हमने अपने को परिन्दों की जबॉं से जाना
’हॉं अब बताओ ऊपरी छिल्के के नीचे की वह सचाई।‘’
’’सबसे पहले मैं इस प्रचलित भ्रम को दूर कर दूं कि हिंदी के प्रसार में हिन्दीं सिनेमा का, हिन्दी क्षेत्र के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की भूमिका प्रधान थी.”
“यह तो सर्वमान्य तथ्य है यार, इसे कैसे नकार सकते हो? ”
” नकार नहीं रहा हूँ, उस अतिमूल्यन का प्रतिवाद कर रहा हूँ जो सामान्य ज्ञान का हिस्सा बन गया है। उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु साथ ही इनके ऋणात्मक पहलू पर भी ध्यान देना होगा, भावुकता के कारण जिसकी अनदेखी की जाती रही है और इतिहास की उस वक्र रेखीय चाल को समझने में भूल की जाती रही। तुमने एक बार मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा था न ‘चलई जोंक जिमि वक्र गति’, इतिहास की भी चाल ऎसी ही है यार ! हम समझते है आगे बढ़ रहा है, बढ़ता भी है पर साथ ही बल खाकर नीचे भी चला जाता है।”
‘’पहली बात तो यह कि इस प्रसार का हिन्दी को लाभ नहीं हुआ, उल्टे नुकसान हुआ। दूसरी बात यह कि हिन्दी सिनेमा जैसी कोई चीज तब थी ही नहीं। इसे उर्दू सिनेमा बनाया गया और उसी को हिन्दी सिनेमा कहा गया और उर्दू के लेखकों को इसका मलाल रहा कि हम उर्दू सिनेमा बना रहे हैं और लोग इसे हिन्दी सिनमा कह रहे हैं।‘’
”तुम्हे उलटबॉंसियॉं इतनी पसन्द हैं कि कोई बात सीधी कह ही नहीं पाते। उर्दू सिनेमा बनाया गया और हिन्दी सिनेमा कहा गया। कोई तुक है इसमे1”
‘’समझ नहीं पाओगे, परन्तु तथ्य के रूप में इसे दर्ज कर लो कि जिन्हें तुम प्रगतिशील लेखन कहते हो और उर्दू के जिन कवियों को तुम प्रगतिशील मानते हो वे अपनी सांप्रदायिक चिन्ता से इतने ग्रस्त थे कि जब उनको लगा कि स्वतन्त्रता को रोका नहीं जा सकता, स्वतन्त्र भारत की भाषा हिन्दी ही होगी, उर्दू का भविष्य क्या होगा, इस चिन्ता से कातर, किसी रहस्यमय तरीके से उर्दू की उत्कृष्ट प्रतिभाओं ने निश्चय किया कि हम नए और सबसे प्रतापी संचार माध्यम सिनेमा का उपयोग करके उर्दू को बचाऍंगे। इसे जन जन तक पहुँचाएंगे। उनकी सर्वोत्कृष्ट न भी कहें तो उत्कृष्ट् प्रतिभाओं ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उर्दू को भारतीय जनभाषा बनाने के लिए उन्होंने यह आखिरी प्रयत्न किया।‘’
‘’यह राज की बात सिर्फ तुम्हें मालूम है या किसी और को। यह बताओ तुम किस चक्की के आटे की रोटी खाते हो। इतने उम्दा खयाल तो आरएसएस की चक्की के आटे से ही पैदा होते है।‘’
”मैं यह नहीं कहूँगा कि तुम जैसे नासमझ बिना पिसे और पकाए, भूसा से ले कर अनाज तक खा जाने वालों में ही पैदा होते हैं, क्योंकि मैं दोस्ती की कद्र करता हूँ। तुम्हारे सन्तोष के लिए बता दूँ कि मैं भी तुम्हारी ही तरह नादान था। भला हो कर्रतुल ऐन हैदर का जिन्हों ने यह दर्द जाहिर किया था और उससे मुझे अपनी युवावस्था में देखी वे फिल्में याद आईं जिनमें कास्ट पहले उर्दू में आता था, फिर अंगेजी में और अन्त में हिन्दी में, गो अन्तिम के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ कि वह आता भी था या नहीं।
‘’तुम लाइलाज हो।‘’
‘’अपने बारे में जानता हूँ। उसका कारण भी जानता हूँ, परन्तु यह भी जानता हूँ कि हम दोनों को एक ही वार्ड में भरती नहीं किया जाएगा। तुमको पूरी बात तो सुननी चाहिए इतना बड़ा खतरा उठाने से पहले।‘’
‘’बोलो क्या कहना है।‘’
‘’हिन्दी राष्ट्रभाषा बनेगी तो हम उर्दू को जनभाषा बनाऍगे यह था उनका संकल्प। इसलिए हिन्दी/उर्दू सिनेमा ने अपनी भाषा का इस्लामीकरण किया और अन्तर्वस्तु का ‘जन-वादी-करण’ करते हुए, मजदूरों के निकट पहुँचने के प्रयत्नं में मनोरंजन के सबसे प्रभावशाली माध्यम से कुरुचि का विस्तार किया। पहली बात यह कि मजदूर और सिनेमा में, मजदूर पहले और सिनेमा बाद में। मजदूरों के कारण हिन्दी के विषय में अहिन्दीे भाषाओं में यह संदेश गया कि हिन्दीे बोलने वालो की संख्या जो भी हो, यह मजदूरों और गँवारो की भाषा है और उस मजदूर वर्ग तक पहुँचने के प्रयत्नं मे सिनेमा का भदेसीकरण किया गया जिससे अन्य भाषा क्षेत्रों में यह सन्देश गया कि हिन्दीभाषी समाज अपरिष्कृत रुचि और प्रतिभा का समाज है और इसके नेतृत्व में भारत का अकल्याण ही हो सकता है। यह सचाई नहीं थी, पर इसे सचाई का रूप निहित स्वार्थो के कारण दिया गया। इसका उपयोग एक कारगर औजार के रूप में किया गया।‘’’
’’तुम असह्य हो यार । दिमाग मत खराब करो।”