इतना धैर्य है कि उन पर भी बात की जा सके।”
उसने हाथ ख्ड़े कर दिए।

Post – 2016-02-03

अधूरा ही सही

‘’तुमने भगवान को देखा था कभी या कि नहीं?‘’
’’क्योे ऐसा क्या हो गया?’’
’’सुना उस शख्स को गुजरे हुए जमाना हुआ।‘’
‘’शेर तो अच्छा है।‘’
’’सिर्फ शेर ही दिखाई दिया तुम्हें, वह वेदना नहीं जो अनकही रह गई है। तुमने घनानन्द को पढ़ा है। हिन्दीे पढ़ाते हो तो पढ़ा ही होगा। उसकी वह पंक्ति याद है, ‘लोग है लागि कबित्त बनावत मोहें तो मेरे कबित्त बनावत।‘ मैंने कुछ कहा तो तुमने कहा अच्छा शेर है, यह न समझ पाए कि व्यथा इतनी गहरी है कि आह भी शेर बन जाती है।
‘’आज कैसी निराशा भरी बातें कर रहे हो यार। हुआ क्या है?‘’
‘’कल तुम कह रहे थे मैं तैश में आ गया था। यह जो भीतर की व्यथा है उसे बहुत प्रयत्न से हँसी मजाक से ढके रहता हूँ पर कभी कभी सँभाल नहीं पाता। प्रयत्न करके भी। पर कलम उठाता हूँ तो मैं लिखता नहीं हूँ उसे अपनी भाषा और भंगिमा स्वयं तलाशना होता है।‘’
देखो, मेरे फिकरे का मलाल है तो मैं अपनी गलती स्‍वीकार करता हूँ। तुम्‍हारी दिमागी हालत का पता लगा कर बात करनी थीा जाे भी हो, तुम्हारा आक्रोश सात्विक है, पर तुम लोग आदर्शवादी ठहरे, यह नहीं समझ पाते कि आदमी आदर्श नहीं खाता, रोटी खाता है। रोटी जिधर से भी मिलेगी, आदमी उसी ओर दौड़ पड़ेगा।‘’
‘’लावारिस कुत्ते की तरह । यही कहना चाहते हो? मार्क्सतवाद को तुम लोग निरी रोटी पर क्यों उतार देते हो कि शर्म तक की गुंजायश नही रहती। देखों आदमी रोटी खाता नहीं, रोटी की ओर दौड़ता नहीं, वह रोटी पैदा करके खाता है। अपने काम को पूरी ईमानदारी और पूरे श्रम से किए बिना तुम अपनी रोटी पैदा नहीं कर सकते। जो लोग ऐसा नहीं करते वे अपनी कमाई की रोटी नहीं खाते, किसी का फेंका या चुराया हुआ टुकड़ा खाते हैं। शारीरिक श्रम हो या बौद्धिक, मैं इन दोनों में यहाँ फर्क नहीं करता। तुम्हारा कर्म क्षेत्र ही वह खेत खलिहान और रसोईघर है जहॉं से तुम्हे अपनी रोटी उगानी और पकानी है। हमने वह नहीं किया। चोरी करते रहे, भीख मागते रहे, शारीरिक श्रम के क्षेत्र में भी और बौद्धिक श्रम के क्षेत्र में भी काम किया ही नहीं, नैतिकता की तो चिन्ता ही नहीं रही, वही तो दोनों क्षेत्रों में सक्रिय रखती है।
‘’ज्ञान के क्षेत्र में भी हमारी स्थिति यही है। हमने अपनी समस्यांओं का सामना ही नहीं किया, उन्हें समझा तक नहीं। भागते रहे, प्रतीक्षा करते रहे कि कोई देव दूत पच्छिम से आएगा और उनका अध्य्यन करके हमें उनका समाधान देगा, और हम उसे निगल जाऍंगे और इस बात की अकड़ दिखाते फिरेंगे कि इसे सबसे पहले मैंने निगला था।‘’
’’लगता है आज फिर बोर करोगे। देखो, तुम अपने नाम के साथ जो सिंह लगाते हो न, उसे हटा दो, उसके स्थान पर बोरवर्कर रख लो। सुनने वाले को लगेगा बोरीवेली की तरह बोरवर्क नाम का भी कोई स्थान है जहॉं से तुम्हारा उद्भव हुआ है। यह बताओ तमिल वाला भूत उतर गया, नैतिकता का यह नया जिन्नत सवार हुआ है?‘’
’’मैं उसी पर बात कर रहा हूँ। देखो, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव और आन्दोलन अहिन्दी भाषियों ने किया था। यहॉं तब सब कुछ ठीक था। दो बातें सर्वमान्य थी । यह कि स्वनतन्त्र भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं रह सकती, अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी को भी विदा करना होगा, और भारत की राष्ट्रभाषा की भूमिका का निर्वाह हिन्दी ही कर सकती है अत: हिन्दीं प्रचार से जुड़ी संस्थाओं का नाम हिन्दी प्रचार सभा या समिति न रख कर राष्ट्रभाषा प्रचार सभा या समिति रखा गया था जो उनके साथ आज भी अजागलस्तन की तरह लटका रह गया है जब कि मेरे एक मित्र ने मुझे याद दिलाया कि भारतीय संविधान में हिन्दी के लिए राजकाज की भाषा या राजभाषा का प्रयोग हुआ है, अब भी मौका है, अपनी भूल सुधार लो, और इसीलिए मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के द्वारा सम्मानित होने का अवसर मिला तो वह पीड़ा उभर आई। तुम जानते हो, मेरी सहानुभूति हिन्दीे को राष्ट्रभाषा बनाने वालों के साथ नहीं है, इसका विरोध करने वालों के साथ हो सकती थी, पर है नहीं ।‘’
‘’क्या कह रहे हो तुम, पता है? तुम पहेलियॉं गढ़ने का एक साफ्टवेयर तैयार करो। फेसबुक वाले खरीद लेंगे और तुम मालामाल हो जाओगे। यार, कभी तो ऐसी बातें किया करो जो मेरी खोपड़ी में भी धँसें।‘’
’’ठीक कहा तुमने, तुम्हारी ही नहीं, पूरे देश की खोपड़ी इतनी मोटी हो गई है कि मेरी कमजोर आवाज उसे भेद नहीं पाती। उदाहरण दूँ तो, हिन्दी वाले आज भी हिन्दी का कारोबार करते हैं, हिन्दी से प्या।र नहीं करते।‘’ वह हँसने लगा

Post – 2016-02-02

हम जैसे हैं वैसे क्‍यों हैं ?

’’तुम जानते हो आदमी के पेट में भी एक छोटा दिमाग होता है और वह अपने फैसले स्वयं कर लिया करता है, केवल अपने फैसले नहीं करता, बड़े दिमाग को नियन्त्रित और निर्देशित भी करता है?‘’

‘’यह खयाल कैसे सूझ गया तुमको ?’’

’’इसलिए कि हममें से अधिकांश लोग पेट वाले दिमाग से सोचते हैं, बहुत कम लोग हैं बड़े दिमाग से सोचते हैं। सत्ता हस्तांतरण के बाद हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती चली गई । यदि ऐसा न होता तो हमने सत्ता पाने के बाद उधरंभर बनने की जगह स्वतंत्र बनने की कोशिश जरूर की होती। सत्ता- हस्ता‍न्तरण को ही स्वाधीनता मान कर रास-रंग में व्यस्त न हो गए होतेा। स्वतन्त्रत कहे जाने वाले भारत में उदरंभरता का विस्तार न हुआ होता, हमारी जबान लम्बी और रीढ़ कमजोर न होती गई होती।
‘जानते हो उदर वाले दिमाग से सोचने वाले पेट के बल रेगते हैं, तनकर खड़े नहीं होते इसलिए वे चलते नहीं हैं किसी के पॉंव पकड़ कर घिसटते हैं और हम पश्चिम के पॉंव पकड़ कर घिसटते हुए आगे बढ़ रहे हैं और प्रसन्न हैं कि जहॉं थे वहॉं से इतना आगे बढ़ चुके हैं, यह नहीं समझ पाते कि जिस सतह पर थे उससे कितने गिर चुके हैं।‘’
’’तुम यह मानोगे कि तुम ऐसी बातें लोगों को चौंकाने के लिए करते हो?’’
‘’ तुम मेरे साथ दोस्ती के कारण कुछ रियायत कर रहे हो। मैं चौकाने के लिए कुछ नहीं करता। अपने भरसक थप्पड़ लगाता हूं और उस चुल्लू भर पानी की तलाश करता हूँ जिसमें कभी लोग डूब मरा करते थे। क्योंकि थप्पण खा कर भी तुम कहते हो मजा आ गया, कितनी चमत्कारी बात कही है और तान कर सो जाते हो अलगे थप्पड़ के इन्तजार में जब फिर मजा आएगा।
” आश्चर्य होता है कितना श्रम उन्होंने हमें अपना बौद्धिक गुलाम या अपना परजीवी बनाने के लिए किया। उसकी शतांश कोशिश भी हमने अपनी मानसिक स्वाधीनता के लिए की होती, उनकी दबोच से बाहर निकलने के लिए की होती तो …’’

”तुम हवा में बातें कर रहे हो। पता नहीं चलता तुम किसके किस गुण या दोष की ओर इशारा कर रहे हो।”

‘’मैं बात तो कर ही नहीं रहा था यार। मैं तो रो रहा था। रोने के कई रूप हैं, कई बार आदमी हँसते हुए भी रोता है और बोलते हुए भी रोता है, और कई बार चीत्का‍र करते हुए भी अट्ठहास करता है। तुमने देखा दलि‍त चीत्कार के रूप में प्रकट होता दलित अट्टहास।”

”आ गए न सामयिक राजनीति पर।”

” मौसम की मार से कोई बचा है। पर मौसम की मार खाने वाले भी लगातार मौसम पर बात नहीं करते। मैं रो भी रहा था और उन महान सांस्क़ृतिक आक्रमणकारियों की राष्ट्रनिष्ठा को अश्रुजल से तृप्तं भी कर रहा था। मेरे मन में उनके प्रति उससे गहरा सम्मान है जो तुमहारे मन में होगा जो उपनिवेशवादी मूल्यों से क्रान्ति का सपना देखते देखते उूब गए तो सोचा धर्मक्षेत्र में ही क्रान्ति कर ली जाए और इन धर्मों के बुनियादी तत्वों तक को नहीं समझा। जो हो रहा है अच्छां ही होगा, समय आगे बढ़ता है तो समाज भी आगे बढ़ता है के इकहरेपन के कारण न अपने समय को समझ पाए न समाज को न अपने कार्यभार को … ”

’’तुम तैश में आ गए हो।‘’

’’जानता हूँ इसलिए यह भी नहीं समझा पाउूँगा कि तैश में आया क्यों हूँ। बात कल करेंगे।”

Post – 2016-02-01

पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा

”क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी बातें कुछ गfरष्ठ हो जाती हैं? ’’

”जानता हूं लॉलीपॉप चूसने वाले बच्चों को रोटी से घबराहट होती है। हम साहित्य के नाम पर केवल कविता कहानी चुटकुले और हल्के फुल्के व्यंग्ये के आदी हैं, भावुकता को खुराक देने वाले साहित्य के आदी हैं जिससे आनंद तो आता है परंतु विचार-विमुखता भी पैदा होती है, एक बौद्धिक रिक्तता भी जिसमें समाज के कर्णधार माने जाने वाले लोग हुड़दंग में शामिल हो कर नाम कमाने लगते हैं। देश को तोड़ने वाले इतने आयोजनों के बीच उस देश को समझने की कोशि‍श भी गरिष्ठ लगने लगती है। मैं तुम्हा्रे बौद्धिक आलस्य की दवा करना चाहता हूँ। तुम्हांरी रुचि बदलना चाहता हूँ। मालिश का शौक छुड़ा कर व्यायाम की आदत डालना चाहता हूँ।‘’
’’मेरा मतलब यह नहीं था, भार्इ। मैं सिर्फ यह कह रहा था कि क्या इन्हीं विचारों काे कुछ और सरल बना कर नहीं रखा जा सकता जिससे अधिक से अधिक लोग इसे समझ सकें?”
”कहा तो जा सकता है, एक ही बात को कई तरह से दोहराया भी जा सकता है, परंतु उसके बाद भी जरूरी नहीं कि जो न समझना चाहता हो उसकी रुचि ऐसे विषय में पैदा हो जाए। कुछ कहते समय सरलता से अधिक जरूरी है सटीकता। यदि बात सटीक ढंग से न कहीं गई तो सरल भाषा में कहने पर भी समझ में नहीं आएगी। आनन्दमार्गी साहित्य की लत से हमें बौद्धिक रूप में इतना खोखला कर दिया गया है कि उस खोखलेपन को भरने के लिए हमें हंगामों का सहारा लेना पड़ता है और उनमें शरीक होते समय लोग सोचते तक नहीं कि इसका अनुपात क्या होना चाहिए, किसी समस्या का समाधान क्या होना चाहिए, यह तक तय नहीं कर पाते कि अपने ही समाज और देश को लगातार उद्विग्नता की स्थिति में रख कर वे उसे किस दिशा में ले जा रहे हैं? ”
”तुम क्या किसी से कम हो। कोई बहाना मिल जाय उसी हंगामे में तुम भी शामिल हो जाते हो, हॉं दूसरी ओर से। तुम उसी बात को कुछ और साफ करो जिसे कल उठाया था। मुझे उससे कोई परेशानी नहीं थी। सच कहो तो मुझे बहुत मजा आ रहा है यह सोचकर कि कैसे हमारे तार एक दूसरे से जुड़े हैं। सच कहो तो इन तारों को न हम लक्ष्य कर पाते हैं न हमारे समाजशास्त्री और ऩ नृतत्ववेत्ता, फिर भी ये सूत्र कुछ इस तरह काम करते रहते हैं कि तोड़ने की इतनी सारी कोशि‍शों के बाद भी इसका अपनत्व बना रहता है।”
”अभी तो तुमने इस तार के भीतर की पहलों को देखा ही नहीं। देखो, ये सभी स्थानवाची अव्यय तीन घटकों से बने हैं, ई/इ/य जो निकटता को प्रकट करता है और आगे अंक, कड, इड, इल, खान, हान या हॉ, ठान, त्थ आदि जिन सभी का अर्थ स्थान है और सबके साथ ए की विभक्ति लगी है जो में या पर का सूचक है। यह ए संस्क़ृत में भी गृहे, बने आदि में मिलेगा। तमिल का अंग और सं; का अंक एक ही हैं। इला और इल एक दूसरे से जुड़े हुए हैं अभी इन तारों के कुछ और पहल हैं जिनको देख कर तुम चकित रह जाओगे।
” देखो यह जो तमिल का इंगे है इ-अंक-ए मिले हुए हैं। अंक का मतलब हुआ स्थान, इविड में इ के साथ इड जुड़ा हुआ है डसका अर्थ है जगह । बांग्ला खाने में खान का अर्थ है स्थान एक और प्रयोग भोजपुरी में होता है यह भी स्थान का ही सूचक है और इसी तरह पंजाबी का त्‍थे वही है भोजपुरी अौर हिंदी का हां तरह की गहरी समानता भाराोपीय बोलियों में भी नहीं मिलेगी। वहॉं सीधे स्वीकार है और उस स्वीकार में अटपटापन है1 वाक्य विन्यास भी एक जैसा है कर्ता- कर्म- क्रिया। इनके विशेषण इनसे पहले। यह नियमितता भारोपीय बोलियों में नहीं पाई जातीा अंग्रेजी आदि में क्रिया कर्ता के ठीक बाद आती है और कर्म उसके बाद। बड़ी मशक्कत से काल्डवेल में तमिल आदि की वाक्य रचना को अलगाने के लिए यह फर्क निकाला कि हिन्दी आदि में सहायक वाक्य मुख्य वाक्ये से पहले आएगा, ‘मैंने सुना है कल फिर बरसात होगी’ तमिल आदि में उलट जाता है, जिसमें कल फिर बरसात होगी, ऐसा मैने सुना है जैसा वाक्य बनेगाा परन्तु उत्तर की बोलियों में, भाषाओं में और संस्कृत तक में यह प्राय: देखने को मिल जाएगा।”
”’बोर कर दिया। तुम उस कशीदाकारी की बात करने वाले थे जिसमें एक शब्द दूसरे सिरे पर पहुँच कर नई रंगत लेता है फिर उसके साथ लौटता है और एक नई रंगत लेकर वापस लौटता है। ऐसा झटके में कह गए थे?”

”पीने के अर्थ में तमिल में कुडि का प्रयोग होता हैा इससे भ्रम पैदा होता है कि यह दक्षिणी बोलियों का शब्‍द है। परन्‍तु संस्‍कृत कु/कुं का अर्थ ह पानी। कुमुद/कुमुदिनी का अर्थ है पानी में मगन रहने वाला/वाली, कमल, कमलिनी। कूप, कुँआ, कुंभ –जलपात्र, कुंभी, कुप्पी- द्रव रखने की थैली, कुड, कूँड़ा त; कुडम्, कुडिक्कारन – पियक्‍कड़।
त. पो – जाना, सं; पवि – क्षेप्यास्‍त्र, पवन – चलने वाला, अर्थात् वायु, (वायु: वाति),
त. में ऑख के लिए कण् का प्रयोग होता है संस्क़ृत सहित उत्तर की भाषाओं में अक्षि- ऑख, चक्षु – बां. चोख आदि । अब इस भिन्नता के कारण पहली नजर में दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। पर त. में कण् का एक और अर्थ है गोलाकार गड्ढा जो अक्ष का भी अर्थ है। संकल्पना के स्तर पर इस समानता से आगे बढ़ने पर हम सं. और हिन्दी आदि में कनीनिका या ऑंख की पुतली (इस पुतली के साथ हो सकता है आपको अंग्रेजी का प्यूपिल भी याद आ जाये), काणा या काना, कण्व – द्रष्टा (सायण ने कण्व का अर्थ काना लिया है, फिर भी आँख से संबन्ध तो बना ही हुआ है), प्रस्कण्व – चिचक्षण। परन्तु इससे पीछे भाषा के विकास का एक स्तर है जिसमें भारतीय भाषाओं में जिन वस्तुओं में अपनी कोई ध्वनि नहीं होती उन सबके लिए शब्द जल के पर्यायों से लिए गए है जिसकी प्रत्येक ध्वनि को एक उच्चार्य शब्द के रूप में ढाल कर इसके सूक्ष्म भेदों के लिए अलग शब्द बनाए गए और फिर उनमें से ही किसी या किन्हीं का प्रयोग नीरव भावों, पदार्थों, क्रियाओ आदि के लिए किया गया, यद्यपि क्रिया का अर्थ ही है ध्वनि का उत्पादन। इसे यहॉं नहीं समझा जा सकता। इस पर मैं बहुत बाद में चर्चा करूँगा । परन्तु यहॉं उस नियम को लागू करें तो कन् का अर्थ है जल, कंज का अर्थ है जलज, कनखल, कानपूर कन्नौज, कनइल, कनराय आदि का अर्थ है जलतटीय स्थल, कनक आ अर्थ है चमकने वाला और कनीनिका का अर्थ है देखने वाली।
इनमें धागे की वह कशीदाकारी समझ में नहीं आती, यद्यपि है. इसलिए एक अन्य उदाहरण को लो। तमिल में दूध के लिए पाल् का प्रयोग होता है, तेलुगु में यह पालु हो जाता है, हिन्दीे का पालन अर्थात् दूध पिला कर पोषण करना इसी से निकला है और इस तरह पालित शिशु के लिए बाल या बालक का विकास इसी से हुआ है, परन्तु। हिन्दी का पाला जो तुहिन या फ्रास्ट के आशय में प्रयोग में आता है क्या् इस पाल् से निकला है। नहीं। इसके पीछे जाने पर हमें प्ल, प्लव, प्ला‍वन आदि जल से जुड़े शब्द मिलते हैं। अब हमें पता चलता है कि पानी के लिए जिस शब्द का प्रयोग हुआ, उसी का अर्थविस्तार दूध, अमृत, आदि के लिए भी हुआ और ठंड तथा बर्फ आदि के लिए भी। पा, पी, पानी, पय, वीयूष, अम, अम्बु , अमृत। पहली नजर में जो द्रविड़ मूल का शब्द् दिखाई दे रहा था अब उसकी जड़ें आर्यभाषा में दिखाई दे रही हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि इन शब्दों का स्रोत तथाकथित आर्य भाषाऍं हैं, बल्कि यह कि यह साझेदारी इतनी जटिल है कि हम अपनी भाषा संपदा को आर्य या द्रविड़ न कह कर भारती कहें, कम से कम उस भाषा को भारती कहें जिसका प्रसार भारत से ले कर यूरोप के छोर तक सीधे और उससे आगे का प्रसार उन क्षेत्रों के कारक तत्वों के कारण हुआ था तभी हम समझ पाऍंगे कि यूरोप तक पहुँची संपदा में द्रविड़ के तत्वे जिन्हें काल्ड्वेल ने लक्ष्यू किया था क्यों हैं और जैसा कि हाफमैन आदि ने बाद में लक्ष्य किया, मुंडारी के तत्व यूरोप तक कैसे पहुँचे है। यहॉं इनकी चर्चा जरूरी नहीं। तुम थक भी रहे होगे, फिर भी काल्डवेल की एक टिप्पेणी के साथ अपनी बात समाप्त् करना ठीक रहेगा:
The distinctive marks of the neuter gender, in the Dravidian languages, even agree with those of our languages to so great an extent that it does not appear probable that these two circles of languages should have developed the neuter gender quite independently of each other. The Dravidian languages have not yet been proven to belong to our own sex-denoting family of languages; and although it is not impossible that they may be shown ultimately to be a member of the family, yet it may also be that at the time of the formation of the Aryan languages a Dravinian influence was exerted upon them, to which this, among other similarities is due.72
गौर करो। काल्डवेल भी जानता था या उसे इसका आभास था कि जिसे वह द्रविड़भाषा परिवार कह कर संस्क़ृत से अलग कर रहा था उसकी गहरी पड़ताल में उतरने पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि इन दोनों में बुनियादी अलगाव नहीं है, फिर भी हमने उस दिशा में प्रयास तक न किया। इस देश को तोड़ने वाले तक समझदारी बरत रहे थे कि आगे चलकर उनकी बात गलत सिद्ध हो तो भी उनकी अकादमिक साख को बट्टा न लगे, परन्तु हमने अपना काम नहीं किया। हम राजनीति करते रहे और आज भी कर रहे हैं, जैसे हमारा अपना कोई घर ही न हो।दूसरे के घर में हम या तो भार बन कर रहेंगे या उसकी चाकरी करते हुए। राजनीति की भागीदारी ने साहित्ययकार को इन्हीं दो में से कुछ न कुछ बनाया है। मालिक बन कर केवल अपने घर में रहा जा सकता है जिसे हमने या हमारे पुरखों ने बनाया है और हमें सौंप गए हैं। उसकी मर्यादा की रक्षा तक हम नहीं कर पा रहे।